Thursday, June 7, 2018

निरक्षरों के लिए आईटीआई


केंद्र  सरकार के लगभग 17 मंत्रालय ऐसे हैं, जो किसी-न-किसी रूप में कौशल प्रशिक्षण का या तो स्वयं आयोजन करते हैं, या ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन और सहायता देते हैं। ये कार्यक्रम स्कूलों, आइटीआई जैसे वोकेशनल प्रशिक्षण केंद्रों या आईआईटी जैसी उच्च शिक्षण संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं। इनमें मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, कानून और एकाउंटेंसी की पढ़ाई कराने वाले कॉलेजों को भी शामिल कर सकते हैं। बावजूद इसके, देश में पेशेवर कामगार वर्ग का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा अकुशल या अप्रशिक्षित है। 2015 में जारी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसा इसलिए है कि हमारे कामगार वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा निरक्षर या अल्प शिक्षित है। पेशेवर कामगारों का दूसरा तबका वह है, जिसने ऊंची पढ़ाई की। तकनीकी प्रशिक्षण भी प्राप्त किया लेकिन उनके प्रशिक्षण और पढ़ाई का उनके वर्तमान पेशे से कोई मेल नहीं है। प्रशिक्षण और कुशल कामगारों के बीच की यह खाई देश के विकास के लिए बड़ी चुनौती है, हालांकि प्रधानमंत्री कौशल विकास के लिए स्वयं प्रयत्नशील हैं। नई आर्थिक गतिविधियां और बाजार निरंतर नये उद्यमों और कौशल को जन्म दे रहा है। इनमें से कुछ ट्रेड्स को तो औपचारिक मान्यता प्राप्त है, जैसे बढ़ईगिरी, प्लंबिंग, ड्राइविंग, इलेक्ट्रशियन आदि। पर आधुनिक जीवन शैली और शहरीकरण के साथ बहुत सारे ऐसे नये पेशे भी विकसित हो रहे हैं, जिन्हें किसी विशिष्ट पेशे का दरजा नहीं मिलता। हालांकि उनके लिए भी कौशल उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना किसी मान्यताप्राप्त पेशे के लिए। गौर कीजिए कि साड़ी या जूते की दुकान पर सेल्समैन का काम करने वाले के लिए हमारे यहां कोई प्रशिक्षण केंद्र नहीं है। प्रॉपर्टी डीलर के लिए स्थानीय संपत्ति तथा किरायेदार कानून की जानकारी जरूरी है। इनके पास भी औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है। जिन ट्रेड्स को किसी विशेष पेशे का दरजा मिला है, और जिनके लिए संस्थागत प्रशिक्षण दिया जाता है, तथा जिन ट्रेड्स के लिए कोई प्रशिक्षण उपलब्ध नहीं है, इन दोनों तरह के क्षेत्रों में शिक्षित, प्रशिक्षित तथा अशिक्षित या अप्रशिक्षित दोनों तरह के लोग कार्यरत हैं। घरेलू महिला सहायक, सफेदी या रंगाई-पुताई करने वाले, माली, गार्ड, प्रॉपर्टी डीलर, बेलदार, रिक्शा चालक आदि के रूप में बड़ी तादाद में लोग रोजगार प्राप्त करते हैं। इनके काम के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। दूसरी तरफ, बढ़ई, पेंटर, मोटर मैकेनिक, इलैक्ट्रिशियन, टेलर आदि के लिए प्रशिक्षण तो उपलब्ध है, लेकिन अशिक्षित, अल्प शिक्षित या अप्रशिक्षित पेशेवरों की बड़ी तादाद है। पिछले दिनों एक अध्ययन के लिए दस ऐसे पेशेवरों को चुना गया, जो निरक्षर या अल्पशिक्षित हैं, लेकिन अपने पेशेवर कौशल से जीविकोपार्जन कर रहे हैं, दिल्ली या मुंबई जैसे किसी महानगर में अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। अपना पेशेवर काम इन्होंने या तो पुश्तैनी पेशे की तरह अपने गांव में सीखा है, या महानगर में आने के बाद दूसरे पेशेवरों के सहायक के रूप में। इनमें पुरु ष और स्त्री, दोनों शामिल हैं। इन सबसे मुख्यत: चार तरह के सवाल पूछे गए : 1) इनके पेशे से जुड़े उपकरणों के नाम; 2) काम की बारीकियां; 3)पेशे में लेटेस्ट ट्रेंड; और 4) उन्हें इसकी जानकारी कहां से मिलती है। उनके जवाबों का सार था कि पेशे की ज्यादातर जानकारी हमपेशा कारीगरों और दुकानदारों से मिलती है। उनके कौशल विकास में जो भाषा मददगार होती है, वह उनकी अपनी सुविधा से गढ़ी हुई भाषा होती है। वे माइक्रोवेब को माइकोबेब, स्क्रबर को झांवां, मार्जिन को टक्कर, रिंच को चाबी, नम्बर को लम्बर और 20 5 एमएम के शेव्ड हेड वुड स्क्रू को दोपांच की कील कह सकते हैं। बिना अंक पढ़े किसी का टलीफोन नम्बर पहचान सकते हैं। औपचारिक शिक्षा न होने से उनके कार्य निस्तारण और कौशल विकास पर खास प्रभाव नहीं पड़ता। अध्ययन के दौरान राधा (काल्पनिक नाम) नाम की घरेलू सहायिका से पूछा गया कि जब वह अक्षर या अंक नहीं पढ़ सकती तो मोबाइल में कैसे पहचानती है कि कौन सा फोन किस मैडम का है? उसने बताया कि वह नम्बर के आखिर में बनने वाली बनावट से उन्हें पहचानती है। जैसे ग्यारह को दो डंडे, बाईस को दो नाग, दो शून्य को दो लड्डू के रूप में याद रखना। ध्यान देने की बात है कि मोबाइल का प्रयोग वह अपने पेशे के प्रबंधन के लिए करती है। पढ़ने और सीखने का मतलब सिर्फ किताब पढ़ना या क्लास में बैठ कर सीखना और इम्तिहान में पास हो कर डिप्लोमा हासिल करना नहीं है। अपने उस्ताद को काम करते हुए देखना और चाय की दुकान पर किसी हमपेशा के साथ कार्बुरेटर की सफाई का किस्सा सुनना भी पढ़ने और सीखने का हिस्सा है, जो कौशल विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। फ्रेंच विचारक लुई अल्तुसर कहते हैं कि हम किसी चीज को किस तरह पढ़ते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि हमारे पढ़ने का प्रयोजन क्या है। कक्षा में बैठ कर किताब पढ़ना या लेक्चर सुनना और किताब के माध्यम से भाषा का ज्ञान प्राप्त करना और फिर उस भाषा के माध्यम से कौशल विकास करना, जितना लंबा और शुष्क रास्ता बनाता है, उतना लंबा रास्ता तय करना शायद सबके लिए संभव नहीं होता। देश में कामगारों की एक बड़ी फौज है, जो पेशेवरों की तरह काम कर रही है, हालांकि उसने औपचारिक प्रशिक्षण नहीं प्राप्त किया है। स्पष्ट है कि प्रशिक्षणों के माध्यम से सिखाए जाने वाले बहुत सारे कौशल दूसरे अनौपचारिक तरीकों से सीखे जा रहे हैं। इससे दो तय सामने आते हैं। एक, कामगार अपने पेशे के गुर सीखना चाहते हैं, उनमें सीखने की क्षमता है। दूसरा, कौशल का प्रशिक्षण दूसरे अनौपचारिक माध्यमों से भी दिया जा सकता है। क्या हम ऐसे पेशेवरों के लिए अनौपचारिक प्रशिक्षण केंद्र नहीं बना सकते जहां बिना दसवीं का रिजल्ट दिखाए दाखिला हो सके। लिखित परीक्षा बिना पास हुआ जा सके। क्या अनौपचारिक प्रशिक्षण द्वारा उनके काम की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है? अखिर, उसका फायदा देश और समाज को ही मिलेगा। बहरहाल, औपचारिक तथा पारंपरिक प्रशिक्षण केंद्र तथा उनकी पद्धति हमारी विशाल आबादी की बहुलता का भार संभालने में सक्षम नहीं है। अब तक के अनुभव से यह स्पष्ट है।

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