सर मोक्षगुंडम
विश्वेश्वरय्या
15 सितम्बर 1861 - 14 अप्रैल 1962
सर मोक्षगुंडम
विश्वेश्वरय्या भारत के महान अभियन्ता एवं राजनयिक थे। उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया गया
था। भारत में उनका
जन्मदिन अभियन्ता
दिवस के रूप में मनाया
जाता है।
विश्वेश्वरैया
का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1861 को एक तेलुगु परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा
माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्मस्थान
से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन यहां उनके पास धन
का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1881 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान
प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान
प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार
ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।
एक बार कुछ भारतीयों को अमेरिका में कुछ फैक्टरियों की कार्यप्रणाली देखने के लिए भेजा गया।
फैक्टरी के एक ऑफीसर ने एक विशेष मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा, "अगर आप इस मशीन के बारे में जानना
चाहते हैं, तो आपको इसे 75 फुट ऊंची सीढ़ी पर चढ़कर देखना होगा"। भारतीयों का
प्रतिनिधित्व कर रहे सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने कहा, "ठीक है, हम अभी
चढ़ते हैं"। यह कहकर वह व्यक्ति तेजी से सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा।
ज्यादातर लोग सीढ़ी की ऊंचाई से डर कर पीछे हट गए तथा कुछ उस व्यक्ति के साथ हो
लिए। शीघ्र ही मशीन का निरीक्षण करने के बाद वह शख्स नीचे उतर आया। केवल तीन अन्य
लोगों ने ही उस कार्य को अंजाम दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि डॉ॰
एम.विश्वेश्वरैया थे जो कि सर एमवी के नाम से भी विख्यात थे।
दक्षिण भारत के मैसूर, कर्र्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में
एमवी का अभूतपूर्व योगदान है। तकरीबन 55 वर्ष
पहले जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब
कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती
आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर
संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर
विश्वविद्यालय,
बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई
महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का
भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 32 वर्ष के
थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे
को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया।
सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई।
इसके लिए एमवी ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए
जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा
ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में
लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के
लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।
उस समय राज्य की हालत काफी बदतर
थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक
साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए
विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण
राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में
सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए
इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के
महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।
विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता
को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को
मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों
की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा
पहला फर्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को
ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके
ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे
पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को
अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई
कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी
खुलवाया।
वह उद्योग को देश की जान मानते
थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद
उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील
आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को
पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को
विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में
विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस
वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई।
फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने
स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक
लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम
विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट
फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया।
बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी
उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह
आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की
समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर
हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।
वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध
तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली
बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी।
लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी
किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी
लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की
उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की
तपस्या थी। 1955
में उनकी अभूतपूर्व तथा
जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा
गया। जब वह 100
वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने
डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया।
1952 में वह पटना गंगा नदी पर राजेन्द्र सेतु पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके
बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया
ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों
के कार्य से श्रेष्ठ हो।
वह खास मुसाफिर- यह उस समय की बात है जब भारत में
अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर
अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले
रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे
मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात
पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज
रफ्तार में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे।
थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, ‘जंजीर
किसने खींची है?’
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने खींची है।’ कारण
पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा
अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको
कैसे पता चला?’
वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में
अंतर आ गया है। पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’ गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह
देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े
हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ
के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस
व्यक्ति ने कहा,
‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा
नाम है डॉ॰ एम. विश्वेश्वरैया।’ नाम सुन
सब स्तब्ध रह गए। दरअसल उस समय तक देश में डॉ॰ विश्वेश्वरैया की ख्याति फैल चुकी
थी। लोग उनसे क्षमा मांगने लगे। डॉ॰ विश्वेश्वरैया का उत्तर था, ‘आप सब ने मुझे जो कुछ भी कहा होगा, मुझे तो बिल्कुल याद नहीं है।’
चिर यौवन का रहस्य- भारत-रत्न से सम्मानित डॉ॰
मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने सौ वर्ष से अधिक की आयु पाई और अंत तक सक्रिय जीवन
व्यतीत किया। एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन का रहस्य क्या है?' डॉ॰ विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं
कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है। और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी
मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?'