अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
जन्म:22 अक्टूबर1900, मृत्यु: 19
दिसम्बर 1927
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक प्रमुख क्रान्तिकारी थे। उन्होंने काकोरी
काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ब्रिटिश
शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका कर मार दिया
गया। राम
प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भी उर्दू भाषा के बेहतरीन शायर थे। उनका उर्दू तखल्लुस,
जिसे हिन्दी में उपनाम कहते हैं, हसरत था। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी व अँग्रेजी में लेख एवं कवितायें
भी लिखा करते थे। उनका पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
वारसी हसरत था। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सम्पूर्ण इतिहास में बिस्मिल और अशफ़ाक़ की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम आख्यान है।
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म उत्तर
प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर में रेलवे स्टेशन के
पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक
उल्ला ख़ाँ था। उनकी माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम
बला की खूबसूरत खबातीनों (स्त्रियों) में गिनी जाती थीं। अशफ़ाक़ ने स्वयं
अपनी डायरी में लिखा है कि जहाँ एक ओर उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी
ग्रेजुएट होने तक की तालीम न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च
शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व एस० जे० एम० (सब जुडीशियल
मैजिस्ट्रेट) के ओहदों पर मुलाजिम भी रह चुके थे। 1857 के गदर में उन लोगों (उनके
ननिहाल वालों) ने जब हिन्दुस्तान का साथ नहीं दिया तो
जनता ने गुस्से में आकर उनकी आलीशान कोठी को आग के हवाले कर दिया था। वह कोठी आज
भी पूरे शहर में जली कोठी के नाम से मशहूर है। बहरहाल अशफ़ाक़ ने अपनी कुरबानी देकर ननिहाल वालों के
नाम पर लगे उस बदनुमा दाग को हमेशा - हमेशा के लिये धो डाला।
अशफ़ाक़ अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। सब उन्हें प्यार से
अच्छू कहते थे। एक रोज उनके बड़े भाई रियासत उल्ला ने अशफ़ाक़ को बिस्मिल के बारे
में बताया कि वह बड़ा काबिल सख्श है और आला दर्जे का शायर भी, गोया आजकल मैनपुरी काण्ड मॅ
गिरफ्तारी की वजह से शाहजहाँपुर में नजर नहीं आ रहा।
काफी अर्से से फरार है खुदा जाने कहाँ और किन हालात में बसर करता होगा। बिस्मिल
उनका सबसे उम्दा क्लासफेलो है। अशफ़ाक़ तभी से बिस्मिल से मिलने के लिये बेताव हो
गये। वक्त गुजरा। 1920 में आम मुआफी के बाद राम
प्रसाद बिस्मिल अपने वतन शाहजहाँपुर आये और् घरेलू
कारोबार में लग गये। अशफ़ाक़ ने कई बार बिस्मिल से मुलाकात करके उनका विश्वास
अर्जित करना चाहा परन्तु कामयाबी नहीं मिली। चुनाँचे एक रोज रात को खन्नौत नदी के
किनारे सुनसान जगह में मीटिंग हो रही थी अशफ़ाक़ वहाँ जा पहुँचे। बिस्मिल के एक
शेर पर जब अशफ़ाक़ ने आमीन कहा तो बिस्मिल ने उन्हें पास बुलाकर परिचय पूछा। यह
जानकर कि अशफ़ाक़ उनके क्लासफेलो रियासत उल्ला का सगा छोटा भाई है और उर्दू जुबान का शायर भी है, बिस्मिल ने उससे आर्य
समाज मन्दिर में आकर अलग से मिलने को कहा। घर वालों के लाख मना करने पर भी
अशफ़ाक़ आर्य समाज जा पहुँचे और राम
प्रसाद बिस्मिल से काफी देर तक गुफ्तगू करने के बाद उनकी पार्टी मातृवेदी के ऐक्टिव मेम्बर भी बन गये। यहीं
से उनकी जिन्दगी का नया फलसफा शुरू हुआ। वे शायर के साथ-साथ कौम के खिदमतगार भी बन
गये।
अशफ़ाक़ बहुत दूरदर्शी थे उन्होंने राम
प्रसाद बिस्मिल को यह सलाह दी कि क्रान्तिकारी गतिविधियाँ के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी में भी अपनी
पैठ बनाकर रखना हमारी कामयावी में मददगार ही साबित होगा। बहरहाल अशफ़ाक़ व बिस्मिल
के साथ शाहजहाँपुर के और भी कई नवयुवक कांग्रेस में शामिल हुए और
पार्टी को कौमी ताकत अता की। 1921 की अहमदाबाद कांग्रेस में राम
प्रसाद बिस्मिल व प्रेमकृष्ण
खन्ना के साथ अशफ़ाक़ भी शामिल हुए। अधिवेशन में उनकी मुलाकात मौलाना हसरत
मोहानी से हुई जो कांग्रेस के व्ररिष्ठ
शरमायेदारों में शुमार किये जाते थे। मौलाना हसरत मोहानी द्वारा प्रस्तुत पूर्ण
स्वराज के प्रस्ताव का जब गान्धी जी ने विरोध किया तो शाहजहाँपुर के कांग्रेसी
स्वयंसेवकों ने गान्धी की ड्टकर मुखालफत की और खूब हंगामा मचाया। आखिरकार गान्धी जी को न चाहते हुए भी
वह प्रस्ताव स्वीकार करना ही पडा। इसी प्रकार दिसम्बर 1922 की गया कांग्रेस में भी नवयुवकों
द्वारा गान्धी की जमकर खिंचायी की
गयी। इसमें बंगाल, बिहार व उत्तर
प्रदेश के नवयुवक एक हो गये। उन सबका गान्धी से एक ही सवाल था-
"आपने किससे पूछकर असहयोग
आन्दोलन वापस लिया?"
1922 की गया कांग्रेस के बाद पार्टी में दो
दल बन गये एक धनाढ्य लोगों का दूसरा आम तबके से आये हुए नवयुवकों का। पहले वाले दल
ने 1 जनवरी 1923 को स्वराज
पार्टी बना ली दूसरे दल ने क्रान्तिकारी पार्टी के गठन का मन बना लिया। बंगाल के कुछ नवयुवक सीधे शाहजहाँपुर आकर मैनपुरी
षड्यन्त्र के अनुभवी क्रान्तिकारी पण्डित राम
प्रसाद बिस्मिल से मिले और उनसे नयी पार्टी के गठन में सहयोग करने का आग्रह किया। बिस्मिल
उन दिनों सिल्क की साडियों के व्यापार में उलझे हुए थे उनके पास समय नहीं था। इस
पर अशफ़ाक़ ने उन्हें समझाया और अपनी ओर से पूरा सहयोग करने का वचन दिया। उसके बाद
ही बिस्मिल ने अपने साझीदार बनारसी लाल को सारा कारोवार सौंप दिया और पूरे मन से
अशफ़ाक़ और बिस्मिल क्रान्तिकारी पार्टी के काम में जुट गये। पार्टी की ओर से 1
जनवरी 1925 को अँग्रेजी में छापे गये घोषणा पत्र दि
रिवोलूशनरी को पूरे उत्तर
प्रदेश के प्रत्येक जिले तक पहुँचाने में अशफ़ाक़ की सराहनीय भूमिका को देखते हुए
एच०आर०ए० की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य योगेश चन्द्र चटर्जी ने अशफ़ाक़ को
बिस्मिल का सहकारी (लेफ्टिनेण्ट) मनोनीत किया और प्रदेश की जिम्मेवारी इन दोनों के
कन्धों पर डाल कर स्वयं बंगाल चले गये।
बंगाल में शचीन्द्रनाथ
सान्याल व योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे दो प्रमुख व्यक्तियों के गिरफ्तार हो जाने पर
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का पूरा दारोमदार बिस्मिल के कन्धों पर आ गया।
इसमें शाहजहाँपुर से प्रेम कृष्ण खन्ना,
ठाकुर रोशन
सिंह के अतिरिक्त अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का योगदान सराहनीय रहा। जब आयरलैण्ड के क्रान्तिकारियों
की तर्ज पर जबरन धन छीनने की योजना बनायी गयी तो अशफ़ाक़ ने अपने बड़े भाई रियासत
उल्ला ख़ाँ की लाइसेंसी बन्दूक और दो पेटी कारतूस बिस्मिल को उपलब्ध कराये ताकि
धनाढ्य लोगों के घरों में डकैतियाँ डालकर पार्टी के लिये पैसा इकट्ठा किया जा सके।
किन्तु जब बिस्मिल ने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी तो अशफ़ाक़ ने अकेले ही
कार्यकारिणी मीटिंग में इसका खुलकर विरोध किया। उनका तर्क था कि अभी यह कदम उठाना
खतरे से खाली न होगा; सरकार हमें नेस्तनाबूद कर देगी। इस पर
जब सब लोगों ने अशफ़ाक़ के बजाय बिस्मिल पर खुल्लमखुल्ला यह फब्ती
कसी-"पण्डित जी! देख ली इस मियाँ की करतूत। हमारी पार्टी में एक मुस्लिम को
शामिल करने की जिद का असर अब आप ही भुगतिये, हम लोग तो
चले।" इस पर अशफ़ाक़ ने यह कहा-"पण्डित जी हमारे लीडर हैं हम उनके हम
उनके बराबर नहीं हो सकते। उनका फैसला हमें मन्जूर है। हम आज कुछ नहीं कहेंगे लेकिन
कल सारी दुनिया देखेगी कि एक पठान ने इस ऐक्शन को किस तरह अन्जाम दिया?"
और वही हुआ, अगले दिन 9 अगस्त 1925 की शाम काकोरी स्टेशन से जैसे ही
ट्रेन आगे बढी़, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने चेन खींची, अशफ़ाक़ ने
ड्राइवर की कनपटी पर माउजर रखकर उसे अपने कब्जे में लिया और राम
प्रसाद बिस्मिल ने गार्ड को जमीन पर औंधे मुँह लिटाते हुए खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया।
लोहे की मजबूत तिजोरी जब किसी से न टूटी तो अशफ़ाक़ ने अपना माउजर मन्मथनाथ
गुप्त को पकडाया और घन लेकर पूरी ताकत से तिजोरी पर पिल पडे। अशफ़ाक़ के तिजोरी
तोडते ही सभी ने उनकी फौलादी ताकत का नजारा देखा। वरना यदि तिजोरी कुछ देर और न
टूटती और लखनऊ से पुलिस या आर्मी आ
जाती तो मुकाबले में कई जाने जा सकती थीं; फिर उस काकोरी
काण्ड को इतिहास में कोई दूसरा ही नाम दिया जाता
26 सितम्बर 1925 की रात जब पूरे देश में एक साथ गिरफ्तारियाँ
हुईं अशफ़ाक़ पुलिस की आँखों में धूल
झोंक कर फरार हो गये। पहले वे नेपाल गये कुछ दिन वहाँ
रहकर कानपुर आ गये और गणेशशंकर
विद्यार्थी के प्रताप प्रेस में २ दिन रुके। वहाँ से बनारस होते हुए बिहार के एक जिले डाल्टनगंज में कुछ दिनों नौकरी
की परन्तु पुलिस को इसकी भनक लगने से
पहले उत्तर
प्रदेश के शहर कानपुर वापस आ गये।
विद्यार्थी जी ने उन्हें अपने पास से कुछ रुपये देकर भोपाल उनके बड़े भाई रियासत
उल्ला ख़ाँ के पास भेज दिया। कुछ समय वहाँ रहकर अशफ़ाक़ राजस्थान गये और अपने भाई के
मित्र अर्जुनलाल सेठी के घर ठहरे। सेठी जी की लडकी उन पर फिदा हो गयी और उनके
सामने शादी का प्रस्ताव पेश कर दिया। आखिरकार एक रात वे वहाँ से भी रफूचक्कर हो
गये और बिहार के उसी जिले डाल्टनगंज पहुँच कर अपनी पुरानी
जगह नाम बदल कर नौकरी शुरू कर दी। एक दिन भेद खुल गया तो अशफ़ाक़ ट्रेन पकड कर दिल्ली चले गये और अपने जिले शाहजहाँपुर के ही मूल निवासी एक
पुराने दोस्त के घर पर ठहरे। यहाँ भी वही मुसीबत अशफ़ाक़ के पीछे लग गयी। जिसके
यहाँ ठहरे हुए थे उस दोस्त की लडकी ने भी अशफ़ाक़ पर डोरे डालने शुरू कर दिये।
हालात से आजिज आकर अशफ़ाक़ ने पासपोर्ट बनवा कर किसी प्रकार दिल्ली से बाहर विदेश जाकर लाला
हरदयाल से मिलने का मन्सूबा बनाया ही था कि किसी भेदिये की खबर पाकर दिल्ली खुफिया पुलिस के उपकप्तान इकरामुल
हक ने उन्हें धर दबोचा। ऐसा कहा जाता है कि उस दोस्त ने ही अशफ़ाक़ को पकडवाने में पुलिस की इमदाद (सहायता) की
थी।
यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि काकोरी काण्ड का फैसला 6
अप्रैल 1926 को सुना दिया गया था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ और शचीन्द्रनाथ बख्शी को पुलिस बहुत बाद में गिरफ्तार
कर पायी थी अत: स्पेशल सेशन जज जे०आर०डब्लू० बैनेट की अदालत में 7 दिसम्बर 1926 को एक पूरक मुकदमा दायर किया गया। मुकदमे के
मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने अशफ़ाक़ को सलाह दी कि वे किसी मुस्लिम वकील को अपने केस के
लिये नियुक्त करें किन्तु अशफ़ाक़ ने जिद करके कृपाशंकर हजेला को अपना वकील चुना। इस पर एक दिन
सी०आई०डी० के पुलिस कप्तान खानबहादुर तसद्दुक हुसैन ने जेल में जाकर अशफ़ाक़ से मिले और उन्हें फाँसी की सजा से बचने के लिये
सरकारी गवाह बनने की सलाह दी। जब अशफ़ाक़ ने उनकी सलाह को तबज्जो नहीं दी तो
उन्होंने एकान्त में जाकर अशफ़ाक़ को समझाया-
"देखो अशफ़ाक़ भाई!
तुम भी मुस्लिम हो और अल्लाह के फजल
से मैं भी एक मुस्लिम हूँ इस बास्ते
तुम्हें आगाह कर रहा हूँ। ये राम प्रसाद बिस्मिल बगैरा
सारे लोग हिन्दू हैं। ये यहाँ हिन्दू
सल्तनत कायम करना चाहते हैं। तुम कहाँ इन काफिरों के चक्कर में आकर अपनी जिन्दगी
जाया करने की जिद पर तुले हुए हो। मैं तुम्हें आखिरी बार समझाता हूँ, मियाँ! मान जाओ; फायदे में रहोगे।"
इतना सुनते ही अशफ़ाक़ की त्योरियाँ चढ
गयीं और वे गुस्से में डाँटकर बोले-
"खबरदार! जुबान
सम्हाल कर बात कीजिये। पण्डित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आपसे
ज्यादा मैं जानता हूँ। उनका मकसद यह बिल्कुल नहीं है। और अगर हो भी तो हिन्दू राज्य तुम्हारे इस अंग्रेजी राज्य से बेहतर ही
होगा। आपने उन्हें काफिर कहा इसके लिये मैं आपसे यही दरख्वास्त करूँगा कि मेहरबानी
करके आप अभी इसी वक्त यहाँ से तशरीफ ले जायें वरना मेरे ऊपर दफा 302 (कत्ल) का एक
केस और कायम हो जायेगा।"
इतना सुनते ही बेचारे कप्तान साहब
(तसद्दुक हुसैन) की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी और वे अपना सा मुँह लेकर वहाँ से
चुपचाप खिसक लिये। बहरहाल 13 जुलाई 1927 को पूरक मुकदमे (सप्लीमेण्ट्री केस) का
फैसला सुना दिया गया - दफा 120 (बी) व 121 (ए) के अन्तर्गत उम्र-कैद और 396 के अन्तर्गत सजाये-मौत अर्थात् फाँसी का दण्ड।
जज ने अपने फैसले में साफ-साफ लिखा था कि इन अभियुक्तों ने अपने
व्यक्तिगत लाभ के लिये यह षड्यन्त्र नहीं किया मगर फिर भी अगर ये लोग अपने किये पर
पश्चाताप प्रकट करें तो सजा कम की जा सकती है। वकील की सलाह पर लखनऊ जेल में जाकर अशफ़ाक़ बिस्मिल से मिले
और उनका मत जानना चाहा। इस पर बिस्मिल ने उन्हें समझाया कि जिस प्रकार शतरंज के
खेल में हारी हुई बाजी जीतने के लिये कभी कभार अपने एक दो मोहरे मरवाने ही पडते है,
ठीक उसी प्रकार हम लोग भी माफीनामा दायर कर अपने को मौत की सजा से
बचा सकें तो बेहतर रहेगा। सात साल में उम्र-कैद पूरी हो जाने के बाद हम इससे भी
भयंकर काण्ड करके इस बेरहम सरकार की नाक में दम कर देंगे। पारस्परिक सहमति से उधर राम प्रसाद बिस्मिल ने
और इधर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना-अपना माफीनामा दायर कर दिया। अशफ़ाक़ ने पहला
माफीनामा 11 अगस्त 1927 व दूसरा माफीनामा 29 अगस्त 1927 को लिखकर भेजा। इसके
अतिरिक्त वकील की सलाह पर एक और मर्सी-अपील अशफ़ाक़ की माँ मुसम्मात मजहूरुन्निशाँ
बेगम की तरफ से वायसराय तथा गवर्नर जनरल को भेजी गयी परन्तु उस पर कोई विचार ही
नहीं हुआ।
अशफ़ाक़ व उनकी माँ के बाद विधान सभा सदस्यों ने संयुक्त रूप से
हस्ताक्षर करके संयुक्त प्रान्त के गवर्नर विलियम मोरिस को एक मेमोरेण्डम नैनीताल भेजा। उसके साथ ही
पं० गोविन्द वल्लभ पन्त व
सी०वाई० चिन्तामणि ने भी एक प्रार्थना पत्र भेजा किन्तु सब प्रयत्न बेकार ही रहे।
22 सितम्बर 1927 को होम सेक्रेटरी एच० डब्लू० हेग ने अपनी फाइनल रिपोर्ट दी जिसके
अन्त में उसने स्पष्ट लिखा था- "इन लोगों का उद्देश्य एक स्थापित सरकार को
उलटना था। यह चूँकि पूरी तरह सिद्ध हो चुका है अत: इस मामले में फाँसी ही दी जा सकती है,
जबकि बंगाल षड्यन्त्र में, जिसकी यह एक शाखा थी, अब तक ऐसी कोई तथ्यात्मक
पुष्टि नहीं हुई है; अत: वहाँ के लोगों को फाँसी की सजा से मुक्त रखा
गया है। मुझे पक्का विश्वास है कि यदि इन्हें फाँसी की सजा न देकर जिन्दा
छोड दिया गया तो ये बंगाल तो क्या, पूरे हिन्दुस्तान में फैल जायेंगे।"
इन तमाम अपीलों व दलीलों का इतना असर जरूर हुआ कि फाँसी की तारीख दो बार आगे
बढा दी गयी। पह्ले यह तारीख 16 सितम्बर 1927 थी, बाद में 11 अक्टूबर 1927 हुई। चूँकि लन्दन की प्रिवी-कौंसिल में
मर्सी-अपील जा चुकी थी अत: फाँसी की तारीख फिर से आगे के
लिये टाल दी गयी। आखिरकार 19 दिसम्बर 1927 की तारीख मुकर्रर हुई और इसकी सूचना
चारो जेलों को भेज दी गयी। फैजाबाद जेल में यह सूचना
पहुँचते ही अशफ़ाक़ ने २९ नवम्बर 1927 को अपने भाई रियासत उल्ला ख़ाँ, 15 दिसम्बर 1927 को अपनी वालिदा मोहतरमा मजहूरुन्निशाँ बेगम तथा 16 दिसम्बर 1927 को अपनी मुँह बोली बहन नलिनी दीदी को खत लिखा और खुदा की इबादत में
जुट गये।
जुमेरात (गुरुवार), 15 दिसम्बर 1927 की
शाम फैजाबाद जेल की काल कोठरी से
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना यह आखिरी पैगाम हिन्दुस्तान के अवाम के नाम
लिखकर उर्दू भाषा में भेजा था। उनका
मकसद यह था कि मुस्लिम समुदाय के लोग इस पर
खास तवज्जो अता करें। एक पुलिस अधिकारी पं० विद्यार्णव शर्मा की पुस्तक युग के देवता : बिस्मिल और अशफ़ाक़ में पृष्ठ संख्या 172 से 1978 तक यह पूरा सन्देश दिया हुआ है -
“
|
गवर्नमेण्ट
के खुफिया एजेण्ट मजहबी बुनियाद पर प्रोपेगण्डा फैला रहे हैं। इन लोगों का मक़सद
मजहब की हिफाजत या तरक्की नहीं है, बल्कि चलती गाडी़ में रोडा़ अटकाना
है। मेरे पास वक्त नहीं है और न मौका है कि सब कच्चा चिट्ठा खोल कर रख देता,
जो मुझे अय्यामे-फरारी (भूमिगत रहने) में और उसके बाद मालूम हुआ।
यहाँ तक मुझे मालूम है कि मौलवी नियामतुल्ला कादियानी कौन था जो काबुल में संगसार (पत्थरों
से पीट कर ढेर) किया गया। वह ब्रिटिश एजेण्ट था जिसके
पास हमारे करमफरमा (भाग्यविधाता) खानबहादुर तसद्दुक हुसैन साहब डिप्टी
सुपरिण्टेण्डेण्ट सी०आई०डी० गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया पैगाम लेकर गये थे मगर
बेदारमग़ज हुकूमते-काबुल (काबुल की होशियार सरकार) ने उसका इलाज जल्द कर
दिया और मर्ज को वहाँ पर फैलने न दिया
|
”
|
इसके बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता
के फायदे, अहमदाबाद कांग्रेस जैसा इत्तिहाद
(मेलमिलाप), गोरी अंग्रेजियत का भूत उतारने की बात करते हुए
देश के लोगों से विदेशी मोह व देशी चीजों से नफरत का त्याग करने की नायाब नसीहत
देते हुए चन्द अंग्रेजी पंक्तियों के साथ
रुखसत होने की गुजारिश की थी।
“
|
मेरे
भाइयो! मेरा सलाम लो और इस नामुकम्मल (अधूरे) काम को, जो हमसे रह गया है,
तुम पूरा करना। तुम्हारे लिये मैदाने-अमल (कार्य-क्षेत्र) तैयार
कर दिया। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मैं चन्द सुतूर (पंक्तियों) के बाद
रुखसत (विदा) होता हूँ
"To every man upon this earth, death cometh
soon or late.
But how can man die better, than facing fearful odds. For the ashes of his fathers, and temples of his gods." |
शाहजहाँपुर के आग्नेय कवि
स्वर्गीय अग्निवेश शुक्ल ने यह भावपूर्ण कविता लिखी थी जिसमें
उन्होंने फैजाबाद जेल की काल-कोठरी में फाँसी से पूर्व अपनी जिन्दगी
की आखिरी रात गुजारते हुए अशफ़ाक़ के दिलो-दिमाग में उठ रहे जज्वातों के तूफान को हिन्दी शब्दों का खूबसूरत
जामा पहनाया है।
“
|
जाऊँगा
खाली हाथ मगर, यह दर्द साथ ही जायेगा;जाने किस दिन हिन्दोस्तान,
आजाद वतन कहलायेगा।
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा;
ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आजाद कराऊँगा।।
जी करता है मैं भी कह दूँ, पर मजहब से बँध जाता हूँ; मैं मुसलमान हूँ पुनर्जन्म की बात नहीं कह पाता हूँ। हाँ, खुदा अगर मिल गया कहीं, अपनी झोली फैला दूँगा; औ' जन्नत के बदले उससे, यक नया जन्म ही माँगूँगा।। |
फाँसी वाले दिन सोमवार दिनांक 19 दिसम्बर
1927 को अशफ़ाक़ हमेशा की तरह सुबह उठे, शौच आदि से निवृत्त
हो स्नान किया। कुछ देर वज्रासन में बैठ कुरान की आयतों को दोह्रराया
और किताब बन्द करके उसे आँखों से चूमा। फिर अपने आप जाकर फाँसी के तख्ते पर खडे हो गये
और कहा- "मेरे ये हाथ इन्सानी खून से नहीं रँगे। खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ
होगा।" फिर अपने आप ही फन्दा गले में डाल लिया। अशफ़ाक़ की लाश फैजाबाद जिला कारागार से शाहजहाँपुर लायी जा रही थी। लखनऊ स्टेशन पर गाडी बदलते समय कानपुर से बीमारी के बावजूद
चलकर आये गणेशशंकर विद्यार्थी ने
उनकी लाश को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। पारसीशाह फोटोग्राफर से अशफ़ाक़ के शव
का फोटो खिंचवाया और अशफ़ाक़ के
परिवार जनों को यह हिदायत देकर कानपुर वापस चले गये कि शाहजहाँपुर में इनका पक्का मकबरा जरूर बनवा देना,
अगर रुपयों की जरूरत पडे तो खत लिख देना मैं कानपुर से मनीआर्डर भेज
दूँगा। अशफ़ाक़ की लाश को उनके पुश्तैनी मकान के सामने वाले बगीचे में दफ्ना दिया
गया। उनकी मजार पर संगमरमर के पत्थर पर अशफ़ाक़
उल्ला ख़ाँ की ही कही हुई ये पंक्तियाँ लिखवा दी गयीं:
“
|
जिन्दगी
वादे-फना तुझको मिलेगी 'हसरत',
तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।
|
”
|
अशफ़ाक़ यह पहले से ही जानते थे कि
उनकी शहादत के बाद हिन्दुस्तान में लिबरल पार्टी
यानी कांग्रेस ही पावर में आयेगी
और उन जैसे आम तबके के बलिदानियों का कोई चर्चा नहीं होगा; सिर्फ़
शासकों के स्मृति-लेख ही सुरक्षित रखे जायेंगे। तभी तो उन्होंने ये क़ता कहकर
वर्तमान हालात की भविष्य-वाणी बहुत पहले सन् 1927 में ही कर दी थी:
“
|
जुबाने-हाल
से अशफ़ाक़ की तुर्बत ये कहती है, मुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल
से भुलाया है?
बहुत अफसोस होता है बडी़ तकलीफ होती
है, शहीद अशफ़ाक़ की तुर्बत है और धूपों का साया है!!
|
”
|
गनीमत है गणेशशंकर विद्यार्थी ने
200 रुपये का मनीआर्डर भेजकर अशफ़ाक़ की मजार पर छत डलवा कर उसे धूप के साये से
बचा लिया।