जब मैं
छोटा था, तब मेरे चचेरे भाई ने मुझसे एक सवाल
पूछा- ‘तुम खाली पेट कितनी रोटियां खा सकते
हो?’ मैंने बडे़ उत्साह से कहा, ‘सात’। भाई ने
जोरदार ठहाका लगाया और कहा, ‘कोई भी
आदमी खाली पेट एक रोटी से ज्यादा नहीं खा सकता, क्योंकि पहली रोटी खाने के बाद पेट खाली कहां रहता है?’ सरकारी स्कूलों के शौचालयों के बारे में मैं इससे
मिलता-जुलता सवाल पूछ सकता हूं- किसी सरकारी स्कूल में कितने बच्चे शौचालय का
इस्तेमाल कर सकते हैं? इसका भी
जवाब वही होगा- अधिक से अधिक एक। क्योंकि इसके बाद वह शौचालय इस्तेमाल लायक बचेगा
ही नहीं। क्योंकि ऐसे ज्यादातर शौचालयों में पानी होता ही नहीं। कई बार तो मैंने
देखा है कि जिला शिक्षा प्रशिक्षण संस्थान (डाइट) में प्रिंसिपल के कार्यालय का
शौचालय भी इस्तेमाल योग्य नहीं होता, क्योंकि
यूरीनल की पाइप टूटी होती है और शौचालय में पानी भी नहीं होता।
बात सिर्फ शौचालय की नहीं है, हमारे ज्यादातर सरकारी प्राइमरी स्कूलों में या तो उन
सुविधाओं का अभाव है, जिन्हें
हम बुनियादी सुविधाएं कहते हैं या फिर वे सुविधाएं ऐसी स्थिति में हैं कि उनका
बहुत ज्यादा और नियमित इस्तेमाल नहीं हो सकता। किसी भी ढांचे को दुरुस्त रखने के
लिए हमें बजट की,
उसके रखरखाव पर निगरानी रखने
वाली व्यवस्था की, और उसके
इस्तेमाल के सलीके की जरूरत होती है। राज्यों के अपने अनगिनत दौरों में मैंने
कितने ही ऐसे स्कूल, डाइट व
शिक्षा कार्यालय देखे हैं, जिनमें
बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं।
अनगिनत स्कूलों में बच्चों को
ऐसी कक्षाओं में बैठने को मजबूर किया जाता है, जो असुरक्षित, गंदे और
सीखने के लिहाज से कतई उचित नहीं हैं। दीवारों के प्लास्टर झड़ रहे हैं, सालों से उनकी रंगाई नहीं हुई है, बैठने के लिए बेंच नहीं हैं, यहां तक कि जिस फर्श पर बच्चों को बैठने को कहा जाता है, वह भी ऊबड़-खाबड़ और असुविधाजनक होती है। तालीम तक पहुंच की
गुणवत्ता और पर्याप्तता में भारी सुधार की जरूरत है। हमें ऐसी कक्षाएं मुहैया
करानी होंगी,
जो सुरक्षित, साफ-सुथरे, खुशनुमा, हवादार हों और जिनमें पानी न टपकता हो। साथ ही, हर दर्जे के लिए अलग कक्षा होनी चाहिए। हमें कक्षाओं को
उपयुक्त बेंच,
ब्लैकबोर्ड, रंगी हुई दीवारें और छत मुहैया करानी होगी। शिक्षा का अधिकार
कानून ने स्कूलों के लिए कुछ बुनियादी सुविधाओं को परिभाषित किया है। इनको
भली-भांति उपलब्ध कराना होगा। लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय होने चाहिए, जिनमें पानी हमेशा उपलब्ध हो।
मध्याह्न भोजन कार्यक्रम पहले
से ही लागू था,
मगर वर्ष 2006 में उसे अनिवार्य बनाया गया। उसका
मुख्य उद्देश्य था योजना के दायरे में आने वाले हरेक बच्चे को पका हुआ गरम खाना
मुहैया कराना,
जिससे 450 कैलोरी ऊर्जा, 12 ग्राम प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्व
बच्चे को मिल सके। इस कार्यक्रम के लिए आवंटित बजट समेत इसके क्रियान्वयन की
प्रभावोत्पादकता का गंभीर मूल्यांकन करना हमारे लिए जरूरी है। हजारों प्रधानाचार्य
बच्चों को उपयुक्त खाना मुहैया कराने के लिए जरूरी सब्जियां, मसाले और दूसरी सामग्री जुटाने के लिए अपनी जेब से पैसे खर्च
करते हैं। इनका भुगतान महीनों तक अटका रहता है। योजना के लिए जो बजट होता है, वह इसके उद्देश्य के लिहाज से अपर्याप्त है।
अनेक शोधों से यह बात साबित हुई
है कि स्कूलों की गुणवत्ता सुनिश्चित कराने में स्कूल नेतृत्व की अहम भूमिका होती
है। इसके बावजूद बहुत सारे स्कूलों में या तो प्रधानाचार्य होते ही नहीं या उनकी
जगह तदर्थ प्रभारी होते हैं। यही बात अनेक जिलों के जिला शिक्षा प्रशिक्षण
संस्थानों यानी कि डाइट पर लागू होती है। बिना प्रधानाचार्य के डाइट दिशाहीन हो
जाते हैं।
हम शिक्षा नीति पर कितने भी
विमर्श कर लें,
इन बुनियादी मसलों को हल किए
बगैर और स्कूलों को अपने उद्देश्य में कामयाब होने लायक बनाए बगैर गुणवत्तापूर्ण तालीम की उम्मीद नहीं
पाल सकते। जहां एक तरफ देश के 25 फीसदी
स्कूली बच्चे बेहतर सुविधाओं से लैस हैं, यहां तक
कि एयर-कंडीशन स्कूलों में पढ़ते हैं, तो वहीं
दूसरी तरफ 75
फीसदी बच्चे स्कूलों की
बदइंतजामी का शिकार बनने को मजबूर हैं। इसी स्थिति को बदलने की जरूरत है।