Thursday, May 14, 2020

देवेन्द्रनाथ ठाकुर


देवेन्द्रनाथ ठाकुर 
15 मई 1817 – 19 जनवरी 1905
देवेन्द्रनाथ ठाकुर दार्शनिकब्रह्मसमाजी तथा धर्मसुधारक थे। 1848 में ब्रह्म समाज के संस्थापकों में से एक थे।
देवेंद्रनाथ ठाकुर का जन्म सन् 1818 में बंगाल में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा हिंदू कॉलेज में हुई जहाँ संशयवाद का पाठ पढ़ाया जाता था और उसकी प्रशंसा होती थी। इनका लालन पालन अपार धन तथा वैभव में हुआ।
22 वर्ष की अवस्था में इन्होंने 'तत्वबोधिनी सभा' स्थापित की। इसका मुख्य ध्येय था लोगों को 'ब्राह्मधर्म' का पाठ पढ़ाना। इस सभा ने मौलिक शास्त्रों को जानने तथा वर्तमान समय तक उनमें किए गए परिवर्तनों के संबध में ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। इसने नैतिकता की एक परंपरा बनाई। धीरे धीरे देवेंद्रनाथ की यह सभा लोकप्रिय होने लगी और कुछ प्रभावशाली हिंदू इसके सदस्य बन गए। हर सप्ताह इसकी एक बैठक होती थी जिसमें भगवद्भजन और प्रवचन होते थे। सन् 1842 में देवेंद्रनाथ ने ब्रह्मसमाज में पदार्पण किया। राजा राममोहन राय के इंग्लैंड चले जाने पर ब्रह्मसमाज शिथिल पड़ने लगा। समाज में प्रति सप्ताह नाना प्रकार के लोग एकत्रित होते थे और भजन प्रवचन सुनकर चले जाते थे। इससे अधिक कुछ नहीं। देवेंद्रनाथ के ब्रह्मसमाज में आ जाने से उसमें नया जीवन आ गया। सन् 1847 में उन्होंने तत्वबोधिनी सभा को एक प्रतिज्ञा से परिचित कराया। इस प्रतिज्ञा में यह कहा जाता था कि ब्रह्मसमाज का प्रत्येक सदस्य बुरे कार्यों से बचा रहेगा, सच्चे हृदय से भगवान की पूजा करेगा और पारिवारिक प्रसन्नता के अवसर पर ब्रह्मसमाज को कुछ भेंट देगा। इस प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करनेवाले देवेंद्रनाथ प्रथम थे।
ब्रह्मसमाज की बैठकों में अब भी वेदों तथा उपनिषदों का पाठ होता, बँगला में कोई उपदेश होता तथा सब लोग मिलकर कोई बँगला मंत्र अथवा भजन गाते। इसी वर्ष देवेंद्रनाथ ने एक मासिक पत्रिका प्रारंभ की जिसे 'तत्वबोधिनी पत्रिका' की संज्ञा दी गई। समाज की बैठकों के लिए एक बड़ा सा स्थान उपलब्ध हो गया और उसकी सदस्यसंख्या बढ़ने लगी। शीघ्र ही जगह जगह ब्रह्मसमा की शाखाएँ खुल गईं। कुछ नवयुवकों ने ब्रह्मसमाज में प्रवेश किया। धीरे धीरे सदस्यों का विभिन्न विषयों पर आपस में मतभेद होने लगा। कुछ लोगों का यह कहना था कि वेदों को सही मार्गप्रदर्शक मानने के संबंध में कभी उनका निरीक्षण नहीं किया गया। देवेंद्रनाथ ने यह बात मान ली और सन् 1845 में चार वेदों का अध्ययन कने के लिए तथा प्रत्येक वेद की एक प्रतिलिपि बनाने के लिए बनारस भेजा।
दो वर्ष अध्ययन करने के उपरांत जब ये ब्राह्मण वेदों की प्रतिलिपि लेकर कलकत्ता पहुँचे, इन प्रतिलिपियों का निरीक्षण किया गया। तत्पश्चात् इस संबध में एक लंबा वादविवाद हुआ जिसके अंत में यह निश्चय किया गया कि न वेद और न ही उपनिषद् सही अर्थों में सच्चे पथप्रदर्शक माने जा सकते हैं। इन ग्रंथों के केवल कुछ विचार तथा नीतिवाक्य ही स्वीकार्य हैं।
सन् 1850 में देवेंद्रनाथ ने 'ब्रह्मधर्म' शीर्षक लेख संस्कृत और बँगला में छापा। इस लेख में 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' का प्रतिपादन किया गया। यह सारी महिमा उसी ब्रह्म की है। वह अजर, अमर, निर्गुण आदि अनेक गुणों से संपन्न तथा सर्वज्ञ है। केवल उसकी पूजा करने से सांसारिक तथा आध्यात्मिक कुशलता संभव है। उसके प्रति प्रेमसहित आदरभाव होना तथा उसके इच्छानुसार कार्य करना ही ब्रह्म की पूजा है। 'ब्रह्मधर्म' में जिस धार्मिक प्रणाली का प्रतिपादन किया गया वह मुख्यत: उपनिषदों पर आधारित थी। उसमें कुछ नए विचार तथा हिंदूधर्म के कुछ लोकप्रिय सिद्धांत भी सम्मिलित कर लिए गए थे।
ब्रह्मसमाज के एक नए सदस्य केशवचंद्र सेन थे। केशव के कुछ अनुयायियों ने ब्रह्मवाद के प्रचार के लिए अपना सारा समय ब्रह्मसमाज को अर्पित कर दिया। ये लोग सारे बंगाल में घूम घूमकर अपना संदेश देने लगे। केशव स्वयं भी इसी संबंध में मद्रास तथा बंबई गए। इन प्रयत्नों का फल यह हुआ कि 1865 के अंत तक बंगाल, पंजाब, मद्रास तथा पश्चिमोत्तर प्रांत में ब्रह्मसमाज की 54 शाखाएँ खुल गईं। देवेंद्रनाथ, केशव तथा अन्य नवयुवकों के इस कार्य से बड़े प्रसन्न हुए। पर शीघ्र ही केशवचंद्र सेन के विधवाविवाह तथा अंतर्जातीय विवाह आदि उन्नतिशील विचारों से महर्षि देवेंद्रनाथ असंतुष्ट हो गए। इस प्रकार सन् 1865 में ही ब्रह्मसमाज में फूट पड़ गई और उसमें दो विचारधाराएँ हो गईं।
देवेंद्रनाथ ने केशवचंद्र सेन तथा उनके साथियों को पदच्युत कर दिया। इसपर केशवचंद्र ने 'भारतीय ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। देवेंद्रनाथ तथा उनके साथियों का समाज अब 'आदिसमाज' कहलाने लगा। 'आदिसमाज' किसी भी प्रकार के प्रचारकार्य तथा समाजसुधार से दूर ही रहा और एकेश्वरवाद में विश्वास रखता रहा। आदिसमाज की प्रतिष्ठा देवेंद्रनाथ ठाकुर के वैयक्तिक प्रभाव के कारण कुछ समय तक चलती रही। इसके बाद महर्षि देवेंद्रनाथ ने समाज के कार्य को एक प्रबंधक समिति के हाथ में सौंप दिया। कुछ ही समय में आदि ब्रह्मसमाज को लोग भूल गए।

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