इस माह पहली मई को ब्रिटेन की संसद ने
एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए ‘पर्यावरण एवं जलवायु आपातकाल’ लागू
करने का प्रस्ताव पारित किया। इसके पहले वेल्स एवं स्कॉटलैंड ने भी इसी तरह के
आपातकाल की घोषणा की थी। यह अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था। इसने पूरी दुनिया
का ध्यान जलवायु परिवर्तन से होने वाले आसन्न कुप्रभावों की ओर आकृष्ट किया। इसने
भारतवासियों का ध्यान अधिक खींचा, क्योंकि ठीक उसी समय फणि
तूफान ओडिशा एवं अन्य पूर्वी तटीय इलाकों में तबाही मचा रहा था। जलवायु परिवर्तन
पिछले कई दशकों से दुनिया के लिए एक संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है। इस पर संयुक्त
राष्ट्र के साथ-साथ अन्य संस्थाओं की ओर से सम्मेलन और कार्यक्रम आयोजित होते रहे
हैं। इन दिनों ग्रेटा थुनबर्ग नाम की स्वीडन की एक किशोरी चर्चा में है। उसने
पर्यावरण सुरक्षा विषय पर संसद के सामने हजारों विद्यार्थियों के साथ प्रदर्शन
करके एक मिसाल कायम की। जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान के प्रति जागरूकता
जगाने एवं निदान खोजने हेतु इस प्रदर्शन ने सारी दुनिया का ध्यान खींचा और वह
ग्लोबल वामिर्ंग के विरुद्ध जन प्रदर्शन की प्रतीक बन गई।
ग्लोबल वार्मिग का ही नतीजा है जलवायु
परिवर्तन। 19वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति के बाद पृथ्वी की सतह और महासागरों के
औसत तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। इसका मुख्य कारण कारखानों के अलावा
मनुष्य के दैनिक क्रियाकलापों के कारण उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसें हैं।
भूमंडलीय वातावरण का तापमान एक स्वभाविक संतुलन प्रक्रिया से नियंत्रित होता है।
सूरज से आने वाली गर्मी अगर वातावरण में अवशोषित हो जाती है तो पृथ्वी की सतह का
तापमान बढ़ जाता है और यदि सूरज से आने वाली गर्मी पृथ्वी की सतह से परावर्तित
होकर पुन: वायुमंडल में वापस हो जाती है तो पृथ्वी का तापमान नहीं बढ़ता। यदि
तापमान स्थिर करना है तो वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्र नियंत्रित रखनी
होगी जिससे सौर उर्जा का अधिकतम परावर्तन हो जाए। अंधाधुंध उद्योगीकरण और जीवनशैली
के कारण बेहिसाब ग्रीनहाउस गैसों का निर्माण हो रहा है। आज उर्जा के प्रमुख स्रोत
के रूप में कोयला, प्राकृतिक तेल एवं गैस का उपयोग हो रहा
है। इस कारण कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन वायुमंडल में होता है। दूसरा कारण वनों
की कटाई है। वृक्ष वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं एवं ऑक्सीजन
छोड़ते हैं। वृक्षों की कटाई से यह संतुलन बिगड़ जाता है। आजकल प्रचलित बहुफसली
खेती के कारण भी वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्र बढ़ रही है। जानवरों के
द्वारा भी मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। इसके अलावा उर्वरकों एवं कीटनाशकों का
उपयोग भी पर्यावरण के लिए ठीक नहीं।
अपशिष्ट निपटान यानी वेस्ट डिस्पोजल भी
एक समस्या है। हमारे यहां अपशिष्ट प्रबंधन का तरीका सही न होने और कचरा जमा होने
या उसके जलाने से भी धरती की सतह एवं जलस्नोतों में मीथेन एवं अन्य दूसरे विषैली
गैसों की मात्र बढ़ती है। इसी प्रकार खनन संबंधी गतिविधियों से भी ग्रीनहाउस गैसों
का निर्माण होता है। धरती के बढ़ते तापमान से पूरी दुनिया के साथ भारत की चिंता भी
स्वाभाविक है। एक रपट में बताया गया है कि 19वीं शताब्दी की समाप्ति के बाद से
भूमंडल के तापमान में वृद्धि जारी है। यह तापमान अगर 1.5 डिग्री
सेंटीग्रेट तक बढ़ता है तो इसके घातक परिणाम होंगे। इससे मौसम चक्र प्रभावित होगा
और अनावृष्टि, बाढ़, चक्रवात आदि का
खतरा बढ़ जाएगा। अगर तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ा तो हालात और विनाशकारी
होंगे। ग्लोबल वार्मिग को रोकने के लिए 197 देशों ने पेरिस
समझौता किया था। समझौते के तहत 2100 तक पृथ्वी की सतह का
तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेट से अधिक नहीं बढ़ने देने का
संकल्प लिया गया था। भारत ने इस समझौते के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन अन्य विकासशील देशों की तरह भारत के सामने गरीबी हटाने की चुनौती
है। इस चुनौती का सामना आर्थिक विकास से ही संभव है जिससे हम समझौता नहीं कर सकते।
पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति के लिए मूल
रूप से विकसित देश जिम्मेदार हैं। सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उन्हीं
के द्वारा किया जा रहा है। केवल अमेरिका और चीन मिलकर 40 प्रतिशत ग्रीनहाउस
गैसों का उत्सर्जन करते हैं। न्यायसंगत यही होगा कि ग्लोबल वामिर्ंग के लिए जो
जितने बड़े कारक हैं उन्हें निवारण हेतु उतना ही आगे बढ़कर उदारता से योगदान करना
चाहिए। देखना है कि ब्रिटिश संसद का पर्यावरणीय आपातकाल संबंधी प्रस्ताव कितना
प्रभावी होता है? जलवायु परिवर्तन को एक आसन्न आपदा के रूप
में देखा जाना चाहिए और उससे निपटने के लिए असाधरण कदम भी उठाए जाने चाहिए।