Thursday, January 18, 2018

14 से 18 साल के छात्रों की शैक्षिक क्षमता पर सवाल

14 से 18 साल के छात्र-छात्राओं की शैक्षिक क्षमता पर केंद्रित वार्षिक रपट निराश करने के साथ ही चिंतित करने वाली भी है। इस रपट के अनुसार 36 प्रतिशत छात्रों को देश की राजधानी का नाम नहीं पता और 40 प्रतिशत घड़ी देखना तक नहीं जानते। हालत कितनी खराब है, इसका पता इससे भी चलता है कि 76 प्रतिशत विद्यार्थी सामान्य हिसाब-किताब करने में असमर्थ है तो करीब 25 प्रतिशत मातृभाषा में भी अपनी किताब ढंग से पढ़ने में नाकाम है। 14 से 18 वर्ष के किशोर आमतौर पर 10 वीं-11वीं या फिर 12वीं कक्षा के विद्यार्थी होते है। यदि इस आयुवर्ग के किशोरों की सीखने की क्षमता इतनी दयनीय है तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि शिक्षा के जरिये देश को आगे ले जाने का काम किया जा रहा है? इससे खराब बात और कोई नहीं हो सकती कि इस पर गर्व तो किया जाए कि भारत युवाओं का देश है, लेकिन इसकी सुध न ली जाए कि किशोरवय छात्रों की एक बड़ी संख्या गुणवत्ता प्रधान शिक्षा से वंचित है  । आखिर ऐसी शिक्षा किस काम की जो 10वीं या 12वीं कक्षा के छात्रों को ऐसे ज्ञान से लैस न कर सके जो कक्षा चार-पांच के छात्रों से अपेक्षित होता है? किशोरवय के छात्र-छात्राओं की शैक्षिक क्षमता पर केंद्रित रपट के निष्कर्ष देखकर हमारे नीति-नियंताओं की न केवल आंखें खुलनी चाहिए, बल्कि उन्हें उन कारणों के निवारण में भी जुटना चाहिए जिनके चलते शिक्षा की स्थिति इतनी दयनीय है। हालांकि ऐसे तथ्य पहली बार सामने नहीं आए कि एक बड़ी संख्या में स्कूली छात्र शिक्षित होने के नाम पर साक्षर भर हो रहे है, लेकिन इसके बावजूद ऐसे प्रयास नहीं हुए जिससे शिक्षा का स्तर ऊंचा उठ सके।
स्कूली शिक्षा की दुर्दशा के मामले में केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती, क्योंकि उसकी ओर से भी ढिलाई का परिचय दिया जा रहा है। इस ढिलाई का एक प्रमाण तो साढे़ तीन साल बाद भी नई शिक्षा नीति का कोई अता-पता न चलना है। यह भी किसी से छिपा नहीं कि शिक्षा के मद में उतना धन खर्च नहीं किया जा रहा है जितना अपेक्षित है। ऐसा लगता है कि जहां केंद्र सरकार नीति बनाने और धनराशि का आवंटन करने तक सीमित है वहीं राज्य सरकारों की चिंता का एक मात्र विषय केंद्र से ज्यादा से ज्यादा धनराशि हासिल करना है। राज्यों के रवैये से मुश्किल से ही यह आभास होता है कि स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारना उनकी प्राथमिकता में है। शायद इसी कारण न तो स्कूलों को बुनियादी संसाधनों से लैस करने में तत्परता का परिचय दिया जाता है और न ही पढ़ाई-लिखाई के स्तर को सुधारने में। कई राज्य तो ऐसे है जो इसकी परवाह करते ही नहीं दिखते कि योग्य शिक्षकों की भर्ती हो और वे स्कूलों में जाकर पढ़ाएं भी। तथ्य यह भी है कि सरकारी स्कूलों में पठन-पाठन का उपयुक्त माहौल नजर न आने के पीछे संसाधनों की कमी से ज्यादा शैक्षिक वातावरण ठीक करने की इच्छाशक्ति का अभाव है। यह अभाव भावी पीढ़ी की अनदेखी ही कर रहा है। यह अनदेखी बहुत महंगी पड़ेगी।


ensoul

money maker

shikshakdiary

bhajapuriya bhajapur ke