शचींद्रनाथ सान्याल
3 जून 1893 – 7 फरवरी 1942
शचींद्रनाथ सान्याल
क्वींस कालेज (बनारस) में अपने अध्ययनकाल में
उन्होंने काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल
का गठन 1908 में किया। 1913 में फ्रेंच
बस्ती चंदननगर में सुविख्यात
क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से उनकी मुलाकात
हुई। कुछ ही दिनों में काशी केंद्र का चंदननगर दल में विलय हो गया ओर रासबिहारी
काशी आकर रहने लगे।
क्रमशः काशी
उत्तर भारत में क्रांति का केंद्र बन गई। 1914 में प्रथम महायुद्ध छिड़ने पर
सिक्खों के दल ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिए अमरीका और कनाडा से स्वदेश
प्रत्यावर्तन करने लगे। रासबिहारी को वे पंजाब ले जाना चाहते थे।
उन्होंने शचींद्र को सिक्खों से संपर्क करने, स्थिति से
परिचित होने और प्रारंभिक संगठन करने के लिए लुधियाना भेजा। कई बार लाहौर, लुधियाना आदि होकर शचींद्र
काशी लौटे और रासबिहारी लाहौर गए। लाहौर के सिक्ख रेजिमेंटों ने 21 फ़रवरी 1915 को विद्रोह शुरू करने का निश्चय कर
लिया। काशी के एक सिक्ख रेजिमेंट ने भी विद्रोह शुरू होने पर साथ देने का वादा
किया।
योजना विफल हुई, बहुतों को फाँसी पर चढ़ना पड़ा और चारों ओर घर
पकड़ शुरू हो गई। रासबिहारी काशी लौटे। नई योजना बनने लगी। तत्कालीन होम मेंबर सर
रेजिनाल्ड क्रेडक की हत्या के आयोजन के लिए शचींद्र को दिल्ली भेजा गया। यह कार्य भी
असफल रहा। रासबिहारी को जापान भेजना तय हुआ। 12 मई 1915
को गिरजा बाबू और शचीन्द्र ने उन्हें कलकत्ते के बंदरगाह पर छोड़ा।
दो तीन महीने बाद काशी लौटने पर शचींद्र गिरफ्तार कर लिए गए। लाहौर षड्यंत्र मामले की शाखा के रूप में बनारस पूरक षड्यंत्र केस चला और शचींद्र को
आजन्म कालेपानी की सजा मिली।
युद्धोपरांत
शाही घोषणा के परिणामस्वरूप फरवरी, 1920 में वारींद्र, उपेंद्र आदि के साथ शचींद्र रिहा हुए।
1921 में नागपुर कांग्रेस में राजबंदियों के प्रति सहानुभूति
का एक संदेश भेजा गया। विषय-निर्वाचन-समिति के सदस्य के रूप में शचींद्र ने इस
प्रस्ताव का अनुमोदन करते हुए एक भाषण किया।
क्रांतिकारियों
ने गांधी जी को सत्याग्रह आंदोलन के समय एक वर्ष तक अपना कार्य स्थगित रखने का वचन दिया था। चौरी चौरा कांड के बाद
सत्याग्रह वापस लिए जाने पर, उन्होंने पुन: क्रांतिकारी
संगठन का कार्य शुरू कर दिया। 1923 के प्रारंभ में रावलपिंडी से लेकर दानापुर तक लगभग 25 केंद्रों की उन्होंने स्थापना कर ली थी। इस दौरान लाहौर में तिलक स्कूल ऑव
पॉलिटिक्स के कुछ छात्रों से उनका संपर्क हुआ। इन छात्रों में सरदार भगत सिंह भी थे। भगतसिंह को
उन्होंने दल में शामिल कर लिया और उन्हें कानपुर भेजा। इसी समय उन्होंने कलकत्ते
में यतींद्र दास को चुन लिया। यह वही यतींद्र हैं, जिन्होंने
लाहौर षड्यंत्र केस में भूख हड़ताल से अपने जीवन का बलिदान किया। 1923 में ही कौंसिल प्रवेश के प्रश्न पर दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन
हुआ। इस अवसर पर शचींद्र ने देशवासियों के नाम एक अपील निकाली, जिसपर कांग्रेस महासमिति के अनेक सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। कांग्रेस से
अपना ध्येय बदलकर पूर्ण स्वतंत्रता लिए जाने का प्रस्ताव था। इसमें एशियाई राष्ट्रों के संघ के निर्माण का
सुझाव भी दिया गया। अमेरिकन पत्र 'न्यू रिपब्लिक' ने अपीलल ज्यों की त्यों छाप दी, जिसकी एक प्रति
रासबिहारी ने जापान से शचींद्र को भेजी। इस अधिवेशन के अवसर पर ही कुतुबद्दीन अहमद उनके पास मानवेंद्र राय का एक संदेश ले आए, जिसमें उन्हें कम्युनिस्ट
अंतरराष्ट्रीय संघ की तीसरी बैठक में शामिल होने को आमंत्रित किया गया था।
इसके कुछ ही
दिनों बाद उन्होंने अपने दल का नामकरण किया 'हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन'। उन्होंने इसका जो
संविधान तैयार किया, उसका लक्ष्य था सुसंगठित और सशस्त्र
क्रांति द्वारा भारतीय लोकतंत्र संघ की स्थापना। कार्यक्रम में खुले तौर पर काम और
गुप्त संगठन दोनों शामिल थे। क्रांतिकारी साहित्य के सृजन पर विशेष बल दिया गया
था। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के बारे में भी इसमें प्रचुर इंगित था। संविधान
के शब्दों में 'इस प्रजातंत्र संघ में उन सब व्यवस्थाओं का
अंत कर दिया जाएगा जिनसे किसी एक मनुष्य द्वारा दूसरे का शोषण हो सकने का अवसर मिल
सकता है।' विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों के साथ घनिष्ठ
संबंध रखना भी कार्यक्रम का एक अंग था। बेलगाँव कांग्रेस के अधिवेशन में गांधी जी
ने क्रांतिकारियों की जो आलोचना की थी, उसके प्रत्युत्तर में
शचींद्र ने महात्मा जी को एक पत्र लिखा। गांधी जी ने यंग इंडिया के 12 फ़रवरी 1925 के अंक में इस पत्र को ज्यों का त्यों
प्रकाशित कर दिया और साथ ही अपना उत्तर भी।
लगभग इसी समय सूर्यकांत सेन के नेतृत्व में चटगाँव दल का, शचींद्र के प्रयत्न से, हिंदुस्तान
रिपब्लिकन एसोसिएशन से संबंध हो गया। शचींद्र बंगाल
आर्डिनेंस के अधीन गिरफ्तार कर लिए गए। उनकी गिरफ्तारी के पहले 'दि रिह्वलूशनरी' नाम का पर्चा पंजाब से लेकर वर्मा तक बँटा। इस पर्चे के
लेखक और प्रकाशक के रूप में बाँकुड़ा में शचींद्र पर मुकदमा
चला और राजद्रोह के अपराध में उन्हें दो वर्ष के कारावास का दंड मिला। कैद की हालत
में ही वे काकोरी षडयत्रं केस में शामिल किए गए और संगठन के प्रमुख नेता के रूप
में उन्हें पुन: अप्रैल, 1927 में आजन्म कारावास की सजा दी
गई।
1937 में संयुक्त प्रदेश में कांग्रेस
मंत्रिमंडल की स्थापना के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ वे रिहा किए गए। रिहा
होने पर कुछ दिनों वे कांग्रेस के प्रतिनिधि थे, परंतु बाद
को वे फारवर्ड ब्लाक में शामिल हुए। इसी समय काशी में उन्होंने 'अग्रगामी' नाम से एक दैनिक पत्र निकाला। वह स्वयं
इसस पत्र के संपादक थे। द्वितीय महायुद्ध छिड़ने के कोई साल भर बाद 1940 में उन्हें पुन: नजरबंद कर राजस्थान के देवली शिविर में भेज दिया गया।
वहाँ यक्ष्मा रोग से आक्रांत होने पर
इलाज के लिए उन्हें रिहा कर दिया गया। परंतु बीमारी बढ़ गई और 1942 में उनकी मृत्यु हो गई।
क्रांतिकारी
आंदोलन को बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करना उनका विशेष कृतित्व था। उनका दृढ़ मत था कि
विशिष्ट दार्शनिक सिद्धांत के बिना कोई आंदोलन सफल नहीं हो सकता। 'विचारविनिमय' नामक अपनी
पुस्तक में उन्होंने अपना दार्शनिक दृष्टिकोण किसी अंश तक प्रस्तुत किया है। 'साहित्य, समाज और धर्म' में भी
उनके अपने विशेष दार्शनिक दृष्टिकोण का ओर प्रबल धर्मानुराण का भी परिचय मिलता है।