जब अप्रैल में
एक तरफ बर्फबारी हो रही हो और दूसरी तरफ तूफान के चपेटे में जीवन हताहत हो रहा हो, तो समझ लेना चाहिए
कि पृथ्वी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। हाल ही में आंधी-तूफान ने देश में 50 से अधिक लोगों की
जान ले ली और ऊपरी इलाकों में बर्फबारी ने सब कुछ उलट दिया। नासा की ताजा रिपोर्ट
ने भी बताया है कि पिछले 15 वर्षों में पृथ्वी की सतह गरम हुई है। उपग्रह आधारित इस अध्ययन
ने बताया है कि वर्ष 2015, 2016 और 2017 सबसे गरम साल रहे हैं। अब दुनिया का ऐसा कोई भी कोना नहीं बचा, जहां पृथ्वी अपने
कष्टों को अभिव्यक्त न कर रही हो। लगता है कि पृथ्वी और प्रकृति ने सामूहिक दोष
मानकर पूरी दुनिया को दंडित करने का निर्णय लिया है। और इस दंड में दुनिया का वह
हर कोना शामिल है, जहां समृद्धि पहुंची हो या फिर जहां आज भी लोग वंचित हों। इसे
समझने के लिए हमें धरती के इतिहास को देखना होगा। करीब साढ़े छह करोड़ साल पहले
दुनिया ऐसी एक बड़ी घटना से गुजर चुकी है, जिसमें 70 फीसदी जीवन समाप्त हो चुका था। यह वही समय
था, जब डायनासोर खत्म हो
गए थे। माना जा रहा है कि दुनिया को हम फिर उसी तरह की एक बड़ी घटना की तरफ धकेल
रहे हैं और यही बड़ा कारण है कि इस बार पृथ्वी दिवस का विषय जैव-विविधता से जुड़ा
है।
‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर’ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2012 तक पौधों की 121 किस्में और 737 वन्य-जीव प्रजातियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं। इसके अलावा, 2,261 वन्य व अन्य जीव खतरे की सीमा पर पहुंच चुके हैं। ऐसे ही, 1,827 किस्म के पौधे भी तेजी से अपना अस्तित्व खो रहे हैं। मतलब 31 फीसदी कुल प्रजातियां खतरे की श्रेणी में आ चुकी हैं। इसमें यह बताना भी आवश्यक है कि दुनिया में कुल 17,28,830 प्रजातियों में मात्र 41 फीसदी का ही अध्ययन हो पाया है, मतलब 59 फीसदी के बारे में हम अभी ठीक से जान भी नहीं पाए हैं। दुनिया की 40 फीसदी जैव-विविधता उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में है और यहीं पर सबसे ज्यादा नुकसान भी हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया जैसे देश अपनी जैव-विविधता को तेजी से नष्ट करने में लगे हैं। हमारे देश में दुनिया की कुल सात फीसदी प्रजातियां पाई जाती हैं। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, खनन व प्रदूषण ने हमारी इस जैव-विविधता के लिए खतरा खड़ा कर दिया है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, पक्षियों की 1,225 प्रजातियों में से 78 प्रजातियां खतरे की सीमा पर पहुंच गई हैं। इनमें से ज्यादातर खतरा हिमालय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में मंडरा रहा है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज भी दुनिया की 25 फीसदी दवाइयां पेड़- पौधों से ही बनती हैं, इन पर संकट आने का मतलब मानव-जीवन पर संकट आने के बराबर है। दुनिया में मधुमक्खी के न होने का मतलब खाद्य तंत्र पर प्रतिकूल असर पड़ना है। धरती और नालों में रेंगने वाले कीडे़ स्केवेंजर के रूप में कार्य करते हैं। बैक्टीरिया वायरस के भी इस तंत्र में अपने मतलब हैं। कोई भी जीवित प्रजाति का पारिस्थितिकीय तंत्र में एक योगदान है। उनकी घटती-बढ़ती संख्या इस तंत्र में असंतुलन पैदा कर सकती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं मनुष्य है, जिसकी लगातार तेज बढ़ती आबादी ने पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल दिया है।
सब जीव-जंतु न सिर्फ पृथ्वी का हिस्सा हैं, बल्कि वे इसके अस्तित्व को एक संतुलन प्रदान करते हैं। इनमें होने वाला कोई भी परिवर्तन, चाहे वह संख्या में हो या फिर गुणवत्ता में, पृथ्वी पर सीधा असर डालेगा। दुर्भाग्य यह है कि पृथ्वी की प्रवृत्ति और व्यवहार को हम समझ नहीं पाते और इसलिए मनमाने ढंग से अपनी सुविधानुसार अपने जीवन को तय करते हैं। और इस ललक में दूसरे जीव-जंतु और पेड़-पौधों के अस्तित्व को नकारने में उतारू हो जाते हैं। हमें यह समझना होगा कि बिगड़ती हवा-मिट्टी-पानी आदि इस पारिस्थितिकीय-तंत्र में होने वाली नकारात्मक हलचलों का ही परिणाम है।
हमें पृथ्वी के अन्य जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को मिलाकर ही अपने जीवन की कल्पना करनी होगी। अभी तक हम जिस तरह से दूसरी प्रजातियों के जीवन को खतरे में डालते आ रहे हैं, वह अंत में कहीं न कहीं हमारे ही विनाश का कारण बन सकता है।
‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर’ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2012 तक पौधों की 121 किस्में और 737 वन्य-जीव प्रजातियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं। इसके अलावा, 2,261 वन्य व अन्य जीव खतरे की सीमा पर पहुंच चुके हैं। ऐसे ही, 1,827 किस्म के पौधे भी तेजी से अपना अस्तित्व खो रहे हैं। मतलब 31 फीसदी कुल प्रजातियां खतरे की श्रेणी में आ चुकी हैं। इसमें यह बताना भी आवश्यक है कि दुनिया में कुल 17,28,830 प्रजातियों में मात्र 41 फीसदी का ही अध्ययन हो पाया है, मतलब 59 फीसदी के बारे में हम अभी ठीक से जान भी नहीं पाए हैं। दुनिया की 40 फीसदी जैव-विविधता उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में है और यहीं पर सबसे ज्यादा नुकसान भी हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया जैसे देश अपनी जैव-विविधता को तेजी से नष्ट करने में लगे हैं। हमारे देश में दुनिया की कुल सात फीसदी प्रजातियां पाई जाती हैं। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, खनन व प्रदूषण ने हमारी इस जैव-विविधता के लिए खतरा खड़ा कर दिया है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार, पक्षियों की 1,225 प्रजातियों में से 78 प्रजातियां खतरे की सीमा पर पहुंच गई हैं। इनमें से ज्यादातर खतरा हिमालय क्षेत्र और पश्चिमी घाट में मंडरा रहा है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज भी दुनिया की 25 फीसदी दवाइयां पेड़- पौधों से ही बनती हैं, इन पर संकट आने का मतलब मानव-जीवन पर संकट आने के बराबर है। दुनिया में मधुमक्खी के न होने का मतलब खाद्य तंत्र पर प्रतिकूल असर पड़ना है। धरती और नालों में रेंगने वाले कीडे़ स्केवेंजर के रूप में कार्य करते हैं। बैक्टीरिया वायरस के भी इस तंत्र में अपने मतलब हैं। कोई भी जीवित प्रजाति का पारिस्थितिकीय तंत्र में एक योगदान है। उनकी घटती-बढ़ती संख्या इस तंत्र में असंतुलन पैदा कर सकती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं मनुष्य है, जिसकी लगातार तेज बढ़ती आबादी ने पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल दिया है।
सब जीव-जंतु न सिर्फ पृथ्वी का हिस्सा हैं, बल्कि वे इसके अस्तित्व को एक संतुलन प्रदान करते हैं। इनमें होने वाला कोई भी परिवर्तन, चाहे वह संख्या में हो या फिर गुणवत्ता में, पृथ्वी पर सीधा असर डालेगा। दुर्भाग्य यह है कि पृथ्वी की प्रवृत्ति और व्यवहार को हम समझ नहीं पाते और इसलिए मनमाने ढंग से अपनी सुविधानुसार अपने जीवन को तय करते हैं। और इस ललक में दूसरे जीव-जंतु और पेड़-पौधों के अस्तित्व को नकारने में उतारू हो जाते हैं। हमें यह समझना होगा कि बिगड़ती हवा-मिट्टी-पानी आदि इस पारिस्थितिकीय-तंत्र में होने वाली नकारात्मक हलचलों का ही परिणाम है।
हमें पृथ्वी के अन्य जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों को मिलाकर ही अपने जीवन की कल्पना करनी होगी। अभी तक हम जिस तरह से दूसरी प्रजातियों के जीवन को खतरे में डालते आ रहे हैं, वह अंत में कहीं न कहीं हमारे ही विनाश का कारण बन सकता है।