07 जून
1857 को लियाकत अली ने लोगों के साथ मिलकर
शहर कोतवाली में हरा झंडा फहरा कर इलाहाबाद को अंग्रेजों से आजाद करा दिया था। उस
समय अंग्रेजों के साथ विद्रोहियों की जंग खुशरूबाग से लेकर किले तक चली। मजबूरी
में अंग्रेजों को कचहरी में रखे 40 लाख
रुपए छोड़कर भागना पड़ा।7
जून 1957 को शहर
की कोतवाली पर क्रांति का हरा झंडा फहराने लगा । नगर में जुलूस निकाला जाने लगा और
आसपास के गांवो समेत हर जगह बगावत का बिगुल बज गया। उस समय की हालत को सर जान कुछ
इस तरह से लिखते हैं-इलाहाबाद में न केवल गंगापार बल्कि द्वाबा क्षेत्र की ग्रामीण
जनता ने विद्रोह कर दिया। कोई मनुष्य नहीं बचा था जो हमारे खिलाफ न हो।इलाहाबाद
में क्रांति की खबर पाने के बाद अंग्रेजों ने 11 जून को कर्नल नील जैसे क्रूर अधिकारी
को दमन के लिए इलाहाबाद रवाना किया । नील ने इलाहाबाद किले से मोरचा संभाला। उसकी
सेना काफी बड़ी थी जिसमें अधिकतर गोरे, सिख तथा मद्रासी सिपाही थे। 12 जून को
नील ने दारागंज के नाव के पुल पर कब्जा किया जबकि 13 जून को झूसी में भी क्रांति दबा दी
गयी। 15 जून को
मुट्ठीगंज और कीटगंज पर अधिकार करने के बाद 17 जून को खुशरोबाग भी अंग्रेजों के हाथ
लग गया।17 जून को
ही माजिस्ट्रेट एम. एच. कोर्ट
ने कोतवाली पर फिर से कब्जा जमा लिया। 18 जून का दिन इलाहाबाद ही नहीं भारतीय
क्रांतिकारिओं के लिए काले दिन सा रहा। इस रोज छावनी, दरियाबाद, सैदाबाद, तथा
रसूलपुर में क्रांतिकरिओं को भारी यातनाएं दी गयीं। 18 जून को
इलाहाबाद पर अंग्रेजो का दोबारा अधिकार हो गया। चौक जीटी रोड पर नीम के पेड़ पर
नील ने 800 निरीह
लोगों को फांसी पर लटका दिया। जो लोग शहर छोड़ कर नावो से भाग रहे थे उनको भी गोली
मार दी गयी। आसपास के गांवो में विकराल अग्निकांड हुए। खुद जार्ज केम्पवेल ने नील
के कारनामों की निंदा करते हुए कहा-इलाहाबाद में नील ने जो कुछ किया वह कत्लेआम से
बढ़ कर था। ऐसी यातनाएं भारतवासियों को कभी किसी ने नहीं दी। इलाहाबाद के ही
निवासी और जानेमाने इतिहासकार व राजनेता स्व।विश्वंभरनाथ पांडेय लिखते हैं-हर
संदिग्ध को गिरफ्तार कर उसे कठोर दंड दिया गया। नील ने जो नरसंहार किया ,उसके
आगे जालियांवाला बाग भी कम था। केवल तीन घंटे चालीस मिनट में कोतवाली के पास नीम
के पेड़ पर ही 634 लोगों
को फांसी दी गयी। सैनिको ने जिस पर शक किया ,उसे गोली से उड़ा दिया गया। चारों तरफ
भारी तबाही मची थी।नील क्रांतिकारिओं को एक गाड़ी में बिठा कर किसी पेड़ के नीचे
ले जाया जाता था और उनकी गर्दन में फांसी का फंदा डाल दिया जाता था फिर गाड़ी हटा
ली जाती थी। इलाहाबाद के नरसंहार में औरतों, बूढे लोगों और बच्चों तक को मारा गया।
जिन्हे फांसी दी गयी उनकी लाशें कई रोज पेड़ पर लटकी रहीं । सिविल लाइंस एरिया में आठ गाव बसे
थे, जिसे अंग्रेजों ने पूरी तरह से खत्म कर
दिया। चौक स्थित नीम के पेड़ के साथ ही आस पास के पेड़ों ने सभी लोगों को घरों से
निकाल-निकाल कर फांसी दी गई। जो फांसी देखने आए थे, उन्हें भी नहीं छोड़ा गया। इस बारे में कर्नल हैरलाक ने भी लिखा है।
इसके बाद ही कर्नल नील के खिलाफ ब्रिटेन में मुकदमा भी चलाया गया था। 1857 में शहर में चल रहे जन विद्रोह में एक
और क्रांतीकारी हनुमान पंडित का नाम आता है। उनसे अंग्रेज सरकार इतना डरती थी, कि हनुमान पंडित को अंग्रेज शैतान कहते
थे और उनके जिंदा या मुर्दा पकड़े जाने पर उस समय 500 रुपए इनाम रखा गया था। उधर सालों बाद मौलवी लियाकत अली को अंग्रेजों
ने मुम्बई में गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया। बाद में उन्हें काला पानी भेज दिया
गया। मौलवी लियाकत अली असाधारण योग्यता व क्षमतावाले व्यक्ति थे। उन्होने मजबूत
व्यूहरचना के साथ इलाहाबाद किले पर कव्जा करने का प्रयास भी किया था पर सफल नहीं
हुए। महान मुगल सम्राट अक़बर ने 1583 में
संगम तट पर जो किला बनवाया था,संयोग
देखिए, वह 1857 में
अंग्रेजों का सबसे मजबूत ठिकाना साबित हुआ । यह किला 1798 में अवध
के नवाब ने अंग्रेजों को सौंपा था। अंग्रेजों ने किले को अपना शस्त्रागार और सैनिक
केन्द्र बनाया । अगर यह किला बागियों के हाथ आ गया होता तो शायद इलाहाबाद ही नहीं
अवध की क्रांति का एक नया इतिहास लिखा जाता । पर होना कुछ और ही था ।