बहुत
लंबा सफर तय कर लिया हमने। बहुत आगे निकल आए हैं हम। इतना कि दुनिया बड़ी उम्मीदों
से हमारी ओर देख रही है। यह वही शेष दुनिया है,
जो हमारी आजादी के वक्त तमाम आशंकाएं जता रही थी। भरोसा नहीं कर पा
रही थी कि इतना विशाल देश अपनी आजादी को संभाल कैसे पाएगा? अपने
लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर पाएगा? लेकिन हमने सब कुछ बहुत
कुशलता और मजबूती से किया। अपेक्षा से भी तेज गति से आगे बढ़े। विकास के नए सोपान
गढे़। दरअसल, जिस वक्त शेष दुनिया हमारे लोकतंत्र के भविष्य
को लेकर आशंकाएं जता रही थी, उसके पास ऐसा सोचने के आधार थे।
शायद यह कि भारत ने अपनी आजादी के दौरान अस्थिरता का लंबा दौर झेला था। तमाम दंश
थे इसके खाते में। लेकिन वक्त के साथ सब कुछ पीछे छूट गया। समय बदला, और हम उसके साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ते रहे। कई बार तो अपेक्षा से भी
ज्यादा तेज गति से। इन 70 सालों में हमने बहुत कुछ पाया है।
बहुत कुछ दिखाया है। सबसे बड़ी बात कि हमने अपने होने को साबित किया है। अपनी
बहुरंगी-बहुभाषी, सतरंगी-साझी संस्कृति की धार को न सिर्फ
कायम रखा है, उसे और गहरे अर्थ दिए हैं। विकास के नए-नए
सोपान चढ़े हैं। यही वजह है कि दुनिया हमारी ओर विस्मय भरी उम्मीद से देख रही है।
यह हमारे विकास व विस्तार की मजबूती का प्रतिफल है। यह इन उम्मीदों पर भी खरा
उतरने का वक्त है।
इस बार का गणतंत्र दिवस कुछ और भी संदेश लेकर आया है।
आसियान देशों के आतिथ्य ने इसे नए अर्थ दे दिए हैं। ऐसा पहली बार हुआ है। यह बता
रहा है कि आसियान अब हमारी विदेश नीति की प्राथमिकता में है। जैसा दृष्टिकोण पिछले
दिनों दिखा है, यह पहल कहीं न
कहीं हमें और मजबूती देने वाली साबित होगी। ताजा वैश्विक संदर्भों में चीनी
वर्चस्व को थामने के लिए भी यह जरूरी और व्यावहारिक पहल है। यह हमारी सांस्कृतिक
अस्मिता के संतुलन के साथ-साथ तकनीकी और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से कदम
बढ़ाती संतुलित विदेश नीति का भी परिचायक है। नहीं भूलना चाहिए कि आसियान देश
सामरिक दृष्टि से भी भारत के लिए अनुकूल हैं। यानी यह दोस्ती दूर तक जाने वाली है।
इस गणतंत्र दिवस का यह बड़ा संदेश है।
यह दिवस कुछ बातों पर फिर से सोचने का अवसर भी दे रहा
है। संविधान ने हमें जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं दी थीं, यह उन पर फिर से नजर डालने, सोचने का वक्त भी है कि क्या हम वाकई अपने संविधान की शर्तों पर खरे उतर
पाए हैं? आचरण में कुछ ऐसा तो नहीं कर बैठे कि संविधान की
मूल आत्मा का हनन कर जाएं और हमें ही पता न चले। वर्तमान परिदृश्य शिद्दत से यह
सोचने को मजबूर कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट व्यवस्थाओं के बावजूद यदि
आग्रह, दुराग्रह की हद तक बढ़ते दिखाई दें, तो हमें सचेत हो जाना चाहिए। भावनाओं के इस उफान के संदेश अच्छे नहीं हैं।
समृद्ध सांस्कृतिक विरासत व साझी संस्कृति के वाहक इस देश में जहां विरासत
मुहावरों का रूप ले चुकी हो, एक फिल्म से उठा ऐसा विवाद कुछ
सोचने पर मजबूर कर गया है। आज जब यह 26 जनवरी ऐतिहासिक महत्व
के नए संदर्भ लेकर हमारे सामने है, इसे और ऐतिहासिक बनाने
में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। भारत वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने वाला देश है।
यह वैश्विक व राष्ट्रीय, दोनों संदर्भों में समान रूप से
महत्वपूर्ण है। इस संदेश की भावना को पूरी सांस्कृतिक ऊंचाइयों के साथ आगे ले जाना
होगा। स्वाभाविक है, यह हम सबके सहिष्णु-समावेशी-सौहार्दपूर्ण
आचार-व्यवहार से ही संभव हो सकेगा।