सरदार हरि सिंह नलवा (ब्रिटिश संग्रहालय)
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Hari Singh Nalwa
28 अप्रॅल,
1791- 30 अप्रैल, 1837
महाराजा
रणजीत सिंह के निर्देश के अनुसार हरि सिंह नलवा ने सिख साम्राज्य की भौगोलिक सीमाओं को पंजाब से लेकर काबुल बादशाहत के बीचोंबीच तक विस्तार किया था। महाराजा रणजीत
सिंह के सिख शासन के दौरान 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों के खिलाफ लड़े। अफगानों के खिलाफ जटिल
लड़ाई जीतकर नलवा ने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की व्यवस्था की थी।
सर
हेनरी ग्रिफिन ने हरि सिंह को "खालसाजी का चैंपियन" कहा है। ब्रिटिश
शासकों ने हरि सिंह नलवा की तुलना नेपोलियन से भी की है।
हरि
सिंह नलवा का जन्म 1791 में 28 अप्रैल को एक सिख परिवार, गुजरांवाला पंजाब में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह और माता का नाम धर्मा कौर था। बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से
"हरिया" कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया। 1805 ई. के वसंतोत्सव
पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत
सिंह ने आयोजित किया था, हरि सिंह नलवा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया।
इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया।
शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेना नायकों में से एक बन गये। एक
बार शिकार के समय महाराजा रणजीत सिंह पर अचानक एक शेर के आक्रमण कर दिया, तब हरि सिंह ने उनकी रक्षा
की थी। इस पर महाराजा रणजीत सिंह के मुख से अचानक निकला "अरे तुम तो राजा नल जैसे वीर हो।" तभी से नल से हुए
"नलवा" के नाम से वे प्रसिद्ध हो गये। बाद में इन्हें "सरदार"
की उपाधि प्रदान की गई।
महाराजा
रणजीत सिंह के शासनकाल में 1807 ई. से लेकर 1837 ई. तक (तीन दशक तक) हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों से लोहा लेते रहे।
अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर उन्होने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की स्थापना की थी। काबुल
बादशाहत के तीन पश्तून उत्तराधिकारी सरदार हरि सिंह नलवा के प्रतिद्वंदी थे। पहला
था अहमद शाह अब्दाली का पोता, शाह शूजा ; दूसरा फ़तह खान, दोस्त मोहम्मद खान और उनके बेटे, तीसरा, सुल्तान मोहम्मद खान, जो अफगानिस्तान के राजा जहीर शाह (1933 -73) का पूर्वज था।
अहमदशाह
अब्दाली के पश्चात् तैमूर लंग के काल में अफ़ग़ानिस्तान विस्तृत तथा अखंडित था।
इसमें कश्मीर, लाहौर, पेशावर, कंधार तथा मुल्तान भी थे। हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था। हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को
जीतकर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन ला दिया। उन्होंने 1813 ई. में अटक, 1818 ई. में मुल्तान,
1819 ई. में कश्मीर तथा 1823 ई.
में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया।
सरदार
हरि सिंह नलवा ने अपने अभियानों द्वारा सिन्धु नदी के पार अफगान साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार करके सिख साम्राज्य की
उत्तर पश्चिम सीमांत को विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को खैबर दर्रे के उस ओर खदेड़ कर इतिहास की धारा
ही बदल दी। ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग
है। ख़ैबर दर्रे से होकर ही 500 ईसा पूर्व में
यूनानियों के भारत पर आक्रमण करने और लूटपात करने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसी
दर्रे से होकर यूनानी, हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और
मुगल लगभग एक हजार वर्ष तक भारत पर आक्रमण करते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह
नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानजनक प्रक्रिया का पूर्ण
रूप से अन्त कर दिया था।
हरि
सिंह ने अफगानों को पछाड़ कर निम्नलिखित विजयों में भाग लिया: सियालकोट (1802), कसूर (1807), मुल्तान (1818), कश्मीर (1819), पखली और दमतौर (1821-2), पेशावर (1834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1836) । हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में
उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो ‘हरि सिन्गी’ के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शित है।
मुल्तान
विजय में हरिसिंह नलवा की प्रमुख भूमिका रही।
महाराजा रणजीत सिंह के आह्वान पर वे आत्मबलिदानी दस्ते में सबसे आगे रहे। इस
संघर्ष में उनके कई साथी घायल हुए, परंतु मुल्तान का
दुर्ग महाराजा रणजीत सिंह के हाथों में आ गया। महाराजा रणजीत सिंह को पेशावर जीतने के लिए कई प्रयत्न करने पड़े।
पेशावर पर अफ़ग़ानिस्तान के शासक के भाई सुल्तान मोहम्मद का राज्य था। यहां युद्ध
में हरि सिंह नलवा ने सेना का नेतृत्व किया। हरि सिंह नलवा से यहां का शासक इतना
भयभीत हुआ कि वह पेशावर छोड़कर भाग गया। अगले दस वर्षों तक हरि सिंह के नेतृत्व
में पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य बना रहा, पर
यदा-कदा टकराव भी होते रहे। इस पर पूर्णत: विजय 6 मई,
1834 को स्थापित हुई।
पेशावर का
प्रशासक यार मोहम्मद महाराजा रणजीत सिंह को नजराना देना कबूल कर चुका था। मोहम्मद
अजीम, जो कि काबुल का शासक था, ने पेशावर के यार मोहम्मद पर फिकरा
कसा कि वह एक काफिर के आगे
झुक गया है। अजीम काबुल से बाहर आ गया। उसने जेहाद का नारा बुलन्द किया, जिसकी प्रतिध्वनि खैबर में सुनाई दी। लगभग पैंतालिस हजार खट्टक और
यूसुफजाई कबीले के लोग सैय्यद अकबर शाह के नेतृत्व में एकत्र किये गये। यार
मोहम्मद ने पेशावर छोड़ दिया और कहीं छुप गये। महाराजा रणजीत सिंह ने सेना को
उत्तर की ओर पेशावर कूच करने का आदेश दिया। राजकुमार शेर सिंह, दीवान चन्द और जनरल वेन्चूरा अपनी-अपनी टुकड़ियों का नेतृत्व कर रहे थे।
हरि सिंह नलवा , अकाली बाबा फूला सिंह, फतेह सिंह आहलुवालिया, देसा सिंह मजीठिया और
अत्तर सिंह सन्धावालिये ने सशस्त्र दलों और घुड़सवारों का नेतृत्व किया। तोपखाने
की कमान मियां गोस खान और जनरल एलार्ड के पास थी।
भारत
में प्रशिक्षित सैन्य दलों के इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनायी गयी गोरखा सैन्य टुकड़ी एक ऐतिहासिक घटना था। गोरखा पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले
थे और पेशावर और खैबर दर्रे के इलाकों में प्रभावशाली हो सकते थे। महाराजा रणजीत
सिंह ने पूरबी (बिहारी) सैनिक टुकड़ी का निर्माण भी किया था। इस टुकड़ी में
ज्यादातर सैनिक पटना साहिब और दानापुर क्षेत्र के थे, जो
कि गुरू गोबिन्द सिंह जी की जन्म स्थली रहा है। सरदार हरि सिंह नलवा की सेना
शेर-ए-दिल रजामान सबसे आगे थी। महाराजा की सेना ने पोनटून पुल पार किया। लेकिन
बर्फबारी के कारण कुछ दिन रूकना पड़ा। महाराजा रणजीत सिंह के गुप्तचरों से ज्ञात
हुआ था कि दुश्मनों की संख्या जहांगीरिया किले के पास बढ रही थी। उधर तोपखाना
पहुंचने में देर हो रही थी और उसकी डेढ महीने बाद पहुंचने की संभावना थी।
स्थितियां प्रतिकूल थी।
सरदार
हरि सिंह नलवा और राजकुमार शेर सिंह ने पुल पार करके किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन
अब उन्हें अतिरिक्त बल की आवश्यकता थी। उधर दुश्मन ने पुल को नष्ट कर दिया था। ऐसे
में प्रातः काल में महाराजा स्वयं घोड़े पर शून्य तापमान वाली नदी के पानी में
उतरा। शेष सेना भी साथ थी। लेकिन बड़े सामान और तोपखाना इत्यादि का नुकसान हो गया
था। बन्दूकों की कमी भी महसूस हो रही थी। बाबा फूला सिंह जी के मर-जीवड़ों ने फौज
की कमान संभाली। उन्होने बहती नदी पार की। पीछे-पीछे अन्य भी आ गये। जहांगीरिया
किले के पास पठानों के साथ युद्ध हुआ। पठान यह कहते हुए सुने गये - तौबा, तौबा, खुदा
खुद खालसा शुद। अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं।
सोये
हुए अफगानियों पर अचानक हमले ने दुश्मन को हैरान कर दिया था। लगभग १० हजार अफगानी
मार गिराये गये थे। अफगानी भाग खड़े हुए। वे पीर सबक की ओर चले गये थे।
गोरखा
सैनिक टुकड़ी के जनरल बलभद्र ने अफगानी सेना को बेहिचक मारा काटा और इस बात का
सबूत दिया कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में गोरखा लड़ाके कितने कारगर थे। उन्होने
जेहादियों पर कई आक्रमण किये। लेकिन अन्त में घिर जाने के कारण बलभद्र शहीद हो
गये। सरदार हरि सिंह नलवा, अकाली फूला सिंह और निहंगों की
सशक्त जमात जमकर लड़ी। जनरल वेन्चूरा घायल हो गये। अकाली फूला सिंह के घोड़े को
गोली लगी। वह एक हाथी पर चढने की रणनीतिक भूल कर बैठे। वे ओट से बाहर आ गये थे और
जेहादियों ने उन्हें गोलियों से छननी कर दिया। वे शहीद हो गये।
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया
था, अचानक प्राणघातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे
महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी
मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे।
हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक
प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी
बने।
1837 में जब राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे तब सरदार हरि
सिंह नलवा उत्तर पश्चिम सीमा की रक्षा कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि नलवा ने राजा
रणजीत सिंह से जमरौद के किले की ओर बढ़ी सेना भेजने की माँग की थी लेकिन एक महीने
तक मदद के लिए कोई सेना नहीं पहुँची। सरदार हरि सिंह अपने मुठ्ठी भर सैनिकों के
साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 1892 में पेशावर के एक हिन्दू बाबू गज्जू मल्ल कपूर ने
उनकी स्मृति में किले के अन्दर एक स्मारक बनवाया।
कुछ
विद्वानों का मानना है कि राजा हरि सिंह नलवा की वीरता को, उनके
अदम्य साहस को पुरस्कृत करते हुए भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे की तीसरी पट्टी को
हरा रंग दिया गया है।
सरदार
हरि सिंह नलवा का भारतीय इतिहास में
एक सराहनीय एवं महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत के उन्नीसवीं सदी के समय में उनकी उपलब्धियों की मिसाल पाना महज असंभव है।
इनका निष्ठावान जीवनकाल हमारे इस समय के इतिहास को सर्वाधिक सशक्त करता है। परंतु
इनका योगदान स्मरणार्थक एवं अनुपम होने के बावज़ूद भी पंजाब की सीमाओं के बाहर अज्ञात बन कर रहे गया है। इतिहास की पुस्तकों के पन्नो
भी इनका नाम लुप्त है। जहाँ ब्रिटिश, रूसी और अमेरिकी
सैन्य बलों को विफलता मिली, इस क्षेत्र में सरदार हरि
सिंह नलवा ने अपनी सामरिक प्रतिभा और बहादुरी की धाक जमाने के साथ सिख-संत सिपाही
होने का उदाहरण स्थापित किया था। यह इतिहास में पहली बार हुआ था कि पेशावरी पश्तून, पंजाबियों द्वारा शासित थे। इसलिये रणनीति और रणकौशल की दृष्टि से हरि
सिंह नलवा की तुलना दुनिया के श्रेष्ठ जरनैलों से की जाती है।
श्रेष्ठतम सिख योद्धा
सरदार
हरि सिंह नलवा का नाम श्रेष्ठतम सिक्खी योद्धाओं की गिनती में आता है। वह महाराजा
रणजीत सिंह की सिख फौज के सबसे बड़े जनरल (सेनाध्यक्ष) थे। महाराजा रणजीत सिंह के
साम्राज्य (1799-1849) को 'सरकार
खालसाजी' के नाम से भी निर्दिष्ट किया जाता था। सिख
साम्राज्य, गुरु नानक द्वारा
शुरू किये गए आध्यात्मिक मार्ग का वह एकगरत रूप था जो गुरु
गोविंद सिंह ने खालसा की परंपरा से निश्चित कर के
संगठित किया था। गुरु गोविंद सिंह ने मुग़लों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के लिए एक सैन्य बल की स्थापना करने का निर्णय लिया
था। खालसा, गुरु गोविंद सिंह की उक्ति की सामूहिक
सर्वसमिका है। 30 मार्च 1699 को गुरु गोविंद सिंह ने खालसा मूलतः “संत
सैनिकों” के एक सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित किया।
खालसा उनके द्वारा दिया गया उन सब चेलों का नाम था जिन्होंने अमृत संचार अनुष्ठान
स्वीकार करके पांच तत्व- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, किरपान
का अंगीकार किया। वह व्यक्ति जो खालसा में शामिल किया जाता, एक 'खालसा सिख' या 'अमृतधारी' कहलाता। यह परिवर्तन संभवतः मूलमंत्र
के तौर से मानसिकता का जैसे हिस्सा बन जाता और आत्मविश्वास को उत्पन्न करके युद्ध
भूमि में सामर्थ्य प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता।