कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह
20 मई 1918 –
18 जुलाई 1948
पीरू सिंह (श्री पीरू सिंह शेखावत) भारतीय सैनिक
थे। उनका 1947 के भारत-पाक युद्ध में निधन हुआ। उन्हें 1952 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया जो
शत्रु के सामने वीरता प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च भारतीय सम्मान
है।
पीरू सिंह का जन्म 20 मई 1918 को राजस्थान के बेरी गांव में हुआ था।
वह लाल सिंह के पुत्र थे। उनके परिवार में सात बच्चे तीन भाई और चार बहनें थीं
जिनमें से श्री सिंह सबसे छोटे थे। युवावस्था में श्री सिंह हमेशा स्कूल से नफरत
करते थे क्योंकि वह प्रतिबंधित पर्यावरण पसंद नहीं करते थे। एक बार सहपाठी से
झगड़ा करने पर शिक्षक द्वारा डांटे जाने पर वह स्कूल से भाग गए और कभी स्कूल नहीं
आए। उसके बाद श्री सिंह ने अपने माता-पिता के साथ अपने खेत में मदद करना शुरू कर
दिया। शिकर, एक स्थानीय भारतीय खेल उनका
पसंदीदा खेल था। यद्यपि श्री सिंह अपने बचपन से सेना में शामिल होना चाहते थे,
लेकिन वह अठारह वर्ष की आयु पूर्ण नहीं होने के कारण दो बार
निकाल दिए गए तथा बाद में सेना में शामिल हुए।
पीरू सिंह शेखावत को 20 मई 1936 को झेलम में 1 पंजाब रेजिमेंट की 10वीं बटालियन में नामांकित किया गया था। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद 1
मई 1937 को श्री सिंह को उसी रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में तैनात किया गया। स्कूली शिक्षा से पहले से ही शत्रुता
होने के बावजूद श्री सिंह ने शिक्षा को गंभीरता से लिया और सेना में शिक्षा प्रमाण
पत्र को प्राप्त किया। कुछ अन्य परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के बाद 7 अगस्त 1940 को उन्हें लांस नायक के पद पर पदोन्नत
किया गया था। 1 पंजाब की 5वीं बटालियन
के साथ अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम फ्रंटियर पर कार्रवाई की।
मार्च 1941 में उन्हें नायक में पदोन्नत किया गया था और सितंबर में झेलम में पंजाब रेजिमेंटल सेंटर के
एक प्रशिक्षक के रूप में तैनात किया गया तथा फरवरी 1942 में
उन्हें हवलदार में पदोन्नत किया गया था। श्री सिंह एक उत्कृष्ट खिलाड़ी थे, उन्होंने अंतर रेजिमेंटल और राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिप में हॉकी,
बास्केटबॉल और क्रॉस कंट्री दौड़ में अपनी रेजिमेंट का प्रतिनिधित्व
किया। मई 1945 में उन्हें कंपनी हवलदार मेजर से पदोन्नत किया गया।
उन्होंने अक्टूबर 1945 तक एक प्रशिक्षक के रूप में कार्य
किया। द्वितीय विश्व
युद्ध के अंत के बाद उन्हें ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑक्यूपेशन फ़ोर्स के हिस्से के रूप में जापान भेजा गया जहां उन्होंने सितंबर 1947 तक सेवा की। इसके बाद उन्हें राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन में
स्थानांतरित कर दिया गया।
18 जुलाई 1948
को 6 राजपूताना राइफल्स के सी एच एम
पीरू सिंह को जम्मू कश्मीर के तिथवाल में शत्रुओं द्वारा अधिकृत एक पहाड़ी पर
आक्रमण कर उस पर कब्ज़ा करने का काम सौंपा गया। हमले के दौरान उन पर एम एम जी से
भारी गोलीबारी की गई और हथगोले फेंके गए। उनकी टुकड़ी के आधे से अधिक सैनिक मारे
गए या घायल हो गए। सी एच एम पीरू सिंह ने अपने बचे हुए जवानों को लड़ाई जारी रखने
के लिए प्रेरित किया और घायल होने के बावजूद दुश्मन के एम एम जी युक्त दो बंकरों
को बर्बाद कर दिया। अचानक उन्हें पता चला कि उनकी टुकड़ी में इकलौते वे ही जीवित
बचे हैं। जब दुश्मनों ने उन पर एक और हथगोला फेंका, वे
लहुलुहान चेहरे के साथ रेंगते हुए आगे बढ़े और अंतिम सांस लेने से पहले उन्होंने
दुश्मन के ठिकाने को नष्ट कर दिया। उत्कृष्ट वीरता तथा अदम्य शौर्य का प्रदर्शन
करने और सर्वोच्च बलिदान देने के फल स्वरूप कंपनी हवलदार मेजर पीरू सिंह को
मरणोपरांत परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।