विनायक दामोदर सावरकर
जन्म: 28 मई 1883
मृत्यु: 26 फ़रवरी 1966
विनायक दामोदर सावरकर भारतीय स्वतन्त्रता
आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः स्वातंत्र्यवीर , वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत
बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी
थे अपितु महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त
लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी
राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के
इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व
खोजपूर्ण इतिहास लिखकर ब्रिटिश शासन को हिला कर रख दिया था।वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और
नाटककार थे। उन्होंने परिवर्तित हिंदुओं के हिंदू धर्म को वापस लौटाने हेतु सतत
प्रयास किये एवं आंदोलन चलाये। सावरकर ने भारत के एक सार के रूप में एक सामूहिक
"हिंदू" पहचान बनाने के लिए हिंदुत्व का शब्द गढ़ा । उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद और
सकारात्मकवाद, मानवतावाद और सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक नास्तिक और एक कट्टर
तर्कसंगत व्यक्ति थे जो सभी धर्मों में रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे
प्रारंभिक जीवन
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर
सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब वे केवल नौ वर्ष
के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899
में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े
भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में
गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल
नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।
बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं।
आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया।
इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन
नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी। सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर
की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902
में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी०ए० किया।
लन्दन प्रवास
1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी
कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक
पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुये, जो बाद में कलकत्ताके युगान्तर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा
प्रभावित थे। 10मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई।
इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम
सिद्ध किया। जून, 1908 में इनकी
पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस :
1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी।
इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे। बाद में यह पुस्तक
किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के
सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया। मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की,
परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।
इण्डिया हाउस की
गतिविधियां
वीर सावरकर ने लंदन के Gray’s Inn law college में दाखिला लेने के बाद India
House में रहना शुरू कर दिया था। इंडिया हाउस उस समय राजनितिक
गतिविधियों का केंद्र था जिसे पंडित श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे। सावरकर ने Free
India Society का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों
को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रांति पर आधारित किताबे पढी और “The History of the War of
Indian Independence” नामक किताब लिखी। उन्होंने 1857 की क्रांति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजो को जड़ से
उखाड़ा जा सकता है।
लंदन और मार्सिले में
गिरफ्तारी
लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था। 13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एस०एस० मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी
गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें
दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को
ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -
"मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन
अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर
मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।
आर्बिट्रेशन कोर्ट केस, परीक्षण और सज़ा
सावरकर ने अपने मित्रो को बम बनाना और गुरिल्ला पद्धति से युद्ध
करने की कला सिखाई। 1909 में सावरकर के मित्र और अनुयायी मदन लाल धिंगरा
ने एक सार्वजनिक बैठक में अंग्रेज अफसर कर्जन की हत्या कर दी। धींगरा के इस काम से
भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने धींगरा को राजनीतिक
और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक
गुप्त और प्रतिबंधित परीक्षण कर धींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भडक गये। सावरकर ने धींगरा को एक
देशभक्त बताकर क्रांतिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों
को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत
भेजने के जुर्म में फंसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार
कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया।
जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस
के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से
निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को
आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। सावरकर की
गिरफ्तारी से फ्रेंच सरकार ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया।
सेलुलर जेल में
नासिक
जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला
पानी की सजा पर सेलुलर
जेल भेजा
गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था।
कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां
कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके
अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी
क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से
पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।। सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की
जेल में रहे।
दया याचिका
1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने
पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई।
रत्नागिरी में
प्रतिबंधित स्वतंत्रता
1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच 7 जनवरी 1925 को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, 1925 में उनकी
भॆंट राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई। 17 मार्च 1928 को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, 1931 में
इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी
हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। 25 फ़रवरी 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता
उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की
1937 में वे अखिल
भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये,
जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। 15 अप्रैल 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना
गया। 13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल
करने की प्रेरणा दी थी।22 जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे। 16 मार्च 1945 को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। 19 अप्रैल 1945 को
उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष 8 मई को
उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ। अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार
ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा
रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं
सन्त) ने उनका समर्थन किया।
हिंदू राष्ट्रवाद
वीर सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी रहे। विनायक
दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिंदू शब्द से बेहद लगाव था। वीर सावरकर ने जीवन भर
हिंदू हिन्दी और हिंदुस्तान के लिए ही काम किया। वीर सावरकर को 6 बार अखिल भारत हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके
बाद 1938 में हिंदू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया
गया।
हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा
श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने
उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
15 अगस्त 1947 को उन्होंने सावरकर
सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये।
इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे
स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या
सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों
के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से
निर्धारित होती हैं। 5 फ़रवरी 1948 को महात्मा गांधी की
हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर
लिया गया। 19 अक्टूबर 1949 को इनके अनुज
नारायणराव का देहान्त हो गया। 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधान
मंत्री लियाक़त
अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या
पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा
गया। मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव
भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग
किया गया। 10 नवम्बर 1957 को नई
दिल्ली में आयोजित हुए, 1857 के प्रथम भारतीय
स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे
मुख्य वक्ता रहे। 8 अक्टूबर 1959 को उन्हें पुणे
विश्वविद्यालय ने डी०.लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 8 नवम्बर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, 1965 से उन्हें तेज ज्वर
ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। 1 फ़रवरी 1966 को उन्होंने
मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। 26 फ़रवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार
प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को
प्रस्थान किया।
वीर सावरकर ने 10000 से अधिक पन्ने मराठी भाषा में तथा 1500 से अधिक पन्ने अंग्रेजी में लिखा है।
'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस – 1857 सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है,
जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को
हिला डाला था। अधिकांश इतिहासकारों ने 1857 के प्रथम
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या
अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक
योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में
ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था।
सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे।
उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते
हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के
बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने
भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर
प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक
कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से
निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक
उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। 1924 से 1937 का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।
1. स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का
स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता
2. रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ
खानपान निषेध
3. बेटीबंदी: खास जातियों के संग
विवाह संबंध निषेध
4. व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय
निषेध
5. सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा,
व्यवसाय निषेध
6. वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का
एक वर्ग को निषेध
7. शुद्धिबंदी: किसी को वापस
हिन्दूकरण पर निषेध
अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए
उन्होंने बंदियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही
साथ वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु
काफी प्रयास किया। सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर
विरोधी थे। बंबई का पतितपावन मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो
हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है। पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक
प्रयासों का परिणाम है।