महाराजा रणजीत सिंह
13 नवम्बर 1801- 27 जून 1839
महाराजा रणजीत सिंह शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं।
महाराजा रणजीत एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को
एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं फटकने दिया।
रणजीत सिंह का जन्म सन् 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) संधावालिया महाराजा महा सिंह के घर हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफ़ग़ानों
का राज चलता था जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता
महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का
मुख्यालय गुजरांवाला में था। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह
की एक आंख की रोशनी चली गयी थी। वे महज़ 12
वर्ष के थे जब उनके पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ उन्हीं के
कंधों पर आ गया। 12 अप्रैल 1801
को रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक जी के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सन 1802 में अमृतसर की ओर
रूख किया।
महाराजा रणजीत ने अफ़ग़ानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें
पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौक़ा था जब
पश्तूनों पर किसी ग़ैर-मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया। पहली आधुनिक भारतीय सेना -
"सिख ख़ालसा सेना" गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी
सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताक़तवर सेना ने लंबे अर्से तक
ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौक़ा भी आया जब पंजाब ही एकमात्र
ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा नहीं था। ब्रिटिश
इतिहासकार जे टी व्हीलर के मुताबिक़, अगर वह एक पीढ़ी पुराने
होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते। महाराजा रणजीत
खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला
को बहुत प्रोत्साहन दिया।
उन्होंने पंजाब में क़ानून एवं व्यवस्था क़ायम की और कभी भी किसी
को मृत्युदण्ड नहीं दिया। उनका सूबा
धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जज़िया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया।
उन्होंने अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब गुरूद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी
से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा।
बेशक़ीमती हीरा कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के ख़ज़ाने की रौनक था। सन् 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां क़ायम है। उनकी मौत के
साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 के दिन
पंजाब को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया और कोहिनूर महारानी
विक्टोरिया के हुज़ूर में पेश कर दिया गया।
णजीत सिंह का जन्म सन् 1780 ई. में जट सिख (जाट) परिवार में हुआ था। महा सिंह के मरने पर रणजीत
सिंह बारह वर्ष की अवस्था में मिस्ल सुकरचकिया के नेता हुए। सन् 1798 ई. में जमान
शाह के पंजाब से लौट जाने पर उन्होंने लाहौर पर अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे सतलज से सिंधु तक, जितनी
मिस्लें राज कर रही थीं, सबको उन्होंने अपने वश में कर लिया। सतलज और यमुना के बीच फुलकियों मिस्ल के शासक
राज कर रहे थे। सन् 1806 ई. में रणजीत सिंह ने इनको भी अपने वश में करना चाहा,
परन्तु सफल न हुए।रणजीत सिंह में सैनिक नेतृत्व के बहुत सारे गुण थे। वे
दूरदर्शी थे। वे साँवले रंग का नाटे कद के मनुष्य थे। उनकी एक आँख शीतला के प्रकोप से चली गई
थी। परन्तु यह होते हुए भी वह तेजस्वी थे। इसलिए जब तक वह जीवित थे, सभी मिस्लें दबी थीं।
उस समय अंग्रेजों का राज्य यमुना तक पहुँच गया था और
फुलकियाँ मिस्ल के राजा अंग्रेजी राज्य के प्रभुत्व को मानने लगे थे। अंग्रेजों ने
रणजीतसिंह को इस कार्य से मना किया। रणजीतसिंह ने अंग्रेजों से लड़ना उचित न समझा
और संधि कर ली कि सतलज के आगे हम
अपना राज्य न बढ़ाएँगे। रणजीतसिंह ने फ्रांसीसी सैनिकों को बुलाकर, उसकी सैनिक कमान में अपनी सेना को विलायती ढंग पर तैयार किया।
अब उनने पंजाब के दक्षिणी, पश्चिमी और
उत्तरी भागों पर आक्रमण करना प्रारंभ किया और दस वर्ष में मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपने राज्य को बढ़ा लिया।
रणजीतसिंह ने पेशावर को अपने अधिकार में
अवश्य कर लिया था, किंतु उस सूबे पर पूर्ण अधिकार करने के
लिए उसे कई वर्षों तक कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। वह पूरे पंजाब का स्वामी बन चुका;
और उसे अंग्रेजों के हस्तक्षेप का सामना नहीं करना पड़ा। परंतु जिस
समय अंग्रेजों ने नैपोलियन की सेनाओं के
विरुद्ध सिक्खों से सहायता माँगी थी, उन्हें प्राप्त न हुई।
रणजीतसिंह ने सन् 1808 ई. में
अपनी महत्वाकांक्षिणी सास सदाकोर के नाम पेशावर का राज्य परिवर्तित कर दिया था।
क्योंकि यह अंग्रेजों की एजेंट महिला थी। रणजीतसिंह ने अपनी कुचक्रप्रिय सास से
झगड़ा करके उसे कैद कर लिया था और ह्वदनी के गढ़ को अपने अधिकार में कर लिया था।
ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी ने बंदी विधवा सदाकौर को छुड़ाया और अधिकार को वापस
दिलाया। ब्रिटिश सेना के साथ रणजीतसिंह किसी प्रकार का झगड़ा नहीं चाहते थे।
अंग्रेजों की तरफ से संधि की
शर्तों को भंग करने का आरोप लगाया जा सकता था। इसलिए चुपचाप मौन रहकर उसने
तैयारियाँ प्रारम्भ की थीं फिर भी 1809 ई. में लार्ड मिंटो से संधि कर ली।
यद्यपि इस संधि से महाराज को सिक्खों में बहुत अपमानित होना पड़ा था। उपर्युक्त
संधि के कारण पंजाब के अफगानी राज्य तथा अफगानिस्तान को कुछ हद तक आंतकित कर सके
थे। 1802, 1806 तथा 1810 ई. में मुलतान पर चढ़ाई की और अधिकार
कर लिया एवं शाह शूजा से संधि करके अपने
यहाँ रखा और उससे एक गिलास पानी के लिए 'कोहेनूर हीरा'
प्राप्त किया। 1811 ई. में काबुल के शाह महमूद के आक्रमण की बात
सुनकर और यह जानकार कि महमूद का इरादा काश्मीर के शासक पर आक्रमण का है, उसने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया ताकि महमूद को वापस जाना संभव हो जाए और
उसकी मित्रता भी इसे मिल जाए। काश्मीर के बाद इसने पेशावर पर 1822 में चढ़ाई कर दी,
यारमुहम्मद खाँ अफगानियों का नेतृत्व करता हुआ बहुत बहादुरी से लड़ा
लेकिन अंत में पराजित हुआ। इस युद्ध में सिक्खों का भी बड़ा नुकसान हुआ। 1938 में
पेशावर पर रणजीतसिंह के अधिकार से भयभीत होकर दोस्तमुहम्मद खाँ काबुलनरेश बहुत
भयभीत हुआ और रूस तथा ईरान से दोस्ती कर ली। इस बात को ध्यान में रखकर अंग्रेजों
ने स्वयं रणजीतसिंह तथा शाहशुजा के साथ एक त्रिगुटसंधि कराई।
महाराजा रणजीतसिंह अस्वस्थ हो रहे
थे। 1838 में लकवा का आक्रमण हुआ, यद्यपि उपचार किया गया और अंग्रेज डाक्टरों ने भी इलाज किया, लेकिन 27 जून 1839 ई. को उनका प्राणांत हो गया। वेह उदारहृदय भी थे। काशी विश्वनाथ मंदिर पर
जो स्वर्णपत्र आज दिखाई देता है वह उसकी काशीयात्रा तथा उदारता का परिचायक है।
उसने दान के लिए ४७ लाख रुपए की सम्पत्ति अलग कर रखी थी। जगन्नाथमंदिर पर भी वह
कोहेनूर हीरा चढ़ाना चाहते थे लेकिन उस हीरे को तो विदेश में जाकर छिन्न-भिन्न
होना था।
महाराजा के बाद सिक्खों के आपसी
वैमनस्य, राष्ट्रद्रोह तथा
अंग्रेजी कूटनीतिज्ञता का जवाब न देने की असमर्थता से सिक्ख राज्य मिट गया।
बात सन् 1812 की है। पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह
का एकछत्र राज्य था। उस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद
के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान से भयभीत होकर
अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे एक अन्य कारण भी था।
अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित शाहशुजा को शेरगढ़ के किले में कैद कर रखा था। उसे कैदखाने से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम
वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि मेहरबानी कर
आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस
अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। शाहशुजा के कैद हो जाने
के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफगानिस्तान की शासिका थी। इसी कोहिनूर को हड़पने के लालच में भारत पर आक्रमण करने वाले अहमद शाह अब्दाली के
पौत्र जमान शाह को स्वयं उसी के भाई महमूद शाह ने कैदखाने में भयंकर यातनाएं देकर
उसकी आंखें निकलवा ली थीं।
जमान शाह अहमद शाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह का बेटा था, जिसका
भाई था महमूद शाह। अस्तु, महाराजा रणजीति सिंह स्वयं चाहते
थे कि वे कश्मीर को अतामोहम्मद से मुक्त करवाएं। अत: सुयोग आने पर महाराजा रणजीत
सिंह ने कश्मीर को आजाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के किले को घेर
कर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया।
राजकुमार खड्गसिंह ने उन्हें मुबारक हवेली में ठहराया। पर वफा बेगम अपने वादे के
अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। यहां
तक कि कई महीने बीत गए। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा
तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज्यादा जोर दिया गया तो उन्होंने
एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों
के परीक्षण की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक
हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहां खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 की पहली जून थी जब महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और फिर कोहिनूर
के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह
महाराजा को इसका पता चल गया। अत: उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के
लिए "गुरुग्रंथ साहब" पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे "पगड़ी-बदल
भाई" बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया। पर्दे की ओट
में बैठी वफा बेगम महाराजा की चतुराई समझ गईं। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के
पास पहुंच गया था और वे संतुष्ट थे कि उन्होंने कश्मीर को आजाद करा लिया था। उनकी
इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान
जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे
प्रसिद्ध थे। काशी के विश्वनाथ मंदिर में भी उन्होंने अकूत सोना अर्पित किया था। परन्तु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की कुनीति के कारण पूरी न हो
सकी।
महाराजा
रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेजों ने सन् 1845 में सिखों पर
आक्रमण कर दिया। फिरोजपुर क्षेत्र में सिख सेना
वीरतापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी। किन्तु सिख सेना के ही सेनापति
लालसिंह ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण विजय के
निकट पहुंचकर भी सिख सेना हार गई। अंग्रेजों ने सिखों से कोहिनूर हीरा ले लिया। साथ
ही कश्मीर और हजारा भी सिखों से छीन लिए क्योंकि अंग्रेजों ने डेढ़ करोड़ रुपए का
जुर्माना सिखों पर किया था, अर्थाभाव-ग्रस्त सिख किसी तरह
केवल 50 लाख रुपए ही दे पाए थे। लार्ड हार्डिंग ने
इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा लंदन पहुंचा दिया,
जो "ईस्ट इंडिया कम्पनी" द्वारा रानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया। उन दिनों
महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह वहीं थे। कुछ लोगों का कथन है कि दिलीप
सिंह से ही अंग्रेजों ने लंदन में कोहिनूर हड़पा था। कोहिनूर को 1 माह 8 दिन तक जौहरियों ने तराशा और फिर उसे
रानी विक्टोरिया ने अपने ताज में जड़वा लिया।