विजय
सिंह पथिक
27 फ़रवरी, 1882 - 28 मई, 1954
विजय
सिंह पथिक भारत की स्वतंत्रता के लिए
संघर्ष करने वाले वीर क्रांतिकारियों में से एक थे। इनके ऊपर अपनी माँ और परिवार की क्रान्तिकारी व
देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा था। विजय सिंह पथिक अपनी
युवावस्था में ही रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे
अमर क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गए थे। वैसे विजय सिंह पथिक जी का मूल नाम 'भूपसिंह' था, किंतु 'लाहौर षड़यंत्र' के बाद उन्होंने अपना नाम बदल कर
विजय सिंह पथिक रख लिया और फिर अपने जीवन के अंत समय तक वे इसी नाम से जाने जाते
रहे। महात्मा गाँधी के 'सत्याग्रह आन्दोलन' से बहुत पहले
ही पथिक जी ने 'बिजोलिया किसान आन्दोलन' के नाम
से किसानों में स्वतंत्रता के प्रति अलख जगाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया था।
जन्म तथा परिवार
स्वतंत्रता सेनानी विजय
सिंह पथिक का जन्म 27 फ़रवरी,
1882 में उत्तर प्रदेश के
बुलंदशहर ज़िले के गुलावठी कलाँ नामक ग्राम में हुआ था। ये गुर्जर परिवार से सम्बंधित
थे। इनके पिता का नाम हमीर सिंह तथा माता का नाम कमल कुमारी था।
इनके दादा इन्द्र सिंह बुलन्दशहर में मालागढ़ रियासत के दीवान थे, जिन्होंने 1857 के 'प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' में अंग्रेज़ों से लड़ते हुए
वीरगति प्राप्त की थी। पथिक जी के पिता हमीर सिंह गुर्जर को भी क्रान्ति में भाग
लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने
गिरफ्तार किया था। विजय सिंह पथिक पर उनकी माँ कमल कुमारी और परिवार की
क्रान्तिकारी व देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा था।
विवाह
लगभग 48 वर्ष की आयु में विजय सिंह
पथिक ने एक विधवा अध्यापिका जानकी देवी से विवाह किया। उन्होंने अभी
गृहस्थ जीवन शुरू किया ही था कि एक माह बाद ही अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के
कारण वे गिरफ़्तार कर लिए गये। उनकी पत्नी जानकी देवी ने ट्यूशन आदि करके किसी
प्रकार से घर का खर्च चलाया। पथिक जी को इस बात का मरते दम तक अफ़सोस रहा था कि वे
'राजस्थान सेवा आश्रम' को अधिक दिनों
तक चला नहीं सके और अपने मिशन को अधूरा छोड़ कर चले गये।
नाम परिवर्तन
अपनी युवावस्था में ही
पथिक जी का सम्पर्क रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे प्रसिद्ध देशभक्त क्रान्तिकारियों से हो गया था। यद्यपि इनका मूल नाम
भूपसिंह था, लेकिन 1915 के
'लाहौर षड्यन्त्र' के बाद उन्होंने
अपना नाम बदल कर विजयसिंह पथिक रख लिया। इसके बाद वे अपनी मृत्यु पर्यन्त तक इसी
नाम से जाने गए। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'सत्याग्रह
आन्दोलन' से बहुत पहले ही उन्होंने 'बिजोलिया किसान आन्दोलन' के
नाम से किसानों में स्वतंत्रता के प्रति अलख जगाने का काम किया था।
क्रान्तिकारियों की योजना
वर्ष 1912 में
ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता
(वर्तमान कोलकाता) से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया।
इस अवसर पर दिल्ली के तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने
दिल्ली में प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। उस समय अन्य
क्रान्तिकारियों ने जुलूस पर बम फेंक कर लॉर्ड हार्डिंग को मारने की कोशिश की;
किन्तु वह बच गया। 1915 में
रासबिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों
ने निर्णय लिया कि 21 फ़रवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर '1857 की क्रान्ति' की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाएगा। 'भारतीय इतिहास' में इसे 'गदर आन्दोलन' कहा गया है। योजना यह बनाई गई थी कि एक
तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाया जाए और दूसरी तरफ देशी
राजाओं की सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को
संचालित करने का दायित्व विजय सिंह पथिक को सौंपा गया।
गिरफ़्तारी
उस समय पथिक जी 'फ़िरोजपुर षड़यंत्र' केस के सिलसिले में फ़रार चल
रहे थे और 'खरवा' (राजस्थान) में गोपाल
सिंह के पास रह रहे थे। दोनों ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस
हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र कीं। दुर्भाग्य से अंग्रेज़ी सरकार पर
क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारियों
को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक जी और गोपाल सिंह ने गोला बारूद भूमिगत कर
दिया और सैनिकों को बिखेर दिया गया। कुछ ही दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज़ कमिश्नर ने पाँच सौ
सैनिकों के साथ पथिक जी और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और
टाडगढ़ के क़िले में नजरबंद कर दिया। इसी समय 'लाहौर
षड़यंत्र केस' में पथिक जी का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए।
किसी तरह यह खबर पथिक जी को मिल गई और वे टाडगढ़ के क़िले से फ़रार हो गए।
गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक जी ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौड़गढ़ में
रहने लगे।
'राजस्थान सेवा संघ' की स्थापना
1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक जी के प्रयत्न से बाल गंगाधर तिलक ने
बिजोलिया सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। पथिक जी ने बम्बई जाकर किसानों की करुण
कथा गाँधीजी को सुनाई। गाँधीजी
ने वचन दिया कि यदि मेवाड़ सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजोलिया
सत्याग्रह का संचालन करेंगे। महात्मा गाँधी ने किसानों की शिकायत दूर करने के लिए
एक पत्र महाराणा को लिखा, पर कोई हल नहीं निकला। पथिक जी ने
बम्बई यात्रा के समय गाँधीजी की पहल पर यह निश्चय किया गया कि वर्धा से 'राजस्थान केसरी' नामक समाचार पत्र निकाला
जाये। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परन्तु पथिक जी और जमनालाल बजाज की
विचारधाराओं ने मेल नहीं खाया और वे वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए। 1920 में
पथिक जी के प्रयत्नों से अजमेर में 'राजस्थान सेवा संघ' की
स्थापना हुई।
बिजोलिया किसान आन्दोलन
1920 में
विजय सिंह पथिक अपने साथियों के साथ 'नागपुर अधिवेशन'
में शामिल हुए और बिजोलिया के किसानों की दुर्दशा और देशी राजाओं की
निरंकुशता को दर्शाती हुई एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। गाँधीजी पथिक जी के 'बिजोलिया आन्दोलन' से प्रभावित तो हुए, परन्तु उनका रुख देशी राजाओं और सामन्तों के प्रति नरम ही बना रहा। कांग्रेस और गाँधीजी यह समझने में असफल रहे कि सामन्तवाद साम्राज्यवाद का ही एक स्तम्भ
है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के
साथ-साथ सामन्तवाद विरोधी संघर्ष आवश्यक है। गाँधीजी ने 'अहमदाबाद
अधिवेशन' में बिजोलिया के किसानों को 'हिजरत'
(क्षेत्र छोड़ देने) की सलाह दी। पथिक जी ने इसे अपनाने से इनकार कर
दिया। सन 1921 के आते-आते पथिक जी ने 'राजस्थान सेवा संघ' के माध्यम से बेगू, पारसोली, भिन्डर,
बासी और उदयपुर में शक्तिशाली आन्दोलन किए।
किसानों की विजय
'बिजोलिया
आन्दोलन' अन्य क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत
बन गया था। ऐसा लगने लगा मानो राजस्थान में किसान
आन्दोलन की लहर चल पड़ी है। इससे ब्रिटिश सरकार डर
गई। इस आन्दोलन में उसे 'बोल्शेविक आन्दोलन' की प्रतिछाया दिखाई देने लगी थी। दूसरी ओर कांग्रेस के असहयोग
आन्दोलन शुरू करने से भी सरकार को स्थिति और
बिगड़ने की भी आशंका होने लगी। अंतत: सरकार ने राजस्थान के ए. जी. जी. हालैण्ड को 'बिजोलिया किसान पंचायत
बोर्ड' और 'राजस्थान सेवा संघ' से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया। शीघ्र ही दोनो पक्षों में समझौता हो
गया। किसानों की अनेक माँगें मान ली गईं। चौरासी में से पैंतीस लागतें माफ कर दी
गईं जुल्मी कारिन्दे बर्खास्त कर दिए गए। किसानों की अभूतपूर्व विजय हुई।
निधन
विजय सिंह पथिक का निधन 28 मई, 1954 को मथुरा, उत्तर
प्रदेश में हुआ। आज़ादी के बाद से पथिक जी जैसे स्वतन्त्रता सेनानी के लिए आवास और भोजन की
समस्या बराबर बनी रही। वे मथुरा केवल इसलिये आकर बस गये थे, क्योंकि
यहाँ खाने-पीने की चीजें अजमेर की अपेक्षा सस्ती थीं। मथुरा के जनरलगंज इलाके में एक मकान अथक परिश्रम से
खड़ा किया था, तब कहीं रहने की समस्या सुलझ सकी। इस मकान की
चिनाई अर्थाभाव के कारण पथिक जी ने अपने हाथों से की थी। उनकी पत्नी जानकी देवी ने अपने क्रांतिकारी पति की स्मृति-रक्षा के लिये जनरलगंज में विजय सिंह पथिक पुस्तकालय की स्थापना की थी, लेकिन धीरे-धीरे यह पुस्तकालय
बन्द हो गया। अंधेरे में उजियारा करने वाले पथिक जी मथुरा में जितने वक्त रहे,
गुमनामी में रहे।
उनकी देशभक्ति निःस्वार्थ और सच्ची थी। अंत समय में उनके पास
सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था,
जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माधुर ने पथिक जी का वर्णन "राजस्थान की जागृति के अग्रदूत
महान् क्रान्तिकारी" के रूप में किया है। विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में
संचालित 'बिजोलिया
किसान आन्दोलन' को इतिहासकार देश का पहला 'किसान सत्याग्रह' मानते हैं।