लॉर्ड
कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने
के दौरान ही 1857 ई. की महान् क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का
आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल
गया। इस क्रान्ति की शुरुआत तो एक सैन्य विद्रोह के रूप में हुई, परन्तु कालान्तर में उसका स्वरूप बदल कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एक
जनव्यापी विद्रोह के रूप में हो गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। 1857
ई. की इस महान् क्रान्ति के स्वरूप को लेकर विद्धान एक मत नहीं है।
इस बारे में विद्वानों ने अपने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं, जो इस प्रकार हैं-'सिपाही विद्रोह', 'स्वतन्त्रता संग्राम', 'सामन्तवादी प्रतिक्रिया',
'जनक्रान्ति', 'राष्ट्रीय विद्रोह', 'मुस्लिम षडयंत्र', 'ईसाई
धर्म के विरुद्ध एक धर्म युद्ध' और 'सभ्यता एवं बर्बरता का संघर्ष' आदि।
क्रान्ति के कारण
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और
निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम
बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ
हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये
गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर
दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह
अंग्रेज़ों के हाथों में रहा। 1833 के चार्टर एक्ट के विपरीत ऊँचे पदों पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया गया। भाप से चलने
वाले जहाज़ों और रेलगाड़ियों का प्रचलन, ईसाई मिशनरियों
द्वारा आक्षेपजनक रीति से ईसाई धर्म का प्रचार, लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा ज़ब्ती का सिद्धांत लागू करके अथवा कुशासन के आधार पर कुछ पुरानी
देशी रियासतों की ज़ब्ती तथा ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सिपाहियों की शिकायतें;
इन सब कारणों ने मिलकर सारे भारत में एक गहरे असंतोष की आग धधका दी,
जो 1857-58 ई. में क्रांति के रूप में भड़क
उठी। 1857 ई. की क्रान्ति कोई अचानक भड़का हुआ विद्रोह नहीं
था, वरन् इसके साथ अनेक आधारभूत कारण थे, जो निम्नलिखित हैं-
- राजनीतिक
कारण
- आर्थिक
कारण
- धार्मिक
कारण
- सामाजिक
कारण
- सैनिक
असन्तोष
राजनीतिक कारण
राजनीतिक कारणों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण के रूप में लॉर्ड डलहौज़ी की 'गोद निषेध प्रथा' या 'हड़प नीति' को माना जाता है। डलहौज़ी ने अपनी इस
नीति के अन्तर्गत सतारा, नागपुर, सम्भलपुर, झांसी तथा बरार आदि राज्यों पर अधिकार कर लिया था, जिसके
परिणामस्वरूप इन राजवंशों में अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ असन्तोष व्याप्त हो गया। कुशासन के आधार पर डलहौज़ी ने हैदराबाद तथा अवध को अंग्रेज़ी
साम्राज्य के अधीन कर लिया, जबकि इन स्थानों पर कुशासन
फैलाने के ज़िम्मेदार स्वयं अंग्रेज़ ही थे। अवध के अधिग्रहण की ज़बरदस्त
प्रतिक्रिया हुई। उस समय ईस्ट इण्डिया
कम्पनी में अवध के 7500 सिपाही
थे। अवध को एक चीफ़ कमिश्नर का क्षेत्र बना दिया गया। हेनरी लॉरेन्स पहला चीफ़
कमीश्नर नियुक्त हुआ था। पंजाब और सिंध का विलय भी अंग्रेज़ी हुकूमत ने कूटनीति के द्वारा अंग्रेज़ी साम्राज्य
में कर लिया, जो कालान्तर में विद्रोह का एक कारण बना।
पेंशनों एवं पदों की समाप्ति से भी अनेक राजाओं में असन्तोष व्याप्त था।
उदाहरणार्थ- नाना साहब को मिलने वाली पेंशन को डलहौज़ी ने अपनी नवीन नीति के द्वारा बन्द करवा
दिया। मुग़ल सम्राट को 'राजा' माना जाएगा
तथा उन्हें लाल क़िला छोड़कर कुतुबमीनार के समीप किसी अन्य क़िले में स्थान्तरित होना पड़ेगा। इसके अलावा सिक्कों
से बहादुर शाह ज़फ़र का नाम हटा दिया गया, जिससे जनता क्षुब्ध हो गई।
कुलीनवर्गीय भारतीय तथा ज़मींदारों के साथ अंग्रेज़ों ने बुरा
व्यवहार किया और उन्हें मिले समस्त विशेषाधिकारों को कम्पनी की सत्ता ने छीन लिया।
ऐसी परिस्थिति में इस वर्ग के लोगों के असन्तोष का सामना भी ब्रिटिश सत्ता को करना
पड़ा। भारतीय सरकारी कर्मचारियों ने अंग्रेज़ों द्वारा सरकारी नौकरियों में अपनायी
जाने वाली भेदभावपूर्ण नीति का विरोध करते हुए विद्रोह में सिरकत की। कुल मिलाकर
भारतीय जनता अंग्रेज़ों के बर्बर प्रशासन से तंग आकर उनकी दासता से मुक्त होना
चाहती थी, इसलिए 1857 की क्रांति हुई।
आर्थिक कारण
1857 ई. की क्रान्ति के लिए ज़िम्मेदार आर्थिक कारण
इस प्रकार हैं- भारतीयों के धन का निष्कासन तीव्र गति से इंग्लैण्ड की ओर हुआ। मुक्त व्यापार तथा अंग्रेज़ी वस्त्रों के भारत के बाज़ारों में अधिक मात्रा में आ जाने के कारण उसका प्रत्यक्ष प्रभाव
यहाँ के कुटीर उद्योगों पर पड़ा, जिस कारण से यहाँ के कुटीर
एवं लघु उद्योग नष्ट हो गये। लाखों व्यक्ति बेरोज़गार हो गए। 1834-1835 ई. में स्वयं गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम
बैंटिक ने लिखा था कि, 'व्यापार
के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा कष्टप्रद उदाहरण नहीं। भारत का मैदान सूती कपड़ा
बुनने वालों के अस्थि पंजरों से भरा हुआ है'। लॉर्ड विलियम
बैंटिक ने अपने शासनकाल में बहुत-सी 'माफी' (दान की हुई भूमि) तथा 'इनाम की भूमि' को छीन लिया, जिसका प्रभाव यह हुआ कि, अनेक भारतीय ज़मींदार दरिद्र एवं कंगाल हो गए और इस तरह इन ज़मींदारों में
अंग्रेज़ी सत्ता के ख़िलाफ़ असन्तोष व्याप्त हो गया। कृषि के क्षेत्र में अंग्रेज़ों की ग़लत नीति के कारण भारतीय किसानों की स्थिति
अत्यन्त दयनीय हो गई। अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित स्थाई बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी
व्यवस्था के लिए प्रतिकूल साबित हुआ।
धार्मिक कारण
कहने के लिए तो ब्रिटिश सत्ता धर्म के मामले में तटस्थ थी, पर उसने ईसाई धर्म के प्रचार में अपना पूर्ण सहयोग दिया। ईसाई मिशनरियों का दृष्टिकोण भारत
के प्रति बड़ा तिरस्कारपूर्ण था। उसका एक मात्र उद्देश्य भारत में अपनी सर्वोच्चता
प्रदर्शित करना था। अंग्रेज़ अपनी नीति के अनुसार अधिकांश भारतीयों को ईसाई बनाकर
भारत में अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करना चाहते थे। यह तथ्य कम्पनी के अध्यक्ष 'मैगल्ज' के 'हाउस ऑफ़ कॉमन्स'
में दिये गये एक भाषण से स्पष्ट होता है। उसने कहा था कि,
"देवयोग से भारत का विस्तृत साम्राज्य ब्रिटेन को मिला है,
ताकि ईसाई धर्म की पताका एक छोर से दूसरे छोर तक फहरा सके। प्रत्येक
व्यक्ति को शीघ्र-अतिशीघ्र समस्त भारतीयों को ईसाई बनाने के महान् कार्य को
पूर्णतया सम्पन्न करने में अपनी समस्त शक्ति लगा देनी चहिए।" वे ईसाई धर्म
स्वीकार करने वालों को सरकारी नौकरी, उच्च पद एवं अनेक
सुविधाएँ प्रदान करते थे। 1813 ई के कम्पनी के आदेश पत्र
द्वारा ईसाई पादरियों को आज्ञा प्राप्त करके भारत आने की सुविधा प्राप्त हो गयी।
परिणामतः बड़ी संख्या में ईसाई पादरी भारत आए, जिनका मुख्य
उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था। परिणामतः 1850 ई. में
पास किये गये 'धार्मिक नियोग्यता अधिनियम' द्वारा हिन्दू रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाया गया, अर्थात्
धार्मिक परिवर्तन से पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। इस क़ानून का मुख्य लाभ ईसाई
बनने वालों का था। अंग्रेज़ों की इस नीति ने हिन्दू और मुसलमान दोनों में कम्पनी के प्रति संदेह उत्पन्न कर दिया।
सामाजिक कारण
अंग्रेज़ों की अनेक नीतियाँ तथा कार्य ऐसे थे, जिनसे भारतीयों में असन्तोष की भावना जन्म लेने लगी थी। अंग्रेज़ों को
अपनी 'श्वेत चमड़ी' पर बड़ा नाज था और
वे भारतीयों को 'काली चमड़ी' कहकर उनका
उपहास किया करते थे। विलियम बैंटिक ने अपने शासनकाल में सती प्रथा, बाल हत्या, नर हत्या आदि पर प्रतिबन्ध लगाकर तथा
डलहौज़ी ने विधवा विवाह को मान्यता देकर रूढ़िवादी भारतीयों में असन्तोष भर दिया।
अंग्रेज़ों द्वारा रेल, डाक एवं तार क्षेत्र में किये गये
कार्यों को भारतीयों में मात्र ईसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बनाने के कारण अंग्रेज़ों के प्रति उनके मन में विद्रोही भावना भड़क उठी। शिक्षा के क्षेत्र में
अंग्रेज़ों ने पाश्चात्य सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास पर अधिक ध्यान दिया। ऐसे समय में भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा एवं साहित्य के विकास के क्षेत्र में
कम्पनी द्वारा कोई विशेष परिवर्तन न किये जाने के कारण भारतीय बौद्धिक वर्ग
अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गया। अंग्रेज़ों द्वारा लगान वसूली एवं विद्रोह को
कुचलने के समय भारतीयों को कठोर शारीरिक दण्ड एवं यातनायें दी गईं, जिससे उनके अन्दर ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ घृणा एवं द्वेष की भावना भर
गई।
सैनिक असन्तोष
1857 ई. की क्रान्ति में सैन्य असन्तोष की भूमिका
को नकारा नहीं जा सकता। सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई.
में वेल्लोर में तब हुआ था,
जब लॉर्ड
विलियम बैंटिक द्वारा माथे पर तिलक लगाने और पकड़ी पहनने पर रोक लगायी गई। लॉर्ड
डलहौज़ी के समय सैनिक विद्रोह हो चुके थे। 1849 ई. में 22वें एन. आई का विद्रोह, 1850 ई. में 66वें एन.आई. का विद्रोह और 1852 ई. में 38 वें एन.आई. का विद्रोह प्रमुख थे। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के अनुसार, "अवध के विलय ने सेना में
साधारणतः और बंगाल सेना में विशेषतः
विद्रोही भावना का संचार किया"। 1824 ई. में बैरकपुर में सैनिकों ने समुद्र
पार जाने से इनकार कर दिया, जिसके कारण बर्मा रेजीमेण्ट को
भंग कर दिया गया था। 1857 ई. में लॉर्ड
कैनिंग द्वारा पारित 'सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम' के अंतर्गत सैनिकों को सरकार जहाँ चाहे वहीं कार्य करवा सकती थी। 1854
ई. के 'डाकघर अधिनियम' में
सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त हो गयी। सैन्य असंतोष के इसी वातावरण में
चर्बीयुक्त एनफ़ील्ड राइफ़लों के प्रयोग के आदेश ने आग में घी का कार्य किया और ये सैनिकों के विद्रोह
के लिए तात्कालिक कारण सिद्ध हुआ।
29 मार्च, 1857 ई. को मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक ने 'बैरकपुर छावनी' में अपने अफ़सरों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, लेकिन
ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सैनिक विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और
साथ ही उसकी बटालियम '34 एन.आई.' को
भंग कर दिया। 24 अप्रैल को 3 एल.सी.
परेड मेरठ में 90 घुड़सवारों में से 85 सैनिकों
ने नये कारतूस लेने से इंकार कर दिया। आज्ञा की अवहेलना के कारण इन 85 घुडसवारों को कोर्ट मार्शल द्वारा 5 वर्ष का कारावास
दिया गया। 'खुला विद्रोह' 10 मई,
दिन रविवार को सांयकाल 5 व 6 बजे के मध्य प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम पैदल टुकड़ी '20 एन.आई.' में विद्रोह की शुरुआत हुई, तत्पश्चात् '3 एल.सी.' में भी
विद्रोह फैल गया। इन विद्रोहियों ने अपने अधिकारियों के ऊपर गोलियाँ चलाई। मंगल
पाण्डे ने 'हियरसे' को गोली मारी थी,
जबकि 'अफ़सर बाग' की
हत्या कर दी गई थी।
विद्रोह का प्रसार
11 मई को मेरठ के क्रान्तिकारी सैनिकों ने दिल्ली पहुँचकर, 12 मई को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इन
सैनिकों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह द्वितीयको दिल्ली का सम्राट घोषित कर दिया। शीघ्र ही विद्रोह लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, बनारस, बिहार तथा झांसी में भी फैल गया। अंग्रेज़ों ने पंजाब से सेना बुलाकर सबसे पहले दिल्ली पर अधिकार किया। 21 सितम्बर, 1857 ई. को दिल्ली पर अंग्रेज़ों ने पुनः
अधिकार कर लिया, परन्तु संघर्ष में 'जॉन
निकोलसन' मारा गया और लेफ्टिनेंट 'हडसन'
ने धोखे से बहादुरशाह द्वितीय के दो पुत्रों 'मिर्ज़ा
मुग़ल' और 'मिर्ज़ा ख्वाज़ा सुल्तान'
एवं एक पोते 'मिर्ज़ा अबूबक्र' को गोली मरवा दी। लखनऊ में विद्रोह की शुरुआत 4 जून,
1857 ई. को हुई। यहाँ के क्रान्तिकारी सैनिकों द्वारा ब्रिटिश
रेजीडेन्सी के घेराव के उपरान्त ब्रिटिश रेजिडेंट 'हेनरी
लॉरेन्स' की मृत्यु हो गई। हैवलॉक और आउट्रम ने लखनऊ को
दबाने का भरकस प्रयत्न किया, परन्तु वे असफल रहे। अन्ततः
कॉलिन कैम्पवेल' ने गोरखा रेजिमेंट के सहयोग से मार्च, 1858 ई. में शहर पर
अधिकार कर लिया। वैसे यहाँ क्रान्ति का प्रभाव सितम्बर तक रहा।
लक्ष्मीबाई
5 जून, 1857 ई. को
क्रान्तिकारियों ने कानपुर को अंग्रेज़ों से छीन लिया। नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया, जिनका वास्तविक नाम 'धोंदू पन्त' था। तात्या टोपे ने इनका सहयोग किया। यहाँ पर विद्रोह का प्रभाव 6 सितम्बर
तक ही रहा। कॉलिन कैम्पवेल के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने 6 सितम्बर, 1857 ई. को कानपुर को पुनः अपने क़ब्ज़े
में कर लिया। तात्या टोपे कानपुर से फरार होकर झांसी पहुँच गये। रानी लक्ष्मीबाई,
जो गंगाधर राव की विधवा थीं, वे भी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को
झांसी की गद्दी न दिए जाने के कारण अंग्रेज़ों से नाराज़ थीं। तात्या टोपे के
सहयोग से रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाये। इन दोनों ने ग्वालियर पर भी क्रान्ति का झण्डा फहराया और वहाँ के तत्कालीन शासक सिंधिया द्वारा
विद्रोह में भाग लेने पर रानी ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया, परन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने जून, 1858 ई. में
ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। झांसी पर अंग्रेज़ी सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में 3
अप्रैल, 1858 ई. को अधिकार कर लिया। ह्यूरोज
ने रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर कहा कि, भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है।
बरेली में 'ख़ान बहादुर ख़ाँ' ने स्वयं
को नवाब घोषित किया। बिहार में जगदीशपुर के ज़मींदार 'कुंअर सिंह' ने बिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह का झण्डा फहराया। बनारस में हुए विद्रोह को कर्नल नील ने दबाया। जगदीशपुर के विद्रोह को अंग्रेज़ अधिकारी विलियम टेलर एवं मेजर विंसेट आयर ने दबाया।
बहादुरशाह ज़फ़र की गिरफ्तारी
जुलाई, 1858 ई. तक क्रान्ति के सभी स्थानों पर विद्रोह को
दबा दिया गया। रानी लक्ष्मीबाई एवं तात्या टोपे ने विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
इलाहाबाद की कमान 'मौलवी लियाकत अली' ने
सम्भाली थी। कर्नल नील ने यहाँ के विद्रोह को समाप्त कर दिया। 20 सितम्बर, 1857 ई. को हुमायुँ के मक़बरे में शरण लिए हुए बहादुरशाह द्वितीय को पकड़ लिया गया। उन पर मुकदमा चला तथा उन्हें बर्मा (रंगून) निर्वासित कर दिया गया।
क्रान्ति की असफलता के कारण
1857 ई. की क्रान्ति की असफलता के प्रमुख कारण
निम्नलिखि हैं-
- यह
विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रास की सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का
पूरा समर्थन किया। अंग्रेज़ों को नेपाल की सहायता बहुत लाभप्रद सिद्ध हुई। अफ़ग़ानिस्तान का दोस्त मुहम्मद भी मित्रवत बना रहा। राजस्थान में कोटा एवं अलवर के अतिरिक्त शेष स्थानों पर विद्रोह का कोई प्रभाव नहीं था। सिन्ध भी पूर्णतया शान्त था। पंजाब के सिक्ख सरदार, कश्मीर के गुलाब सिंह, ग्वालियर के सिन्धिया और उनके मंत्री दिनकर राव, हैदराबाद के सलारजंग, भोपालकी बेगम, नेपाल का एक मंत्री सर जंगबहादुर,
अंग्रेज़ों के स्वामी भक्त रहे। इसी पर लॉर्ड कैनिंग ने टिप्पणी की थी कि, "इन शासकों एवं
सरदारों ने तरंग रोधकों का कार्य किया, अन्यथा इसने
हमें एक झोंके में ही बहा दिया होता"।
- अच्छे
साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के
समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए। नाना साहब ने तो एक बार कहा था
कि,
"यह नीली टोपी वाली राईफ़ल तो गोली चलने से पहले मार देती
है"।
- 1857
ई. के इस विद्रोह के प्रति 'शिक्षित वर्ग'
पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस
वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता,
तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही
होता।
- इस
विद्रोह में 'राष्ट्रीय भावना' का पूणतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल
सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने
विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड
कैनिंग ने कहा था कि, "यदि सिन्धिया भी विद्रोह
में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा"। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को
पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले।
- विद्रोहियों
में अनुभव,
संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी।
- सैनिक
दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह
ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य
नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के
पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक,
आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे।
- क्रान्तिकारियों
के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं
कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों
में आवश्यकता थी।
- विद्रोही
क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले
क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित
नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे।
- आवागमन
एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी
सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल
करने में सहयोग दिया।
परिणाम
1857 ई. की इस महान्
क्रान्ति के विद्रोह के दूरगामी परिणाम रहे, जो निम्नलिखित
हैं-
- विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक
क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा
अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858
ई. के अधिनियम के तहत एक 'भारतीय राज्य
सचिव' की व्यवस्था की गयी, जिसकी
सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक 'मंत्रणा
परिषद्' बनाई गयी। इन 15 सदस्यों
में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की 'कोर्ट ऑफ़ हाइरेक्टर्स' द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
- स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को
पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी
ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी
प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की
अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का
अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के
नियुक्ति की बात की गयी।
- सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की
संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर
दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के
लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का
अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रसीडेन्सियों
में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में
से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
- 1858 ई. के अधिनियम के अन्तर्गत
ही भारत में गवर्नर-जनरल के
पदनाम में परिवर्ततन कर उसे 'वायसराय' का पदनाम दिया गया।
- क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी
ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामन्तवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को
दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
- विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय
एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर
पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन
में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
- 1857 ई. की क्रान्ति के बाद
साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु
इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
- भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के
क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861
ई. में 'भारतीय परिषद् अधिनियम' को पारित किया गया।
- इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 ई. के विद्रोह के अन्य परिणाम थे।