Monday, June 1, 2020

देश के पहले आईसीएस सत्येंद्रनाथ टैगोर


इंडियन सिविल सर्विस यानि आईसीएसइंग्लिश वर्णमाला के इन तीन लेटर्स में कुछ ऐसा है कि कोई भी स्टूडेंट खुद को इनके आकर्षण से बचा नहीं पाता। करियर चाहे मेडिकल में बनाना हो या आईआईटीआईआईएम या अन्य कोई प्रोफेशन अपनाने की चाह होलेकिन जीवन में कम से कम एक बार लगभग सभी छात्र सिविल सर्विस की परीक्षा में भाग्य जरूर आजमाना चाहते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि देश में सबसे पहले किसने सिविल सर्विस की परीक्षा पास की होगीअपने नाम के आगे ये तीन प्रतिष्ठित लेटर्स लिखने वाला कौन था देश का पहला आईसीएसअगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं देश के पहले आईसीएस के बारे में। ..
सत्येंद्रनाथ टैगोर इंडियन सिविल सर्विस जॉइन करने वाले पहले भारतीय थे। वह विश्वविख्यात कवि रविंद्रनाथ टैगोर के बड़े भाई थे। वह लेखककवि और साहित्यकार थे। उन्होंने महिलाओं के उत्थान में काफी योगदान दिया। उनका जन्म 1 जून, 1842 को कोलकाता में हुआ था। शुरुआती पढ़ाई घर पर हुई और बाद में प्रेसिडेंसी कॉलेज चले गए। 1859 में उनका विवाह ज्ञानंदिनी देवी से हुआ। 1862 में वह आईसीएस की परीक्षा के लिए लंदन गए। 1863 में उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा पास की।
ट्रेनिंग के बाद वह नवंबर, 1864 में भारत लौट आए। उनकी पहली नियुक्ति बांबे प्रेसिडेंसी में हुई। उसके बाद अहमदाबाद में 1865 में असिस्टेंट मजिस्ट्रेट और कलक्टर के पद पर सेवाएं दी। 1882 में उनकी नियुक्ति कर्नाटक के कारवार में जिला न्यायाधीश के रूप में हुई। 1897 में महाराष्ट्र के सतारा के न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए। 1832 से पहले तक सभी प्रशासकीय पदों पर अंग्रेज ऑफिसर ही नियुक्त किए जाते थे और भारतीयों को प्रमोशन बहुत ही कम दिया जाता था।
इस कारण अवकाश प्राप्ति के समय तक उनको सिर्फ जिला और सेशन जज के पद पर ही प्रमोशन मिल सका। 30 सालों तक वह सिविल सर्विस में रहे। रिटायरमेंट के बाद वह कलकत्ता लौट आए। उनका निधन 9 जनवरी, 1923 को कोलकाता में हुआ।
महिला अधिकारों के हिमायती
सत्येंद्रनाथ ने महिलाओं की आजादी में अहम भूमिका निभाई। वह अपनी  पत्नी ज्ञानंदिनी देवी को अपने साथ इंग्लैंड ले जाना चाहते थेलेकिन उनके पिता देबेंद्रनाथ ने इसकी अनुमति नहीं दी। बाद में जब वह मुंबई में थे तो अन्य ब्रिटिश अधिकारियों की पत्नी की तरह ही अपनी पत्नी को रहने-सहने में मदद की। जब वह कलकत्ता वापस आए तो अपनी पत्नी को गवर्नमेंट हाउस में आयोजित एक पार्टी में अपने साथ ले गए। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि कोई बंगाली महिला किसी खुले स्थान पर दिखे। शुरू में लोग उनका मजाक उड़ाते थे लेकिन पर्दा सिस्टम को खत्म करने की दिशा में यह पहला कदम था। 1877 में उन्होंने एक और साहसिक कदम उठाते हुए अपनी पत्नी ज्ञानंदिनी और बच्चे को इंग्लैंड भेज दिया। कुछ दिनों तक वे अपने दूर के रिश्तेदार के पास रहे और बाद में अकेले रहने लगे।
लेखन से लगाव
वह लेखककवि और साहित्यकार थे। उन्होंने बांग्ला और इंग्लिश में कई किताबें लिखीं। उन्होंने किताबों का संस्कृत से बांग्ला में अनुवाद भी किया। काम के सिलसिले में उनको पूरे देश का सफर करना पड़ता था। इससे उनको भारत की कई भाषा सीखने का मौका मिला। कई भाषाओं की जानकारी उनके काम उस समय आई जब वह तुकाराम और बाल गंगाधर की किताबों का बांग्ला में अनुवाद कर रहे थे। उन्होंने जीवन भर ब्रह्मो समाज का प्रचार किया। 1876 में उन्होंने बेलगछिया में हिंदी मेला का आयोजन करने में अहम भूमिका निभाई और इसके लिए गीत लिखे। 1907 में वह आदि ब्रह्मो समाज के अध्यक्ष और आचार्य बन गए.

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