इस बार बाबा
साहब भीमराव आंबेडकर की 127 वीं जयंती कुछ खास रही। शायद ही कोई सक्रिय
सामाजिक, राजनीतिक संगठन होगा जिसने 14 अप्रैल को कोई आयोजन न किया हो। राजनीतिक दलों में तो एक होड़ सी दिखी।
आंबेडकर को याद करने के बहाने आरक्षण बचाने जैसे छद्म मुद्दे पर एक-दूसरे से आगे
निकल जाने की स्पर्धा भी स्पष्ट दिखाई पड़ी। इस पूरे मामले की एक खास पृष्ठभूमि भी
है। इसकी बुनियाद 20 मार्च को उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए
एक फैसले के साथ पड़ी। इस फैसले में अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून
से संबंधित एक मामले में अन्य चीजों के अलावा न्यायालय ने दो बातों का निर्देश
दिया। पहला, इस कानून के तहत दर्ज मामले में अग्रिम जमानत की
अनुमति प्रदान कर दी और दूसरे, ऐसे मामले में बिना पूरी
छानबीन किए तुरंत गिरफ्तारी नहीं करने की बात कही। इसका दूसरा कारण संविधान के तहत
अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए की गई आरक्षण व्यवस्था के संबंध में कुछ संगठनों एवं
व्यक्तियों द्वारा विवादास्पद बयान बना।
केंद्र
सरकार ने पुन: उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया
स्वाभाविक तौर
पर न दोनों मामलों के परिणामस्वरूप अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग में संदेह एवं
असुरक्षा की एक भावना उत्पन्न हुई। इस भावना का प्रकटीकरण बंद एवं प्रदर्शनों के
माध्यम से हुआ। गहराई से देखें तो उच्चतम न्यायालय के उक्त फैसले को अनावश्यक एवं
विवाद बढ़ाने वाला ही माना जाएगा। इस पर पुनर्विचार हेतु केंद्र सरकार एवं एकाध
राज्य सरकारों ने पुन: उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। अनुसूचित जाति एवं
जनजाति के ऐतिहासिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ेपन के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक
न्याय के सिद्धांत के तहत ही अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 बनाया गया था। सामाजिक रूप से उनकी संवेदनशील स्थिति को देखते हुए ही उनकी
आवाज को ताकत देने और न्याय प्राप्ति हेतु आगे बढ़ने की हिम्मत प्रदान करने के लिए
यह विशेष कानून बनाया गया था।
अनुसूचित
जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम का दुरुपयोग
समानता के आधार पर बने सामान्य कानूनों की कसौटी पर से नहीं परखा
जा सकता। इसमें किसी भी तरह का बदलाव करना या अग्रिम जमानत की गुंजाश करना इसके
महत्व एवं प्रभाव को कमतर करने जैसा होगा। जहां तक इस अधिनियम के तहत दर्ज मामले
में तुरंत गिरफ्तारी नहीं करने का प्रश्न है, इस निर्देश के पूर्व भी इस देश में सैकड़ों ऐसे
मामले दर्ज हुए हैं जिनमें पुलिस द्वारा छानबीन के पश्चात ही कार्रवाई की गई थी।
दूसरे शब्दों में यह अधिनियम किसी भी रूप में यह नहीं कहता कि मामला दर्ज होते ही
बिना किसी छानबीन के तुरंत ही किसी को गिरफ्तार कर लिया जाए। आखिर ऐसे में
न्यायालय के उस निर्देश का औचित्य क्या है? एक तरह से उच्चतम
न्यायालय का दखल अनावश्यक ही माना जाएगा, क्योंकि जांच में
सच्चाई के आधार पर ही कार्रवाई करने की बात किसी भी अधिनियम में अंतर्निहित होती
है। जहां तक इस कानून के दुरुपयोग का प्रश्न है, वह तो जांच
एजेंसी के अलावा न्यायपालिका द्वारा भी हो सकता है। इसका प्रमाण उच्चतम न्यायालय
से ही संबंधित एक मामले से स्पष्ट है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस कर्णन के आदेश को निष्प्रभावी किया
जस्टिस कर्णन ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ चार वरिष्ठतम
न्यायाधीशों के विरुद्ध इसी अधिनियम के उल्लंघन का आरोप प्रमाणित कर सजा सुना दी
थी। सर्वोच्च न्यायालय ने ही जस्टिस कर्णन के इस आदेश को निष्प्रभावी किया।
दुरुपयोग की स्थिति में से प्रभावहीन करने की व्यवस्था पहले से ही भारतीय न्याय
प्रणाली में मौजूद है। स्पष्ट है कि भ्रम एवं विवाद उत्पन्न करने वाले सुप्रीम
कोर्ट के निर्देश का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
सुप्रीम
कोर्ट के फैसले का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश
विडंबना यह रही कि कुछ राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले
का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश जानबूझकर की। सी कोशिश के तहत अनुसूचित जातियों
एवं जनजातियों को प्रदत्त आरक्षण के संबंध में भी भ्रम एवं संशय की स्थिति बनाई
गई। नेताओं के कुछ गैरजिम्मेदार बयानों से अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लोगों
को यह अहसास हुआ कि आरक्षण के प्रावधान पर भी प्रहार हो रहा है एवं इसे समाप्त
करने की साजिश चल रही है। ऐसे बयानों को अगर बेसिर-पैर की बातों से सामाजिक
उत्तेजना पैदा करने की कोशिश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आरक्षण
के औचित्य पर प्रश्न नहीं उठा
अभी तक किसी नेता या राजनीतिक दल ने आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न
नहीं उठाया है। आरक्षण की अवधारणा एवं इसका क्रियान्वयन भारतीय समाज की सोच में
रच-बस गया है। किसी राजनीतिक दल या संगठन की बात तो छोड़ ही दें, आज शायद ही कोई सजग एवं चिंतनशील व्यक्ति होगा जो आरक्षण के प्रावधान को
समाप्त करने की सोच भी सकता है। ऐतिहासिक एवं सामाजिक कारणों से सदियों से दलित
एवं शोषित वर्गों के लिए संविधान निर्माताओं ने डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में आरक्षण
के प्रावधानों को मूर्त रूप दिया। आंबेडकर के साथ सभी सदस्य आरक्षण को लेकर एकमत
थे और किसी ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। इस मामले में सबसे व्यावहारिक सोच तो
आंबेडकर की ही थी जब उन्होंने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या किसी भी सूरत
में अनारक्षित स्थानों से अधिक नहीं होनी चाहिए एवं आरक्षण के सिद्धांतों का
क्रियान्वयन इस प्रकार होना चाहिए कि किसी भी संस्था या व्यवस्था की गुणवत्ता
प्रभावित न हो।
राजनीतिक
दल आरक्षण समाप्ति के छद्म मुद्दे पर कुर्बानी देने को तैयार
सभी दल आज अच्छी तरह समझते हैं कि आरक्षण की व्यवस्था न उनकी सोच
से लागू हुई है और न ही उसे समाप्त करने में कोई सक्षम है, फिर भी हर कोई आरक्षण समाप्ति के छद्म मुद्दे पर किसी भी तरह की कुर्बानी
देने की बात कर रहा है। किसी भी दशा में आरक्षण समाप्त नहीं होने देने की घोषणा
करना भी समझ से परे है। हर राजनीतिक दल आरक्षण एवं अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार
निवारण अधिनियम के पक्ष में खड़े होने में एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। यह
उन वर्गो की आंखों में अपनी कृत्रिम बहादुरी प्रदर्शित करना है। आखिर बिना किसी
खतरे के ही अपनी आहुति देने का दंभ भरने का क्या मतलब? क्या
न सब चीजों के माध्यम से हम उन वर्गों के लोगों के दिलों में अकारण असुरक्षा की
भावना पैदा नहीं कर रहे हैं? क्या राजनीतिक दल अपनी
संवेदनहीनता से सामाजिक रूप से इस विस्फोटक मुद्दे से खिलवाड़ नहीं कर रहे हैं?
इस तरह समाज को विभाजित एवं खंडित कर विस्फोटक स्थिति बनाने की
कोशिश का क्या औचित्य है?
सभी
दलों को मिलकर सच्चाई एवं यथार्थ की राजनीति करनी चाहिए
भारतीय समाज में शांति और सद्भाव के साथ दलित एवं पिछड़े वर्गों को
न्याय दिलाना ही सभी दलों की घोषित नीति है और इसी दिशा में सभी दलों को काम भी करना
चाहिए। किसी क्षणिक राजनीतिक लाभ के लिए समाज को भ्रांति एवं भ्रम के दलदल में
धकेलना किसी भी सूरत में वांछनीय नहीं है। सभी दलों को मिलकर सच्चाई एवं यथार्थ की
राजनीति करनी चाहिए ताकि समावेशी विकास का मार्ग प्रशस्त हो। समाज बचेगा तभी
राजनीति होगी और अगर समाज बिखरेगा तो राजनीति और राजनीति करने वाले भी बच नहीं
पाएंगे।
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