Wednesday, June 5, 2019

विश्व पर्यावरण दिवस 2019: पर्यावरण को बचाने का लेना होगा संकल्प


प्रदूषण के मसले पर न तो कोई बड़ी बहस होती है और न ही नीति निर्माता इस पर पर्याप्त चिंता करते दिखाई पड़ते हैं। चुनावों में भी ये मुद्दे नदारद रहते हैं।

 

दुनिया भर में आज पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। इस बार पर्यावरण दिवस की थीम वायु प्रदूषण तय की गई है और यह शायद इसलिए है कि दुनिया में वायु प्रदूषण पहले दर्जे के प्रदूषण में पहुंच गया है। पहले हम पानी-मिट्टी-वनों को लेकर चिंतित थे, पर अब बिगड़ती हवा उनसे बड़ी चिंता बन गई है और आज यह सबसे बड़े संकट के रूप में हमारे बीच में है। इसका एक दूसरा बड़ा कारण भी है।
पानी तो हम कुछ समय के अंतराल पर पिएंगे और भोजन भी दिन में दो-तीन बार ही लेंगे, मगर सांस लेने के लिए वायु तो हर क्षण चाहिए। इसीलिए हमारे शास्त्रों में इसे जीवन से जोड़कर देखा गया और प्राण वायु की संज्ञा दी गई है। मतलब इसके बिना प्राण संभव नहीं। पर्यावरण के महत्व को समझने और समझाने का इससे बड़ा रास्ता और कोई नहीं हो सकता। मतलब इसके अभाव से बड़ा संकट और कुछ नहीं हो सकता।
हाल ही में प्रकाशित ग्लोबल एयर रपट ने इसका खुलासा किया है। इसके अनुसार दुनिया की 91 प्रतिशत आबादी वाय प्रदूषण से प्रभावित है। अगर ऐसा है तो बहुत सारे सवाल खड़े होने चाहिए। मसलन कारणों की पड़ताल, उपाय और बड़ी रणनीति पर विमर्श होना चाहिए। भारत तो वायु प्रदूषण का और भी बड़ा शिकार है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों की एक बड़ी संख्या भारत में ही है।
वायु मानकों के अनुसार हवा में प्रदूषण कण 80 पीएम के भीतर होने चाहिए, पर देश का शायद ही कोई शहर हो जहां सामान्य रूप से 150 से 200 पीएम तक प्रदूषण न हो। गुड़गांव, गाजियाबाद, फरीदाबाद, नोएडा, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जोधपुर, मुजफ्फरपुर, वाराणसी, मुरादाबाद और आगरा जैसे शहरों की स्थिति तो बहुत ही खराब है। यही हाल दुनिया के और तमाम बड़े शहरों का है।
आज दुनिया जिस विकास की दौड़ लगा रही है उसी में विनाश भी छिपा है। हमने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि हम न तो गर्मी बर्दाश्त कर पा रहे हैं और न ही ठंड। इनसे राहत पाने के लिए हमने जो साधन जुटाए वे और भी घातक सिद्ध हुए। मसलन एसी के ज्यादा उपयोग ने गर्मी-सर्दी को एक नया आयाम दे दिया। अधिक गर्मी के पीछे वायु प्रदूषण है और एसी या अन्य इस तरह की सुविधाएं वातावरण में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की मात्रा बढ़ाते हैं जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इससे प्रकृति का तापक्रम पर नियंत्रण खत्म हो जाता है फिर गर्मियों के दिन भट्टी की तरह सुलगते हैं और जाड़े फ्रिज की तरह व्यवहार करते हैं।
सड़कों पर गाड़ियों की बढ़ती तादाद भी हवा का मिजाज बिगाड़ रही है। आज लगभग एक अरब 35 करोड़ गाड़ियां दुनिया में धुआं उड़ेल रही हैं और वर्ष 2035 तक ये दो अरब हो जाएंगी। एक सामान्य गाड़ी साल में लगभग 4.7 मीट्रिक टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित करती है। एक लीटर डीजल की खपत से 2.68 किलो कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है पेट्रोल से यह मात्रा 2.31 किलो है। वहीं तमाम स्वच्छ ईंधनों की उपलब्धता के बावजूद आज भी लकड़ी और गोबर के उपले का इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि समय के साथ इनके उपयोग में कमी आई है, फिर भी दुनिया की लगभग आधी आबादी यानी 3.6 अरब लोग ऐसे ईंधन का प्रयोग कर रहे हैं। इसके अलावा निर्माण कार्य, पराली व प्लास्टिक को जलाने से भी प्रदूषण बहुत बढ़ा है। इन पर निश्चित रूप से लगाम लगानी होगी।
आज स्थिति यह हो चुकी है कि वायु प्रदूषण दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा रिस्क फैक्टर बन गया है। इसके कारण सांस की बीमारियां, हृदय रोग, फेफड़े के कैंसर और त्वचा जैसे रोग बढ़ रहे हैं। आज तमाम असाध्य बीमारियों की जड़ें वायु प्रदूषण से ही जुड़ी हैं। केवल वर्ष 2017 में ही 30 लाख लोग पीएम 2.5 के चलते काल के गाल में समा गए। इसके दुष्प्रभाव भी भारत और चीन में ही ज्यादा दिख रहे हैं। प्रदूषण के कारण बच्चों में अस्थमा और मानसिक विकार भी उत्पन्न हो रहे हैं।
प्रदूषण समय से पहले ही लोगों की जिंदगियां लील रहा है। प्रदूषण का बढ़ता प्रकोप शायद ही थमे, क्योंकि सुविधा और विलासिता की होड़ थमने वाली नहीं है। इसे तथाकथित विकास का प्रतीक भी मान लिया गया है। अमेरिका ने विलासिता के जो प्रतिमान बनाए हैं बाकी देश भी उन्हें हासिल करने की होड़ कर रहे हैं। ऐसे तथाकथित विकास में ऊर्जा की खपत बढ़ जाती है। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि दुनिया में 55 फीसद शहरी लोग 70 प्रतिशत ऊर्जा की खपत करते हैं।
विलासिता के नजदीक जाते-जाते हम कब प्रकृति से दूर होते गए, इसका हमें भान भी नहीं रहा। पहले हमने पानी को खोया जिसके विकल्प के रूप में हमने प्यूरीफायर और बोतलबंद पानी का व्यापारिक विकल्प तलाश लिया। आज देश पानी के बड़े संकट से गुजर रहा है। अब बारी हवा की है और अब हवा के डिब्बों का भी प्रचलन शुरू हो गया है। बीजिंग जैसे शहर में अब ऑक्सीजन बॉक्स बिकते हैं, क्योंकि वहां की हवा इस हद तक बदतर हो चुकी है कि कुछ ही घंटों में दमघोंटू स्थितियां पैदा हो जाती हैं। इस शहर में पहाड़ों की हवा बेची जाती है। कमोबेश यही हालात भारत के भी होने जा रहे हैं जहां दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर बसे हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दीवाली के बाद 1500 रुपये प्रति किलो की दर से पहाड़ों की हवा बेची गई।
अवसरवादी व्यावसायिकता ने इन परिस्थितियों का जमकर फायदा उठाया। मतलब अब एयर प्यूरीफायर भी धड़ल्ले से बिकने लगे हैं। दिल्ली में तमाम दफ्तरों की हवा अब प्यूरीफायर ही सुधार रहे हैं। कितनी बड़ी विडंबना है कि जीवन के साधन हवा और पानी दूषित होकर हमें मारने पर उतारू हो रहे हैं। अब स्वस्थ जिंदगी के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। अफसोस की बात है कोई आने वाले कल की तो छोड़िए आज की भी फिक्र करने को भी तैयार नहीं है। यह व्यापक खामोशी बहुत सालती है।
प्रदूषण के मसले पर न तो कोई बड़ी बहस होती है और न ही नीति निर्माता इस पर पर्याप्त चिंता करते दिखाई पड़ते हैं। चुनावों में भी ये मुद्दे नदारद रहते हैं। ऐसे में इस पर किसी सरकार को दोष भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि जनता को इसकी परवाह ही नहीं है। अगर हम अब भी नहीं चेते तो हालात और बिगड़ते जाएंगे। फिर एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम आवाज उठाने के लिए ही नहीं बचेंगे, क्योंकि तब तक दुनिया गैर चैंबर बन चुकी होगी। ऐसे में हमें दुनिया और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की खातिर पर्यावरण बचाने का संकल्प लेना ही होगा।

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