स्वामी विवेकानन्द
जन्म: 12 जनवरी1863 - मृत्यु: 4 जुलाई1902
स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के
विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त
था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में
सन् 1893 में
आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के
हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया
था लेकिन उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत "मेरे अमरीकी भाइयो एवं
बहनो" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम
वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।
कलकत्ता के
एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु
रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवो मे स्वयं
परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति अथेअथ जो
मनुष्य दूसरे जरूरत मेंदो मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा
सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप का दौरा किया और ब्रिटिश भारत में मौजूदा स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान
हासिल किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का
प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानंद ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का
आयोजन किया। भारत में विवेकानंद को एक देशभक्त संन्यासी के रूप में माना जाता है
और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 (विद्वानों के अनुसार मकर
संक्रान्ति संवत् 1920 को कलकत्ता में हुआ था। उनके
बचपन का घर का नाम वीरेश्वर रखा गया, किन्तु उनका औपचारिक नाम
नरेन्द्रनाथ दत्त था।पिता विश्वनाथ दत्त
कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। दुर्गाचरण दत्ता,
(नरेंद्र के दादा) संस्कृत और फारसी के विद्वान थे
उन्होंने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और एक
साधु बन गए। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी
धार्मिक विचारों की महिला थीं।उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में
व्यतीत होता था। नरेंद्र के पिता और उनकी माँ के धार्मिक, प्रगतिशील
व तर्कसंगत रवैया ने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार देने में मदद की।
बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के
तो थे ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर
अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके घर में नियमपूर्वक
रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक
प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराण,रामायण, महाभारत आदि की कथा सुनने का
बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था।
परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में
बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे होते गये।
माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे
प्राप्त करने की लालसा दिखायी देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता
में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पण्डितजी तक
चक्कर में पड़ जाते थे।
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में,
नरेंद्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए। 1877 में उनका परिवार रायपुर चला
गया। 1879 में, कलकत्ता में
अपने परिवार की वापसी के बाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने
प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये।
वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य सहित
विषयों के एक उत्साही पाठक थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के
अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। नरेंद्र को भारतीय शास्त्रीय
संगीत में प्रशिक्षित किया गया था,और ये नियमित रूप से शारीरिक
व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। नरेंद्र ने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इंस्टिटूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में किया।1881 में इन्होंने ललित
कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में
कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।
नरेंद्र ने डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, जोहान गोटलिब
फिच, बारूक
स्पिनोज़ा, जोर्ज डब्लू एच हेजेल, आर्थर
स्कूपइन्हार , ऑगस्ट कॉम्टे, जॉन स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन के कामों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पेंसर की
किताब एजुकेशन (1860) का बंगाली में अनुवाद किया। ये हर्बर्ट स्पेंसर के
विकासवाद से काफी मोहित थे। पश्चिम दार्शनिकों के
अध्यन के साथ ही इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा। विलियम हेस्टी (महासभा
संस्था के प्रिंसिपल) ने लिखा, "नरेंद्र वास्तव में एक
जीनियस है। मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी
प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के
दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।" अनेक बार इन्हें श्रुतिधर( विलक्षण स्मृति
वाला एक व्यक्ति) भी कहा गया है।
1880 में नरेंद्र, ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृष्ण के
प्रभाव से परिवर्तित केशव चंद्र सेन की नव विधान में शामिल हुए, नरेंद्र 1884 से पहले कुछ बिंदु पर, एक फ्री मसोनरी लॉज और साधारण
ब्रह्म समाज जो ब्रह्म समाज का ही एक अलग गुट था और जो केशव चंद्र सेन और देवेंद्रनाथ
टैगोर के नेतृत्व में था। 1881-1884 के दौरान ये सेन्स बैंड ऑफ़ होप में भी सक्रीय रहे जो धूम्रपान और शराब
पीने से युवाओं को हतोत्साहित करता था।
यह नरेंद्र के परिवेश के कारण पश्चिमी आध्यात्मिकता के साथ परिचित
हो गया था। उनके प्रारंभिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में
विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था, ने प्रभावित किया और सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत, अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र ,वेदांत और उपनिषदों के
एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्यन पर प्रोत्साहित किया।
एक बार किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता
दिखाते हुए नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर विवेकानन्द को क्रोध आ गया। वे अपने उस
गुरु भाई को सेवा का पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम
दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के
प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके
दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को समझ सके और स्वयं के अस्तित्व
को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के
अमूल्य आध्यात्मिक भण्डार की महक फैला सके। ऐसी थी उनके इस महान व्यक्तित्व की
नींव में गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा
जिसका परिणाम सारे संसार ने देखा। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। उनके गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।
गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत व स्वयं के
भोजन की चिन्ता किये बिना वे गुरु की
सेवा में सतत संलग्न रहे।
विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना
की थी जिसमें धर्म या जाति के
आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को
इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के
विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार
विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्द को
युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी संन्यासी का जीवन एक
आदर्श है। उनके नाना जी का नाम श्री नंदलाल बसु था।
सम्मेलन में भाषण
मेरे अमरीकी भाइयो और बहनो!
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं
उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से
पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं
आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ;
और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी
धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद
ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह
बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित
करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का
अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही
शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं
करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति
होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और
शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने
अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने
दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के
अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का
अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन
वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता
हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य
किया करते हैं:
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि
पयसामर्णव इव॥
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न
भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो!
भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग
अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही
गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते
मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता
है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा
प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय
तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता
के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई
पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी
शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर
अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के
सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार
या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर
होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।
25 वर्ष की
अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही
पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। विवेकानंद ने 31 मई 1893
को अपनी यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों (नागासाकी, कोबे,
योकोहामा, ओसाका, क्योटो
और टोक्यो समेत) का दौरा किया,चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका
के शिकागो पहुँचे सन् 1893 में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी।
स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमरीका के
लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने
बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न
मिले। परन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला। उस परिषद्
में उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमरीका में उनका अत्यधिक
स्वागत हुआ। वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया। तीन वर्ष वे अमरीका में
रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी
वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया। "अध्यात्म-विद्या
और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा" यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़
विश्वास था। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक
अमरीकी विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को 'गरीबों का सेवक' कहते थे। भारत के गौरव को
देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय बताता है कि उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो
काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।
तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और
उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवायी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को
पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक
कुछ भी नहीं।"
रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी
असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम
ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे
और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक
बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने
अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"
वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता,
विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका
से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था-"नया भारत निकल पड़े
मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से;
निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।" और जनता ने स्वामीजी की
पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गान्धीजी को आजादी की लड़ाई में
जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। इस
प्रकार वे भारतीय
स्वतन्त्रता संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा के
स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है।
यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास
एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं-केवल यहीं-आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये
जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन-"‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों
को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो
जाये।"
उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षोँ में विवेकानन्द लगभग सशस्त्र या हिंसक
क्रान्ति के जरिये भी देश को आजाद करना चाहते थे। परन्तु उन्हें जल्द ही यह
विश्वास हो गया था कि परिस्थितियाँ उन इरादों के लिये अभी परिपक्व नहीं हैं। इसके
बाद ही विवेकानन्द ने ‘एकला
चलो‘ की नीति का पालन करते हुए एक परिव्राजक के रूप में भारत
और दुनिया को खंगाल डाला।
उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के
ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ।
विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक
आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे।
उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया
था। उनका हिन्दू धर्म अटपटा, लिजलिजा और वायवीय नहीं था।
उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में
स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।
उनका यह कालजयी आह्वान इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अन्त में एक
बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करता है। उनके इस आह्वान को सुनकर पूरे पुरोहित वर्ग
की घिग्घी बँध गई थी। आज कोई दूसरा साधु तो क्या सरकारी मशीनरी भी किसी अवैध
मन्दिर की मूर्ति को हटाने का जोखिम नहीं उठा सकती। विवेकानन्द के जीवन की
अन्तर्लय यही थी कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि धरती की गोद में यदि ऐसा कोई देश
है जिसने मनुष्य की हर तरह की बेहतरी के लिए ईमानदार कोशिशें की हैं, तो वह भारत ही है।
उन्होंने पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, धार्मिक कर्मकाण्ड और रूढ़ियों की
खिल्ली भी उड़ायी और लगभग आक्रमणकारी भाषा में ऐसी विसंगतियों के खिलाफ युद्ध भी
किया। उनकी दृष्टि में हिन्दू धर्म के सर्वश्रेष्ठ चिन्तकों के विचारों का निचोड़
पूरी दुनिया के लिए अब भी ईर्ष्या का विषय है। स्वामीजी ने संकेत दिया था कि
विदेशों में भौतिक समृद्धि तो है और उसकी भारत को जरूरत भी है लेकिन हमें याचक
नहीं बनना चाहिये। हमारे पास उससे ज्यादा बहुत कुछ है जो हम पश्चिम को दे सकते हैं
और पश्चिम को उसकी बेसाख्ता जरूरत है।
यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ या
बड़बोलापन नहीं था। यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ, वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी। बीसवीं सदी के
इतिहास ने बाद में उसी पर मुहर लगायी।
विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर
में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" उनके शिष्यों
के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी
उन्होंने अपनी ध्यान करने
की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में
ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की
चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।
उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर
बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के
प्रचार के लिये 130 से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।