Monday, May 27, 2019

सुलगते सवाल उठाती सूरत की आग


सूरत अग्निकांड त्रासदी आग से बचाव के नाकाफी उपायों और देश के बेतरतीब शहरीकरण की खोलती पोल
मानव इतिहास के पन्ने पलटें तो हमें पता चलता है कि आग ने इंसान को वह ताकत दी, जिससे उसने अपनी जिंदगी आसान करने का ढर्रा सीखा, लेकिन सदियों पहले की उसकी यह कामयाबी इक्कीसवीं सदी में आकर तब एक बड़ी नाकामी में तब्दील होती लगती है, जब सूरत की एक इमारत में मामूली शॉर्ट सर्किट से भड़की आग में करीब 20 होनहार नौजवान (लड़के-लड़कियां) आंखों के सामने जलकर खाक हो जाते हैं। इमारत की चौथी मंजिल से अंधाधुंध कूदकर हाथ-पांव तुड़ाकर जो किसी तरह बचे, उनके वीडियो भी दिल दहलाने वाले हैं। हमारे वक्त की यह दर्दनाक त्रासदी आग फैलने के आधुनिक कारणों, बचाव के नाकाफी तरीकों और बेतरतीबी से हो रहे शहरीकरण की पोल खोलती है और योजना के स्तर पर कायम निकम्मेपन के चेहरे को भी उजागर करती है।
जरा सोचें कि जो कुछ सूरत में हुआ, क्या वह इससे पहले भी देश में बारंबार दोहराया नहीं जा चुका है। खासतौर से शहरों में हुए एक के बाद एक अनेक हादसे हुए हैं जहां आग की लपटें जानलेवा शै में बदल गईं और तमाम लापरवाहियों एवं कायदे-कानून की अनदेखी ने मामूली सी आग को हमारे विनाश के हथियार में तब्दील कर डाला। बताया जा रहा है कि तक्षशिला कोचिंग सूरत की जिस इमारत में चल रही थी, उस बिल्डिंग की छत प्लास्टिक शेड से ढकी हुई थी। वहां टायर रखे हुए थे और छत में कलाकारी के लिए बेहद ज्वलनशील थर्मोकोल का इस्तेमाल किया गया था।
स्वाभाविक है कि जहां आग को न्योता देने के इतने अधिक इंतजाम हों, वहां बचाव के उपायों की लंबी फेहरिस्त कायदे से होनी चाहिए, लेकिन तय है कि सूरत के शहरी प्राधिकरण को इसकी कोई फिक्र नहीं थी। इसकी वजह से वहां ऐसे अनगिनत कोचिंग सेंटर उन इमारतों में चल रहे हैं जहां न तो निर्माण के कानूनों का पालन हुआ है और न यह देखा गया कि अगर किसी वजह से आग लगी तो लोगों को कैसे बचाया और बाहर निकाला जाएगा? थोड़ा पीछे लौटें तो इसी साल कुछ और ऐसे अग्निकांड हमारे जेहन में कौंधते हैं, जो चंद लापरवाहियों की ही देन हैं। जैसे इसी साल 12 फरवरी को देश की राजधानी दिल्ली के करोलबाग के एक होटल में लगी आग ने आनन-फानन में 17 जिंदगियां लील ली थीं।
नए हों या पुराने, दुनिया भर के तमाम शहरों में आग से महफूज बनाने वाले उपायों पर तभी कुछ नजर जाती है, जब वहां की इमारतों में कोई बड़ा हादसा होता है। अन्यथा इस मामले में लापरवाही सर्वत्र और सतत एक जैसी कायम है। असल में कथित विकास के नाम पर शहरों में जो कंक्रीट के जंगल खड़े किए गए हैं, वे आग से सुरक्षा के मामले में बेहद कमजोर साबित हो रहे हैं। मर्ज आग की ताकत बढ़ जाना नहीं, बल्कि यह है कि आग से सुरक्षा के जितने उपाय जरूरी हैं, तेज शहरीकरण की आंधी और अनियोजित विकास ने उन उपायों को हाशिये पर धकेल दिया है।
विडंबना यह है कि शहरीकरण के सारे कायदों को धता बताते हुए जो कथित विकास हमारे देश या बाकी दुनिया में हो रहा है और जिसके तहत रिहाइश ही नहीं, होटलों, विभिन्न संस्थाओं और अस्पतालों के लिए ऊंची इमारतों के निर्माण का जो काम देश में हो रहा है, उसमें जरूरी सावधानियों की तरफ न तो शहरी प्रबंधन की नजर है और न ही उन संस्थाओं-विभागों को इसकी कोई फिक्र है जिन पर शहरों में आग से बचाव के कायदे बनाने और उन पर अमल सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी होती है। यहां तक कि नए बसा रहे शहरों तक में यह नहीं देखा जा रहा है कि आज से सौ-पचास साल बाद जब आबादी और ट्रैफिक का दबाव बढ़ेगा, तब वहां आग से बचने के क्या तौर-तरीके होंगे?
अनियोजित शहरीकरण के अलावा एक मुद्दा यह है कि इमारतों के निर्माण में बिल्डिंग को मौसम के हिसाब से ठंडा-गर्म रखने, वहां रहने वाले लोगों की जरूरतों के मुताबिक आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक साजोसामान जुटाने में खूब काम हुआ है, लेकिन यही चीजें जरा सी लापरवाही पर भीषण अग्निकांड रच सकती हैं-इस ओर अधिक ध्यान ही नहीं दिया गया है। स्थिति यह है कि आज की ज्यादातर आधुनिक इमारतें ऐसे सामानों से बन रही हैैं जिसमें आग को आमंत्रित करने वाली तमाम चीजों का इस्तेमाल होता है।
आंतरिक साज-सच्जा के नाम पर फर्श और दीवारों पर लगाई जाने वाली सूखी लकड़ी, आग के प्रति बेहद संवेदनशील रसायनों से युक्त पेंट, रेफ्रिजरेटर, इनवर्टर, माइक्रोवेव, गैस का चूल्हा, इलेक्ट्रिक चिमनी, एयर कंडीशनर, टीवी और सबसे प्रमुख पूरी इमारत की दीवारों के भीतर बिजली के तारों का जाल बिछा है जो किसी शॉर्ट सर्किट की सूरत में छोटी सी आग को बड़े हादसे में बदल डालती है। इन सभी चीजों को आग से बचाने के इंतजाम भी प्राय: या तो किसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस जैसे एमसीवी आदि के हवाले होते हैं या फिर फायर अलार्म के सहारे जो अक्सर ऐसी सूरत में काम करते नहीं मिलते हैं, क्योंकि उनकी समय-समय पर जांच नहीं होती।
दूसरा बड़ा संकट तंग रास्तों के किनारे पर ऊंची इमारतें बनाने के ट्रेंड ने पैदा किया है। ऐसी अधिकांश इमारतों में शायद ही इसकी गंभीरता से जांच होती हो कि यदि कभी अचानक आग लग गई तो क्या बचाव के साधन आसपास मौजूद हैं? कोई आपात स्थिति पैदा हो तो वहां निकासी का रास्ता क्या है? क्या वहां मौजूद लोगों को समय पर अलर्ट करने का सिस्टम काम कर रहा है? इस स्तर पर एक और बड़ी लापरवाही हो रही है। असल में हर बड़े शहर में बिना यह जाने ऊंची इमारतों के निर्माण की इजाजत दे दी गई है कि क्या उन शहरों के दमकल विभाग के पास जरूरत पड़ने पर उन इमारतों की छत तक पहुंचने वाली सीढ़ियां मौजूद हैं या नहीं?
मिसाल के तौर पर देश की राजधानी दिल्ली में दमकल विभाग के पास अधिकतम 40 मीटर ऊंची सीढ़ियां हैं, पर यहां इमारतों की ऊंचाई 100 मीटर तक पहुंच चुकी है। यही हाल इसके एनसीआर इलाके का है। नोएडा में भी अधिकतम 42 मीटर ऊंची सीढ़ियां उपलब्ध हैैं, पर यहां जो करीब दो हजार गगनचुंबी इमारतें हैं या जिनका निर्माण चल रहा है, उनमें से कुछ की ऊंचाई 300 मीटर तक है (निर्माणाधीन टावर-सुपरनोवा 300 मीटर ऊंचा होगा)। लगभग यही हाल देश के दूसरे बड़े शहरों में है।
कहने को तो देश के किसी भी हिस्से में कोई संस्था, फैक्ट्री इत्यादि अग्निशमन विभाग की तरफ से मिले अनापत्ति प्रमाण पत्र यानी एनओसी के बिना नहीं चल सकती, लेकिन सभी जानते हैं कि इस प्रावधान की अनदेखी होती है। जाहिर है जब लापरवाही और अनदेखी का ऐसा आलम हो तो न आग को रोका जा सकता है और न ही इस कारण होने वाले नुकसान को थामा जा सकता है।

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