चक्रवर्ती राजगोपालाचारी
10 दिसम्बर 1878 – 25 दिसम्बर 1972
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी राजाजी नाम से भी जाने जाते हैं। वे वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे। वे स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर
जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। 10 अप्रैल 1952 से 13 अप्रैल 1954 तक वे मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री रहे। वे दक्षिण भारत के कांग्रेस के प्रमुख नेता थे, किन्तु
बाद में वे कांग्रेस के प्रखर विरोधी बन गए तथा स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। वे गांधीजी के समधी थे। (राजाजी की पुत्री लक्ष्मी का
विवाह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी से हुआ था।) उन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया।
उनका जन्म दक्षिण भारत के सलेम जिले में
थोरापल्ली नामक गांव में हुआ था। राजाजी तत्कालीन सलेम जनपद के थोरापल्ली नामक एक छोटे से गांव में एक तमिल ब्राह्मण
परिवार (श्री वैष्णव) में जन्मे थे। आजकल थोरापली कृष्णागिरि जनपद में है। उनकी आरम्भिक शिक्षा होसूर में हुई। कालेज की शिक्षा मद्रास (चेन्नई)
एवं बंगलुरू में हुई।
सन 1937 में हुए काँसिलो के चुनावों में चक्रवर्ती
के नेतृत्व में कांग्रेस ने मद्रास प्रांत में विजय प्राप्त की। उन्हें मद्रास का
मुख्यमंत्री बनाया गया। 1939 में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस
के बीच मतभेद के चलते कांग्रेस की सभी सरकारें भंग कर दी गयी थीं। चक्रवर्ती ने भी
अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय दूसरे विश्व युद्ध का आरम्भ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुन: ठन गयी। इस बार वह गांधी जी के भी
विरोध में खड़े थे। गांधी जी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र
नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजा जी का कहना था कि भारत को
पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए।
यह मतभेद इतने बढ़ गये कि राजा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से
त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद 1942 में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, तब भी वह अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गये। इस का
अर्थ यह नहीं कि वह देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गये थे।
अपने सिद्धांतों और कार्यशैली के अनुसार वह इन दोनों से निरंतर जुड़े रहे। उनकी
राजनीति पर गहरी पकड़ थी। 1942 के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन
में उन्होंने देश के विभाजन को स्पष्ट सहमति प्रदान की। यद्यपि अपने इस मत पर
उन्हें आम जनता और कांग्रेस का बहुत विरोध सहना पड़ा, किंतु
उन्होंने इसकी चिंता नहीं की। इतिहास गवाह है कि 1942 में
उन्होंने देश के विभाजन को सभी के विरोध के बाद भी स्वीकार किया, सन 1947 में वही हुआ। यही कारण है कि कांग्रेस के
सभी नेता उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने
पर भी यह अनुभव नहीं किया गया कि वह उससे अलग हैं।
1946 में देश की अंतरिम सरकार बनी।
उन्हें केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया। 1947 में
देश के पूर्ण स्वतंत्र होने पर उन्हें बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इसके
अगले ही वर्ष वह स्वतंत्र भारत के प्रथम 'गवर्नर जनरल'
जैसे अति महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किए गये। सन 1950 में वे पुन: केन्द्रीय मंत्रिमंडल में ले लिए गये। इसी वर्ष सरदार वल्लभ
भाई पटेल की मृत्यु होने पर वे केन्द्रीय गृह मंत्री बनाये गये। सन 1952 के आम चुनावों में वह लोकसभा सदस्य बने और मद्रास के मुख्यमंत्री
निर्वाचित हुए। इसके कुछ वर्षों के बाद ही कांग्रेस की तत्कालीन नीतियों के विरोध
में उन्होंने मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों को ही छोड़ दिया और अपनी पृथक
स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।
1954 में भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले
राजा जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। भारत रत्न पाने वाले
वे पहले व्यक्ति थे। वह विद्वान और अद्भुत लेखन प्रतिभा के धनी थे। जो गहराई और तीखापन
उनके बुद्धिचातुर्य में था, वही उनकी लेखनी में भी था। वह
तमिल और अंग्रेज़ी के बहुत अच्छे लेखक थे। 'गीता' और 'उपनिषदों' पर उनकी टीकाएं
प्रसिद्ध हैं। इनके द्वारा रचित चक्रवर्ति तिरुमगन, जो गद्य में रामायण कथा है, के लिये उन्हें सन् 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (तमिल) से
सम्मानित किया गया। उनकी लिखी अनेक कहानियाँ उच्च स्तरीय थीं। 'स्वराज्य'
नामक पत्र उनके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते थे। इसके अतिरिक्त
नशाबंदी और स्वदेशी वस्तुओं विशेषकर खादी के प्रचार प्रसार में उनका योगदान
महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
अपनी वेशभूषा से भी भारतीयता के दर्शन कराने वाले
इस महापुरुष का 25 दिसम्बर 1972
को निधन हो गया।