जवाहरलाल नेहरू
14 नवंबर 1889 – 27 मई 1964
जवाहरलाल
नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे और स्वतन्त्रता के पूर्व और
पश्चात् की भारतीय राजनीति में केन्द्रीय व्यक्तित्व थे। महात्मा गांधी के संरक्षण में, वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे और
उन्होंने 1947 में
भारत के एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में स्थापना से लेकर 1964 तक अपने निधन तक, भारत का शासन किया। वे आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य – एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, और
लोकतान्त्रिक गणतन्त्र - के वास्तुकार मानें जाते हैं। कश्मीरी पण्डित समुदाय के साथ उनके मूल की वजह से वे पण्डित नेहरू भी बुलाएँ जाते थे, जबकि भारतीय बच्चे उन्हें चाचा नेहरू के रूप
में जानते हैं।
स्वतन्त्र भारत के प्रथम
प्रधानमन्त्री का पद सँभालने के लिए कांग्रेस द्वारा नेहरू निर्वाचित हुएँ, यद्यपि नेतृत्व का प्रश्न बहुत पहले 1941 में ही सुलझ चुका था, जब गांधीजी ने नेहरू को उनके राजनीतिक वारिस और उत्तराधिकारी
के रूप में अभिस्वीकार किया। प्रधानमन्त्री के रूप में, वे भारत के सपने को साकार करने के लिए चल पड़े। भारत का संविधान 1950 में अधिनियमित हुआ, जिसके बाद उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के एक महत्त्वाकांक्षी योजना की
शुरुआत की। मुख्यतः, एक
बहुवचनी, बहु-दलीय लोकतन्त्र को पोषित करते
हुएँ, उन्होंने भारत के एक उपनिवेश से
गणराज्य में परिवर्तन होने का पर्यवेक्षण किया। विदेश नीति में, भारत को दक्षिण एशिया में एक क्षेत्रीय नायक के रूप में
प्रदर्शित करते हुएँ, उन्होंने
गुट-निरपेक्ष आन्दोलन में एक अग्रणी भूमिका निभाई।
नेहरू के नेतृत्व में, कांग्रेस राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय चुनावों में प्रभुत्व
दिखाते हुएँ और 1951,
1957, और 1962 के लगातार चुनाव जीतते हुएँ, एक सर्व-ग्रहण पार्टी के रूप में उभरी। उनके अन्तिम वर्षों
में राजनीतिक मुसीबतों और 1962 के
चीनी-भारत युद्ध में उनके नेतृत्व की असफलता के बावजूद, वे भारत के लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहें। भारत में, उनका जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।
जवाहरलाल
नेहरू का जन्म 14 नवम्बर 1889 को ब्रिटिश
भारत में इलाहाबाद में हुआ।
उनके पिता, मोतीलाल
नेहरू (1861–1931), एक धनी बैरिस्टर जो कश्मीरी
पण्डित समुदाय से थे, स्वतन्त्रता
संग्राम के दौरान भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष चुने गए।
उनकी माता स्वरूपरानी थुस्सू (1868–1938), जो लाहौर में बसे
एक सुपरिचित कश्मीरी ब्राह्मण परिवार से थी, मोतीलाल
की दूसरी पत्नी थी व पहली पत्नी की प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी। जवाहरलाल तीन
बच्चों में से सबसे बड़े थे, जिनमें
बाकी दो लड़कियाँ थी। बड़ी बहन, विजया
लक्ष्मी, बाद में संयुक्त
राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनी. सबसे छोटी
बहन, कृष्णा
हठीसिंग, एक उल्लेखनीय लेखिका बनी और उन्होंने अपने परिवार-जनों से संबंधित कई
पुस्तकें लिखीं।
जवाहरलाल
नेहरू ने दुनिया के कुछ बेहतरीन स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की
थी। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा हैरो से और कॉलेज की शिक्षा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज (लंदन) से पूरी
की थी। इसके बाद उन्होंने अपनी लॉ की डिग्री कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय से पूरी की। इंग्लैंड में उन्होंने
सात साल व्यतीत किए जिसमें वहां के फैबियन समाजवाद और आयरिश राष्ट्रवाद के लिए एक
तर्कसंगत दृष्टिकोण विकसित किया।
जवाहरलाल
नेहरू 1912 में भारत लौटे और
वकालत शुरू की। 1916 में उनकी
शादी कमला
नेहरू से हुई। 1917 में जवाहर
लाल नेहरू होम रुल
लीग में शामिल हो गए। राजनीति में उनकी
असली दीक्षा दो साल बाद 1919 में हुई
जब वे महात्मा
गांधी के संपर्क में आए। उस समय महात्मा गांधी ने रॉलेट
अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था।
नेहरू, महात्मा गांधी के सक्रिय लेकिन शांतिपूर्ण, सविनय
अवज्ञा आंदोलन के प्रति खासे आकर्षित हुए।
नेहरू ने महात्मा
गांधी के उपदेशों के अनुसार अपने परिवार को भी ढाल लिया। जवाहरलाल और मोतीलाल
नेहरू ने पश्चिमी कपडों और महंगी संपत्ति का त्याग कर दिया। वे अब एक खादी कुर्ता
और गाँधी टोपी पहनने लगे। जवाहर लाल नेहरू ने 1920-1922 में असहयोग
आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लिया और इस दौरान पहली बार गिरफ्तार किए गए। कुछ महीनों
के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।
जवाहरलाल
नेहरू 1924 में इलाहाबाद नगर निगम
के अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने शहर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में दो
वर्ष तक सेवा की। 1926 में
उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों से सहयोग की कमी का हवाला देकर इस्तीफा दे दिया।
1926 से 1928 तक, जवाहर लाल नेहरू ने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के
महासचिव के रूप में सेवा की। 1928-29 में, कांग्रेस के वार्षिक सत्र का आयोजन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया
गया। उस सत्र में जवाहरलाल नेहरू और सुभाष
चन्द्र बोस ने पूरी राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग
का समर्थन किया, जबकि मोतीलाल नेहरू और अन्य नेताओं ने
ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही प्रभुत्व सम्पन्न राज्य का दर्जा पाने की मांग का
समर्थन किया। मुद्दे को हल करने के लिए, गांधी ने
बीच का रास्ता निकाला और कहा कि ब्रिटेन को भारत के राज्य का दर्जा देने के लिए दो
साल का समय दिया जाएगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता
के लिए एक राष्ट्रीय संघर्ष शुरू करेगी। नेहरू और बोस ने मांग की कि इस समय को कम
कर के एक साल कर दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
दिसम्बर 1929 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में
आयोजित किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुने गए। इसी
सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग
की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में जवाहरलाल नेहरू ने
स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया। गांधी जी ने भी 1930 में सविनय
अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। आंदोलन खासा सफल रहा
और इसने ब्रिटिश सरकार को प्रमुख राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को स्वीकार करने के
लिए मजबूर कर दिया।
जब
ब्रिटिश सरकार ने भारत
अधिनियम 1935 प्रख्यापित
किया तब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। नेहरू चुनाव के बाहर रहे
लेकिन ज़ोरों के साथ पार्टी के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया। कांग्रेस ने लगभग
हर प्रांत में सरकारों का गठन किया और केन्द्रीय असेंबली में सबसे ज्यादा सीटों पर
जीत हासिल की।
नेहरू
कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए 1936 और 1937 में चुने गए थे। उन्हें 1942 में भारत
छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार भी किया गया और 1945 में छोड़ दिया गया। 1947 में भारत
और पाकिस्तान की आजादी के समय उन्होंने अंग्रेजी सरकार के साथ हुई वार्ताओं में
महत्त्वपूर्ण भागीदारी की।
भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री
सन् 1947 में भारत को आजादी मिलने पर जब भावी प्रधानमन्त्री के लिये कांग्रेस में मतदान हुआ
तो तो सरदार
पटेल को सर्वाधिक मत मिले। उसके बाद सर्वाधिक मत आचार्य
कृपलानी को मिले थे। किन्तु गांधीजी के कहने पर
सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और जवाहरलाल नेहरू को
प्रधानमन्त्री बनाया गया।
1947 में वे
स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री बने। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उस वक्त सबसे बडी चुनौती थी
उन्हें एक झंडे के नीचे लाना। उन्होंने भारत के पुनर्गठन के रास्ते में उभरी हर
चुनौती का समझदारी पूर्वक सामना किया। जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने योजना
आयोग का गठन किया, विज्ञान
और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का
शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु
हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभायी।
जवाहर लाल
नेहरू ने जोसिप
बरोज़ टिटो और अब्दुल गमाल नासिर के साथ
मिलकर एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद के खात्मे के लिए एक गुट
निरपेक्ष आंदोलन की रचना की। वह कोरियाई
युद्ध का अंत करने, स्वेज नहर विवाद
सुलझाने और कांगो समझौते को मूर्तरूप देने जैसे अन्य अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के
समाधान में मध्यस्थ की भूमिका में रहे। पश्चिम बर्लिन, ऑस्ट्रिया और लाओस के जैसे कई अन्य विस्फोटक मुद्दों के समाधान में पर्दे
के पीछे रह कर भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्हें वर्ष 1955 में भारत रत्न से
सम्मानित किया गया।
लेकिन
नेहरू पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के संबंधों में सुधार नहीं कर पाए। पाकिस्तान
के साथ एक समझौते तक पहुँचने में कश्मीर मुद्दा और चीन के साथ मित्रता में सीमा
विवाद रास्ते के पत्थर साबित हुए। नेहरू ने चीन की तरफ मित्रता का हाथ भी बढाया, लेकिन 1962 में चीन ने धोखे से आक्रमण कर दिया।
नेहरू के लिए यह एक बड़ा झटका था और शायद उनकी मौत भी इसी कारण हुई। 27 मई 1964 को जवाहरलाल नेहरू को दिल का दौरा पड़ा
जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी।
बहुत से
लोगों का विचार है कि नेहरू ने अन्य नेताओं की तुलना में भारत के स्वतन्त्रता
संग्राम में बहुत कम योगदान दिया था फिर भी गांधीजी ने उन्हे भारत का प्रथम प्रधानमन्त्री बना दिया। स्वतंत्रता के बाद कई दशकों
तक भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के सूत्रधारों ने प्रकारान्तर से देश में राजतंत्र चलाया, विचारधारा
के स्थान पर व्यक्ति पूजा को प्रतिष्ठित किया और तथाकथित
लोकप्रियता के प्रभामंडल से आवेष्टित रह लोकहित की पूर्णत: उपेक्षा की।
नेहरू को महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर जाना
जाता है। गांधी पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने राजनीति में नेहरू को आगे
बढ़ाने का काम सरदार वल्लभभाई पटेल समेत कई सक्षम नेताओं की कीमत पर
किया। जब आजादी के ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात थी और माना जा रहा था कि
जो कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा वही आजाद भारत का पहला प्रधानमन्त्री होगा तब भी गांधी
ने प्रदेश कांग्रेस समितियों की सिफारिशों को अनदेखा करते हुए नेहरू को ही अध्यक्ष
बनाने की दिशा में सफलतापूर्वक प्रयास किया। इससे एक आम धारणा यह बनती है कि नेहरू
ने न सिर्फ महात्मा गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया होगा बल्कि
उन्होंने उन कार्यों को भी पूरा करने की दिशा में अपनी पूरी कोशिश की होगी जिन्हें
खुद गांधी नहीं पूरा कर पाए। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। यह बात कोई और नहीं बल्कि
कभी नेहरू के साथ एक टीम के तौर पर काम करने वाले जयप्रकाश नारायण ने 1978 में आई पुस्तक ‘गांधी
टूडे’ की भूमिका में कही थी। जेपी ने नेहरू
के बारे में कुछ कहा है तो उसकी विश्वसनीयता को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए
क्योंकि नेहरू से जेपी की नजदीकी भी थी और मित्रता भी। लेकिन इसके बावजूद जेपी ने
नेहरू माॅडल की खामियों को उजागर किया।
अप्रैल 2015 में यह भी खुलासा
हुआ कि स्वतंत्रता के बाद नेहरू ने बीस वर्षों तक आईबी द्वारा नेताजी के सम्बन्धियों की जासूसी करायी।
समस्त
राजनीतिक विवादों से दूर नेहरू जी निःसंदेह एक उत्तम लेखक थे। राजनीतिक क्षेत्र
में लोकमान्य
तिलक के बाद जम कर लिखने वाले नेताओं में वे अलग से पहचाने जाते हैं। दोनों के
क्षेत्र अलग हैं, परंतु
दोनों के लेखन में सुसंबद्धता पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है।
नेहरू जी
स्वभाव से ही स्वाध्यायी थे। उन्होंने महान्
ग्रंथों का अध्ययन किया था। सभी राजनैतिक उत्तेजनाओं के बावजूद वे स्वाध्याय के
लिए रोज ही समय निकाल लिया करते थे। परिणामस्वरूप
उनके द्वारा रचित पुस्तकें भी एक अध्ययन-पुष्ट व्यक्ति की रचना होने की सहज
प्रतीति कराती हैं।
नेहरू जी
ने व्यवस्थित रूप से अनेक पुस्तकों की रचना की है। राजनीतिक जीवन के व्यस्ततम
संघर्षपूर्ण दिनों में लेखन हेतु समय के नितांत अभाव का हल उन्होंने यह निकाला कि
जेल के लंबे नीरस दिनों को सर्जनात्मक बना लिया जाय। इसलिए उनकी अधिकांश पुस्तकें
जेल में ही लिखी गयी हैं। उनके लेखन में एक साहित्यकार के भावप्रवण तथा एक
इतिहासकार के खोजी हृदय का मिला-जुला रूप सामने आया है।
इंदिरा
गांधी को काल्पनिक पत्र लिखने के बहाने उन्होंने विश्व इतिहास का
अध्याय-दर-अध्याय लिख डाला। ये पत्र वास्तव में कभी भेजे नहीं गये, परंतु इससे विश्व
इतिहास की झलक जैसा सहज संप्रेष्य तथा सुसंबद्ध ग्रंथ
सहज ही तैयार हो गया। भारत की
खोज (डिस्कवरी ऑफ इंडिया) ने लोकप्रियता के अलग प्रतिमान रचे हैं, जिस पर आधारित भारत एक
खोज नाम से एक उत्तम धारावाहिक का निर्माण भी हुआ है। उनकी
आत्मकथा मेरी कहानी ( ऐन ऑटो
बायोग्राफी) के बारे में सुप्रसिद्ध मनीषी सर्वपल्ली
राधाकृष्णन का मानना है कि उनकी आत्मकथा, जिसमें
आत्मकरुणा या नैतिक श्रेष्ठता को जरा भी प्रमाणित करने की चेष्टा किए बिना उनके
जीवन और संघर्ष की कहानी बयान की गयी है, हमारे युग
की सबसे अधिक उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है।
इन
पुस्तकों के अतिरिक्त नेहरू जी ने अगणित व्याख्यान दिये, लेख लिखे तथा पत्र लिखे। इनके प्रकाशन हेतु 'जवाहरलाल
नेहरू स्मारक निधि' ने एक
ग्रंथ-माला के प्रकाशन का निश्चय किया। इसमें सरकारी चिट्ठियों, विज्ञप्तियों आदि को छोड़कर स्थायी महत्त्व की सामग्रियों को चुनकर
प्रकाशित किया गया। जवाहरलाल
नेहरू वाङ्मय नामक इस ग्रंथ माला का प्रकाशन
अंग्रेजी में 15 खंडों में हुआ तथा हिंदी में सस्ता
साहित्य मंडल ने इसे 11 खंडों में
प्रकाशित किया है।
प्रकाशित पुस्तकें
1.
पिता के पत्र : पुत्री के नाम - 1929
2.
विश्व इतिहास की झलक (ग्लिंप्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री) - (दो खंडों में) 1933
3.
मेरी कहानी (ऐन ऑटो बायोग्राफी) - 1936
4.
भारत की खोज/हिन्दुस्तान की कहानी (दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया) - 1945
5.
राजनीति से दूर
6.
इतिहास के महापुरुष
7.
राष्ट्रपिता
8.
जवाहरलाल नेहरू वाङ्मय (11 खंडों में)