गुरु अर्जन देव
जन्म: 15
अप्रैल, सन 1563; मृत्यु: 30 मई, 1606
गुरु अर्जन देव सिक्खों के पाँचवें गुरु थे। ये 1 सितम्बर, 1581 ई. में गद्दी पर बैठे। गुरु अर्जन देव का कई दृष्टियों से सिक्ख गुरुओं में विशिष्ट स्थान है। 'गुरु ग्रंथ साहब' आज जिस रूप में उपलब्ध है, उसका संपादन इन्होंने ही किया था। गुरु अर्जन देव सिक्खों के परम पूज्य चौथे गुरु रामदास के पुत्र थे। गुरु नानक से लेकर गुरु रामदास तक के चार गुरुओं की वाणी के साथ-साथ उस समय के अन्य संत महात्माओं की वाणी को भी इन्होंने 'गुरु ग्रंथ साहब' में स्थान दिया।
जीवन परिचय
गुरु अर्जन देव जी का जन्म 18 वैशाख 7 संवत 1620 (15 अप्रैल सन् 1563) को श्री गुरु रामदास जी के घर बीबी भानी जी की पवित्र कोख से गोइंदवाल अपने ननिहाल घर में हुआ।
अपने ननिहाल घर में ही पोषित और जवान हुए। इतिहास में लिखा है एक दिन ये अपने नाना
श्री गुरु अमर दास जी
के पास खेल रहे थे तो गुरु नाना जी के पलंग को आप पकड़कर खड़े हो गए। बीबी भानी जी
आपको ऐसा देखकर पीछे हटाने लगी। गुरु जी अपनी सुपुत्री से कहने लगे बीबी! यह अब ही
गद्दी लेना चाहता है मगर गद्दी इसे समय डालकर अपने पिताजी से ही मिलेगी। इसके
पश्चात् गुरु अमर दास जी ने अर्जन जी को पकड़कर प्यार किया और ऊपर उठाया। आपका
भारी शरीर देखकर वचन किया जगत् में यह भारी गुरु प्रकट होगा। बाणी का जहाज़ तैयार
करेगा और जिसपर चढ़कर अनेक प्रेमियों का उद्धार होगा। इस प्रकार आपका वरदान वचन
प्रसिद्ध है-
"दोहिता
बाणी का बोहिथा"
बीबी भानी जी ने जब पिता गुरु से यह बात सुनी तो बालक अर्जन जी को उठाया और पिता के चरणों पर
माथा टेक दिया। इस तरह अर्जन देव जी ननिहाल घर में अपने मामों श्री मोहन जी और
श्री मोहरी जी के घर में बच्चों के साथ खेलते और शिक्षा ग्रहण की। जब आप की उम्र 16 वर्ष की हो गई तो 23 आषाढ़ संवत 1636 को आपकी शादी श्री कृष्ण
चंद जी की सुपुत्री गंगा जी तहसील फिल्लोर के मऊ नामक स्थान पर हुई। आपकी शादी के
स्थान पर एक सुन्दर गुरुद्वारा बना हुआ है। इस गाँव में पानी की कमी हो गई थी।
आपने एक कुआं खुदवाया जो
आज भी उपलब्ध है।
गुरु गद्दी की प्राप्ति
गुरु रामदास जी द्वारा श्री
अर्जन देव जी को लाहौर भेजे
हुए जब दो वर्ष बीत गए। पिता गुरु की तरफ से जब कोई बुलावा ना आया। तब आपने अपने हृदय की तडप को प्रकट करने के लिए गुरु
पिता को चिट्ठी लिखी -
मेरा मनु लोचै गुर दरसन ताई
।।
बिलाप करे चात्रिक की निआई ।।
त्रिखा न उतरै संति न आवै बिनु दरसन संत पिआरे जीउ ।। 1 ।।
हउ घोली जीउ घोली घुमाई गुर दरसन संत पिआरे जीउ ।। 1 ।। रहाउ ।।
जब इस चिट्ठी का कोई उत्तर
ना आया तो आपने दूसरी चिट्ठी लिखी -
तेरा मुखु सुहावा जीउ सहज
धुनि बाणी ।।
चिरु होआ देखे सारिंग पाणी ।।
धंनु सु देसु जहा तूं वसिआ मेरे सजण मीत मुरारे जीउ ।। 2 ।।
हउ घोली हउ घोल घुमाई गुरु सजण मीत मुरारे जीउ ।। 1 ।। रहाउ ।।
जब इस चिट्ठी का भी उत्तर
ना आया तब आपने तीसरी चिट्ठी लिखी -
एक घड़ी न मिलते ता कलियुगु
होता ।।
हुणे कदि मिलीए प्रीअ तुधु भगवंता ।।
मोहि रैणि न विहावै नीद न आवै बिनु देखे गुर दरबारे जीउ ।। 3 ।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई तिसु सचे गुर दरबारे जीउ ।।ब1 ।। रहाउ ।।
गुरुजी ने जब आपकी यह सारी
चिट्ठियाँ पड़ी तो गुरुजी ने बाबा बुड्डा जी को लाहौर भेजकर गुरु के चक बुला लिया। आप जी ने गुरु पिता को माथा टेका और मिलाप
की खुशी में चौथा पद उच्चारण किया -
भागु होआ गुरि संतु मिलाइिआ
।।
प्रभु अबिनासी घर महि पाइिआ ।।
सेवा करी पलु चसा न विछुड़ा जन नानक दास तुमारे जीउ ।। 4 ।।
हउ घोली जीउ घोलि घुमाई जन नानक दास तुमारे जीउ ।। रहाउ ।। 1 ।। 8 ।।
गुरु पिता प्रथाए अति श्रधा
और प्रेम प्रगट करने वाली यह मीठी बाणी सुनकर गुरु जी बहुत खुश हुए। उन्होंने आपको
हर प्रकार से गद्दी के योग्य मानकर भाई बुड्डा जी और भाई गुरदास आदि सिखो से विचार
करके आपने भाद्र सुदी एकम संवत् 1639 को सब संगत के सामने पांच पैसे और नारियल आपजी के आगे रखकर तीन
परिक्रमा करके गुरु नानक जी की गद्दी को माथा टेक दिया। आपने सब सिख संगत को वचन
किया कि आज से श्री अर्जन देव जी ही गुरुगद्दी के मालिक हैं। इनको आप हमारा ही रूप
समझना और सदा इनकी आज्ञा में रहना।
गुरुजी की शहीदी
जहाँगीर ने
गुरु जी को सन्देश भेजा। बादशाह का सन्देश पड़कर गुरु जी ने अपना अन्तिम समय नजदीक
समझकर अपने दस-ग्यारह सपुत्र श्री हरिगोबिंद जी को गुरुत्व दे दिया। उन्होंने भाई बुड्डा जी, भाई गुरदास जी आदि बुद्धिमान सिखों को घर बाहर का काम सौंप दिया। इस
प्रकार सारी संगत को धैर्य देकर गुरु जी अपने साथ पांच सिखों-
- भाई
जेठा जी
- भाई
पैड़ा जी
- भाई
बिधीआ जी
- लंगाहा
जी
- पिराना
जी
को साथ लेकर लाहौर पहुँचे।
दूसरे दिन जब आप अपने पांच सिखों सहित जहाँगीर के दरबार में गए। तो उसने कहा आपने
मेरे बागी पुत्र को रसद और आशीर्वाद दिया है। आपको दो लाख रुपये ज़ुर्माना देना
पड़ेगा नहीं तो शाही दण्ड भुगतना पड़ेगा। गुरु जी को चुप देखकर चंदू ने कहा कि मैं
इन्हें अपने घर ले जाकर समझाऊंगा कि यह ज़ुर्माना दे दें और किसी चोर डकैत को अपने
पास न रखें। चंदू उन्हें अपने साथ घर में ले गया। जिसमें पांच सिखों को ड्योढ़ि
में और गुरु जी को ड्योढ़ि के अंदर कैद कर दिया। चंदू ने गुरु जी को अकेले बुलाकर
यह कहा कि मैं आपका जुर्माना माफ करा दूँगा, कोई
पूछताछ भी नहीं होगी। इसके बदले में आपको मेरी बेटी का रिश्ता अपने बेटे के साथ
करना होगा और अपने ग्रंथ में मोहमद साहिब की स्तुति लिखनी होगी। गुरु जी ने कहा
दीवान साहिब! रिश्ते की बाबत जो हमारे सिखों ने फैसला किया है, हम उस पर पाबंध हैं। हमारे सिखों को आपका रिश्ता स्वीकार नहीं है।
दूसरी बात आपने मोहमद साहिब की स्तुति लिखने की बात की है यह भी हमारे वश की बात
नहीं है। हम किसी की खुशी के लिए इसमें अलग कोई बात नहीं लिख सकते। प्राणी मात्र
के उपदेश के लिए हमें करतार से जो प्रेरणा मिलती है इसमें हम वही लिख सकतें हैं।
शरीर त्यागने का समय
गुरु जी का यह उत्तर सुनते
ही चंदू भड़क उठा। उसने अपने सिपाहियों को हुकम दिया कि इन्हें किसी आदमी से ना
मिलने दिया जाए और ना ही कुछ खाने पीने को दिया जाए। दूसरे दिन जब गुरु जी ने चंदू
की दोनों बाते मानने से इंकार कर दिया तो उसने पानी की एक देग गर्म करा कर गुरु जी
को उसमें बिठा दिया। गुरु जी को पानी की उबलती हुई देग में बैठा देखकर सिखों में
हाहाकार मच गई। वै जैसे ही गुरु जी को निकालने के लिए आगे हुए, सिपाहियों
ने उनको खूब मारा। सिखों पार अत्याचार होते देख गुरु जी ने उनको कहा, परमेश्वर का हुकम मानकर शांत रहो। हमारे शरीर त्यागने का समय अब आ गया
है। जब गुरु जी चंदू की बात फिर भी ना माने, तो उसने
गुरु जी के शरीर पार गर्म रेत डलवाई। परन्तु गुरु जी शांति के पुंज अडोल बने रहे
"तेरा भाना मीठा लागे" हरि नाम पदार्थ नानक मांगै" पड़ते रहे।| देखने और सुनने वाले त्राहि-त्राहि कर उठे, परन्तु कोई कुछ भी नहीं कर पाया। गुरु जी का शरीर छालों से फूलकर बहुत
भयानक रूप धारण कर गया। तीसरे दिन जब गुरु जी ने फिर चंदू की बात मानी, तो उसने लोह गर्म करवा कर गुरु जी को उसपर बिठा दिया। गुरु जी इतने
पीड़ाग्रस्त शरीर से गर्म लोह पर प्रभु में लिव जोड़कर अडोल बैठे रहे। लोग हाहाकार
कर उठे।
ज्योति-ज्योत समाना
जब दिन निकला तो चंदू फिर
अपनी बात मनाने के लिए गुरु जी के पास पहुँचा। परन्तु गुरु जी ने फिर बात ना मानी।
उसने गुरु जी से कहा कि आज आपको मृत गाए के कच्चे चमड़े में सिलवा दिया जाएगा।
उसकी बात जैसे ही गुरु जी ने सुनी तो गुरु जी कहने लगे कि पहले हम रावी नदी में
स्नान करना चाहते है, फिर जो आपकी इच्छा हो कर लेना। गुरु जी कि
जैसे ही यह बात चंदू ने सुनी तो खुश हो गया कि इन छालों से सड़े हुए शरीर को जब
नदी का ठंडा पानी लगेगा तो यह और भी दुखी होंगे। अच्छा यही है कि इनको स्नान कि
आज्ञा दे दी जाए। चंदू ने अपने सिपाहियों को हुकम दिया कि जाओ इन्हे रावी में स्नान कर लाओ। तब गुरु जी अपने
पांच सिखों सहित रावी पर आ गए। गुरु जी ने नदी के किनारे बैठकर चादर ओड़कर
"जपुजी साहिब" का पाठ करके भाई लंगाह आदि सिखों को कहा कि अब हमरी परलोक
गमन कि तैयारी है। आप जी श्री हरिगोबिंद को धैर्य देना और कहना कि शोक नहीं करना, करतार का हुकम मानना। हमारे शरीर को जल प्रवाह ही करना, संस्कार नहीं करना।
निधन
इसके पश्चात् गुरु जी रावी में प्रवेश करके अपना शरीर त्याग कर सचखंड जी बिराजे। उस दिन ज्येष्ठ सुदी चौथ संवत 1553 विक्रमी थी। गुरु जी का ज्योति ज्योत
समाने का सारे शहर में बड़ा शोक बनाया गया। गुरु जी के शरीर त्यागने के स्थान पर
गुरुद्वारा ढ़ेरा साहिब लाहौर शाही किले के पास विद्यमान है।
विशेष बिंदु
- गुरु
अर्जन देव के स्वयं के लगभग दो हज़ार शब्द गुरु ग्रंथ साहब में संकलित हैं।
- अर्जन
देव की रचना 'सुषमनपाठ' का सिक्ख नित्य पारायण करते हैं।
- अर्जन
देव ने अपने पिता द्वारा अमृतसर नगर के निर्माण कार्य को आगे
बढ़ाया था।
- इन्होंने 'अमृत सरोवर' का निर्माण कराकर उसमें 'हरमंदिर साहब' का निर्माण कराया, जिसकी नींव सूफ़ी संत मियाँ मीर के हाथों से रखवाई गई थी।
- तरनतारन नगर भी गुरु अर्जन देव के समय में बसा हुआ एक नगर है।
- मुग़ल सम्राट अकबर भी गुरु अर्जन देव का सम्मान करता था।
- अर्जन
देव ने सार्वजनिक सुविधा के लिए जो काम किए उनसे अकबर बहुत प्रभावित था।
- अर्जन
देव के बढ़ते हुए प्रभाव को जहाँगीर सहन नहीं कर सका, और उसने अपने
पुत्र खुसरों की सहायता से अर्जन देव को क़ैद कर लिया।
- जहाँगीर द्वारा क़ैद में गुरु अर्जन देव को तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं।
इन्हीं परिस्थितियों में 30 मई,
1606 ई. में रावी नदी के तट पर आकार गुरु अर्जन देव का देहांत हो गया।