Monday, June 25, 2018

इमरजेंसी के 43 साल: कैसे बीते थे वो महीने, क्या-क्या हुआ देश में उस दौरान


देश के उस काल को उस दौर के पत्रकार अंधाकाल कहते हैं। जानकार बताते हैं कि आपातकाल की घोषणा की 20 सूत्री कार्यक्रम की आड़ में की  गई थी लेकिन उस दौरान देश में राजनेताओं से लेकर आम जनता के साथ, महिलाओं के साथ और मीडिया के साथ जो व्यवहार किया गया वह न केवल निंदनीय है बल्कि अक्षम्य भी है।   
जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन ने अपने एक लेख में लिखा था कि आपातकाल कि घोषणा केवल मौजूदा सरकार, इंदिरा गांधी के निजी फायदों और सत्ता को बचाने के लिए लिया गया फैसला था। इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया।

 
इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए।  आपातकाल की घोषणा के दौरान इंदिरा गांधी और उनके चमचों ने मंत्रिमंडल तक से सलाह नहीं ली। कैबिनेट की मीटिंग 26 की सुबह तड़के बुलाई गई जिसमें कैबिनेट के गिनेचुने मंत्री ही शामिल हो सके। यही नहीं उनमें से जब कुछ मंत्रियों ने इसका विरोध किया तो उन्हें मंत्रालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। 

क्या क्या हुआ उस दौरान
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जून की रात को आपातकाल की घोषणा की गई और आधी रात से ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दिए गए। उस दौरान बिहार में जेपी आंदोलन की मुहिम चल चुकी थी जो देशभर में पहुंच रही थी। उस रात जेपी दिल्ली में थे और 26 की सुबह वह पटना के लिए रवाना होने वाले थे कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

आपातकाल के दौरान कांग्रेस की सरकार ने सबसे ज्यादा विपक्ष के राजनेताओं को जेल में ठूंसा। यही नहीं कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि इन नेताओं ने इमरजेंसी का पुरजोर विरोध किया। उस काल के पत्रकारों का कहना है कि आपातकाल के एक हफ्ते के भीतर देशभर से करीब 15 हजार लोगों को जेल पहुंचा दिया गया। परिवार वालों को अपने नेता रिश्तेदार की भनक तक नहीं लग रही थी कि वे कहां हैं। 

क्या अफसर और क्या अफसरशाही, मीडिया, कानून तक इमरजेंसी के दायरे में था।  जेपी आंदोलन में आंदोलन की पत्रिका चला रहे वरिष्ठ पत्रकार अशोक कुमार कहते हैं बहुत मुश्किल दौर था। महीनों हम एक जगह से दूसरी जगह छुपते फिरते रहे थे। हर दिन पत्रिका की सामग्री के साथ हम छुपते रहते थे। सारा काम अंडर ग्राउंड होता था। सामग्री एकत्रित करने से लेकर पत्रिका को छापने और आम जन तक पहुंचाने का चोरी छुपे किया जा रहा था। 

राजनेता जिन्हें जेल में रखा गया उनके साथ बदसलूकी के कई किस्से हैं। किसी को इतना मारा गया कि हड्डियां तोड़ दी गईं। बंगलूरू में जॉर्ड फर्नांडिस के भाई लारेंस को तो इतना पीटा गया कि वह सालों सीधे खड़े नहीं हो पाए। इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई।

संविधान और कानून धज्जियां उड़ाई गईं

इमरजेंसी इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही का ही नतीजा थी। देश में अव्यवस्था के नाम पर संविधान और कानून में अपने हिसाब से बदलाव किए गए। आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को समाप्त किया गया। ऐसा कर सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों पर रोक लगा दी। अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीनने के लिए जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को  निलंबित किया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था जिसमें कई बदलाव किए गए। 

वैसे आपातकाल की कहानी तो इलाहाबाद कोर्ट के उस फैसले के बाद लिखी गई थी जब राजनारायण के पक्ष में फैसला देते हुए 1971 के चुनाव को रद्द कर दियाथा। इंदिरा राजनारायण के इसी मुकदमे के  इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को अपने पक्ष में करने और  सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करने के लिए  कानून बनाया गया।  

संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।  इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया।  सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था, इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया।

रासुका में 29 जून, 1975 में ऐसे संशोधन किए गए जो किसी भी लिहाज से सही नहीं कहे जा सकते हैं।  इस संविधान के संशोधन के बाद नजरबंदी की सजा काट रहे बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार खत्म कर दिया गया।  इसे एक साल से अधिक समय तक बंदी बनाए रखने का प्रावधान बनाया गया। वहीं आपातकाल के तीसरे हफ्ते में 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार भी छीन लिया गया। 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन के बाद नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया।
मीडिया पर लगाए प्रतिबंध
आपातकाल के दौरान मीडिया को पंगु बनाने की पूरी कोशिश की गई। बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित मीडिया हाउस की बिजली सप्लाई रोकी गई। अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया। क्या छपेगा और क्या नहीं इसका नियंत्रण सरकार अपने हाथों में चाहती थी और इसपर नया कानून तक बनाया गया।। समाचार एजेंसियों पर लगाम लगाया गया।

देशभर में पत्रकारों, मीडिया संस्थानों के मालिकों और संपादकों पर अत्याचार किया गया यही नहीं कई संपादकों को जेल की हवा तक खिलाई गई।  इस दौरान पूरी कोशिश रही कि आम जनता तक नेताओं की गिरफ्तारी की खबरें न पहुंचे लेकिन सारी कोशिशें असफल रहीं। तत्कालीन  सूचना प्रसारण मंत्री आई के गुजराल के विरोध के बाद उन्हें पद से हाथ धोना पढ़ा और विद्याचरण शुक्ल को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई। 

सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी काको जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई। किशोर कुमार को काली सूची में डाल दिया गया। ऑल इंडिया रेडियो पर उनके गाए गीतों को बजाने की मनाही हो गई। फिल्म आंधीपर पाबंदी लगा दी गई। इस फिल्म को इंदिरा के जीवन की कहानी प्रभावित फिल्म बताया जाता है। 

महज आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम फैलाया गया
आपातकाल के दौरान मजदूरों और गरीबों का भी शोषण किया गया। सिर्फ पश्चिम बंगाल में करीब 16 हजार मजदूरों को जेल में बंद किया गया। देश में आर्थिक आपातकाल का भ्रम फैलाकर आम जनता से लेकर सरकारी महकमों में काम कर रहे लोगों के अधिकारों का दमन किया गया। 

अदालत पर भी रहा आपातकाल का असर
आपातकाल के दौरान जिस जज और वकील ने सरकार की अनसुनी की सभी को खामियाजा भुगतना पड़ा। नजरबंदी मुकदमों के तहत जिन जजों ने सरकार पर उंगली उठाई उनका तबादला किया गया। लेकिन जज भी अपने अधिकार और कानून को जानते थे वह अड़े रहे और सरकार के प्रयासों को असफल करने में सफल रहे। 

अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी
इस दौरान चुनचुन कर लोगों की नसबंदी कराई गई। दिल्ली साफ सुथरी बनाने के लिए गरीब झुग्गी में रह रहे लोगों के घरों पर बुल्डोजर चलाया गया और लोगों को रातों रात शहर से दूर भेजा गया। इन सबके बीच इंदिरा ने जहां 20 सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की वहीं आम जनता ने उनके जीवन के आतंक को इंदिरा के जीवन का आतंक बनाया और 1977 में हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। 21 महीने तक देश को झकझोर देने वाली इस घटना ने नए आयाम तय किए। 43 साल बाद भी आज उस दिन को काले अध्याय के रूप में ही देखा जाता है। 

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