Monday, June 25, 2018

25 जून 1975 की सुबह एक फोन की घंटी ने देश में लिख दी थी 'आपातकाल' की काली रात


वो देश में असंतोष का काल था राजनीति असंतोष का काल। केंद्र की कांग्रेस सरकार के खिलाफ देशभर में आवाजें बुलंद हो रही थीं। बिहार और गुजरात में विधानसभाएं भंग की जा चुकी थीं। विपक्षी पार्टी के बड़े कद्दावर नेता आंदोलन कर रहे थे। देश के युवा उनके साथ थे। 
देश की जनता में असंतोष तेजी से बढ़ रहा था। बेरोजगारी चरम पर थी। युवा आक्रोशित था। देश में बदलाव की लहर तेजी से उठ रही थी। विपक्ष की मांगे सरकार से बढ़ती जा रही थी। तानाशाह के रूप में उभरी इंदिरा गांधी के अंदर सत्ता खोने का भय जन्म ले रहा था। वह कमजोर हो रही थीं और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए कुछ शख्त कदम उठाना चाह रही थीं। उन्हें यह भी खौफ था कि कहीं अमेरिका उनके खिलाफ कोई बड़ी चाल न चल दे और कहीं उनका तख्ता पलट न हो जाए।  

इंदिरा ने अपने एक साक्षात्कार में  ये कहा भी था कि वो अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में सबसे ऊपर थीं और उन्हें डर था कि कहीं उनकी सरकार का भी सीआईए की मदद से चिली के राष्ट्रपति साल्वाडोर अयेंदे की तरह तख्ता न पलट दिया जाए। 

 
देश की चरमराई व्यवस्था, तख्ता पलट के डर और  तानाशाही के शैतानी चेहरों ने मिलकर लिखी थी आपातकाल की कहानी। आपातकाल के दौरान मौजूद रहे लोग बताते हैं कि इंदिरा हाथ से निकलती कमान, देश के बिगड़ते हालात और अमेरिका के खौफ में थीं। 

वह देश को कुछ 'झटका' देना चाहती थीं। लेकिन वह झटका आपातकाल के रूप में लिखा जा रहा है इसका अंदाजा तो उनके करीबियों को छोड़िए उन्हें भी नहीं था जिन्होंने इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा लिखी थी और उन्हें यह सुझाया था कि  अनुच्छेद 352 लागू कर वह देश को, देशवासियों को और विपक्ष को एक साथ सीधा कर सकती हैं। 

 25
की दरम्यानी रात और 26 जून की सुबह देश में आपातकाल की घोषणा की गई थी। आज उसकी 43वीं बरसी है। उस दिन को देखने वालों की आंखों में आज भी इसकी भयावहता और क्रूरता दिखाई देती है।

देश में आपातकाल की नींव तो 1971 के आमचुनाव के बाद से ही रख दी गई थी। लेकिन 1975 आते आते इमारत बुलंद हो चुकी थी। विपक्ष का विरोध अपने चरम पर पहुंच चुका था।  वह 25 जून 1975 की सुबह थी जब  पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रॉय के फोन की घंटी बजी। वह उन दिनों दिल्ली में थे और बंग भवन के अपने कमरे में लेटे हुए कुछ पढ रहे थे। फोन इंदिरा गांधी के ऑफिस से था और फोन पर थे उनके विशेष सहायक आरके धवन। जो उन्हें प्रधानमंत्री निवास पर जल्द से जल्द आने के लिए कह रहे थे।

तब इंदिरा गांधी का आवास 1 सफदरजंग रोड पर था। रॉय जैसे ही पहुंचे उन्होंने इंदिरा को अपनी स्टडी में ढेर सारी रिपोर्टों के ढेर के बीच खुद को उलझा हुआ पाया। वह काफी परेशान दिख रही थीं। चाय के साथ ही रॉय और इंदिरा की बातचीत शुरू हुई। देश के बिगड़ते हालात पर बातचीत करते हुए इंदिरा ने रॉय को कहा कि समय आ गया है कि हम कड़े फैसले लें। विपक्ष जिस तरह से मांगे कर रहा है और देश की व्यवस्था चरमरा रही है। ऐसे में देश को सख्त फैसले की जरूरत है।   

सिद्धार्थ शंकर रॉय से इंदिरा की बातचीत की वजह ये थी  वह संवैधानिक मामलों के जानकार थे। और इंदिरा उनपर विश्वास करती थीं। अचानक इंदिरा की ऐसी बातें सुनकर रॉय पहले घबराए फिर उन्होंने कुछ मोहलत मांगी। 

रॉय ने कहा, 'मुझे वापस जाकर संवैधानिक स्थिति को समझने दीजिए।' रॉय दो घंटे बाद वापस इंदिरा के पास पहुंचे और देश की आंतरिक गड़बड़ियों से निपटने का एक सूत्री उपाय आपातकाल को बताया। इंदिरा पूरे मामले को गुपचुप तौर पर करना चाहती थीं इसलिए उन्होंने कई मामलों में और सलाह लेनी शुरू की जिसमें उन्होंने यह भी कहा कि वह अपने मंत्रिमंडल को यह जानकारी नहीं देना चाहती हैं तब वह रॉय ही थे जिन्होंने इंदिरा को सुझाया कि वह सीधे राष्ट्रपति फखरुद्दीन से धारा 352 पर बात करें। और आपातकाल की घोषणा कर दें। 

फिर सिद्धार्थ शंकर और इंदिरा शाम पांच बजे राष्ट्रपति भवन पुहंचे और देश और सारी परिस्थितियां समझाईं और उन्हें मनाने में कामयाब हुईं। दोनों वापस लौटे आपातकाल के कागजात तैयार कराए गए। तब तक रात के साढ़े 11, पौने 12 बज चुके थे। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने उन आपातकाल के घोषणा वाले कागजात पर हस्ताक्षर कर दिए।

भले ही घोषणा 26 जून को हुई लेकिन राष्ट्रपति ने 25 जून की रात ही आपातकाल के कागजात पर देश के काले दिन पर मुहर लगा दी थी। आपातकाल करीब 21 महीने तक देश पर लागू रहा। 

कैसे बदली तस्वीर
आपातकाल के कागजात पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद  इंदिरा ने कैबिनेट की बैठक बुलाई। यह बैठक सुबह 6 बजे बुलाई गई। सारा घटना क्रम तेजी से घट रहा था। इंदिरा कल मंत्रिमंडल की बैठक में और रेडियो पर देश को क्या संदेश देंगी उसकी रूपरेखा तैयार की जा रही थी। इसी बीच संजय गांधी कई बार इंदिरा से मिलने आए। विपक्ष के उन नेताओं की लिस्ट तैयार की गई जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था।
इसी दौरान मीडिया पर कैसे लगाम लगाई जाए इसपर भी बातचीत शुरू हो चुकी थी। सेंसरशिप लागू किए जाने से लेकर अखबार के दफ्तरों की बिजली काटे जाने तक की योजनाएं बनाईं जा रही थी। यही नहीं अदालतों पर भी जोर आजमाइश की कोशिश की जा रही थी।

मीडिया पर पाबंदी को लेकर पार्टी में बड़ा विरोध था। खुद आपातकाल की एबीसी बताने वाले रॉय भी इसके खिलाफ थे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इंदिरा संजय गांधी के हाथों की कठपुतली हो चुकी थीं। रॉय के मीडिया और अदालत पर पाबंदी का विरोध किए जाने पर इंदिरा ने उन्हें कहा कि ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन 26 जून को सबकुछ उलट हुआ।  तड़के ही गिरफ्तारियां शुरू कर दी गईं। उनदिनों जय प्रकाश नारायण दिल्ली के रामलीला मैदान में युवाओं के साथ मौजूद थे। सरकार के खिलाफ प्रदर्शन जोरों पर था। मोरारजी देसाई भी गिरफ्तार कर लिए गए।

मीडिया पर पाबंदी लगा दी गई। बिजली के कनेक्शन काट दिए गए। बहादुर शाह जफर मार्ग पर मौजूद एक भी अखबार के दफ्तर में अखबार की मशीने नहीं चलीं, नहीं छप सके समाचार पत्र। सिर्फ हिंदुस्तान टाइम्स छप सका क्योंकि उसका ऑफिस बहादुर शाह मार्ग पर नहीं था। रेडियो पर प्रसारित होने वाले बुलेटिन्स को प्रसारण से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से अप्रूव कराने के आदेश जारी किए गए। और देश में यह हालात करीब 21 महीने तक रहे।

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