महारानी अहिल्याबाई
31 मई 1725 - 13 अगस्त 1795
महारानी अहिल्याबाई इतिहास-प्रसिद्ध सूबेदार मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव की
पत्नी थीं। जन्म इनका सन् 1725 में हुआ था और देहांत 13 अगस्त1795 को; तिथि उस दिन
भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी थी। अहिल्याबाई किसी बड़े भारी राज्य की रानी नहीं थीं।
उनका कार्यक्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित था। फिर भी उन्होंने जो कुछ किया, उससे आश्चर्य होता है।
दस-बारह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ। उनतीस वर्ष की अवस्था
में विधवा हो गईं। पति का स्वभाव चंचल और उग्र था। वह सब उन्होंने सहा। फिर जब
बयालीस-तैंतालीस वर्ष की थीं,
पुत्र मालेराव का देहांत हो गया। जब अहिल्याबाई की आयु बासठ वर्ष के
लगभग थी, दौहित्र नत्थू चल बसा। चार वर्ष पीछे दामाद
यशवंतराव फणसे न रहा और इनकी पुत्री मुक्ताबाई सती हो गई। दूर के संबंधी तुकोजीराव
के पुत्र मल्हारराव पर उनका स्नेह था; सोचती थीं कि आगे चलकर
यही शासन, व्यवस्था, न्याय औऱ
प्रजारंजन की डोर सँभालेगा; पर वह अंत-अंत तक उन्हें दुःख
देता रहा।
रानी अहिल्याबाई ने भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक मन्दिरों,
धर्मशालाओं और अन्नसत्रों का निर्माण कराया था। कलकत्ता से बनारस तक की सड़क,
बनारस में अन्नपूर्णा का मन्दिर , गया में
विष्णु मन्दिर उनके बनवाये हुए हैं। इन्होंने घाट बँधवाए, कुओं
और बावड़ियों का निर्माण करवाया, मार्ग बनवाए, भूखों के लिए सदाब्रत (अन्नक्षेत्र ) खोले, प्यासों
के लिए प्याऊ बिठलाईं, मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति
शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन हेतु की। उन्होंने अपने समय की हलचल में प्रमुख
भाग लिया। रानी अहिल्याबाई ने इसके अलावा काशी, गया, सोमनाथ, अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, द्वारिका, बद्रीनारायण, रामेश्वर, जगन्नाथ
पुरी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थस्थानों पर मंदिर बनवाए और धर्म शालाएं खुलवायीं।
कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई के स्वप्न में एक बार भगवान
शिव आए। वे भगवान शिव की भक्त थीं और इसलिए उन्होंने 1777 में विश्व प्रसिद्ध काशी
विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया। और, आत्म-प्रतिष्ठा के झूठे मोह का त्याग
करके सदा न्याय करने का प्रयत्न करती रहीं-मरते दम तक। ये उसी परंपरा में थीं
जिसमें उनके समकालीन पूना के न्यायाधीश रामशास्त्री थे और उनके पीछे झाँसी की रानी
लक्ष्मीबाई हुई। अपने जीवनकाल में ही इन्हें जनता ‘देवी’
समझने और कहने लगी थी। इतना बड़ा व्यक्तित्व जनता ने अपनी आँखों
देखा ही कहाँ था। जब चारों ओर गड़बड़ मची हुई थी। शासन और व्यवस्था के नाम पर घोर
अत्याचार हो रहे थे। प्रजाजन-साधारण गृहस्थ, किसान
मजदूर-अत्यंत हीन अवस्था में सिसक रहे थे। उनका एकमात्र सहारा-धर्म-अंधविश्वासों,
भय त्रासों और रूढि़यों की जकड़ में कसा जा रहा था। न्याय में न
शक्ति रही थी, न विश्वास। ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों
में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया।-वह चिरस्मरणीय है।
इंदौर में प्रति वर्ष भाद्रपद कृष्णा चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव होता चला आता है।
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अहिल्याबाई जब 6 महीने के लिये पूरे भारत की यात्रा पर गई तो ग्राम उबदी के पास स्थित कस्बे
अकावल्या के पाटीदार को राजकाज सौंप गई,
जो हमेशा वहाँ जाया करते थे। उनके राज्य संचालन से प्रसन्न होकर अहिल्याबाई ने आधा राज्य
देेने को कहा परन्तु उन्होंने सिर्फ यह मांगा कि महेश्वर में मेरे समाज लोग
यदि मुर्दो को जलाने आये तो कपड़ो समेत जलायॆं।
उनके मंदिर-निर्माण और अन्य धर्म-कार्यों के महत्त्व के विषय
में मतभेद है। इन कार्यों में अहिल्याबाई ने अंधाधुंध
खर्च किया और सेना नए ढंग पर संगठित नहीं की। तुकोजी होलकर की सेना को उत्तरी
अभियानों में अर्थसंकट सहना पड़ा, कहीं-कहीं यह आरोप भी है इन मंदिरों को हिंदू धर्म की बाहरी
चौंकियाँ बतलाया है। तुकोजीराव होलकर के पास बारह लाख रुपए थे
जब वह अहिल्याबाई से रुपए की माँग पर माँग कर रहा था और संसार को दिखलाता था कि
रुपए-पैसे से तंग हूँ। फिर इसमें अहिल्याबाई का दोष क्या था ? हिंदुओं के लिए धर्म की भावना सबसे बड़ी
प्रेरक शक्ति रही है; अहिल्याबाई ने उसी का उपयोग किया।
तत्कालीन अंधविश्वासों और रुढ़ियों का वर्णन उपन्यास में आया है। इनमें से एक
विश्वास था मांधता के निकट नर्मदा तीर स्थित खडी पहाड़ी से कूदकर मोक्ष-प्राप्ति
के लिए प्राणत्याग-आत्महत्या कर डालना।
अहिल्याबाई के संबंध में दो प्रकार की विचारधाराएँ रही हैं। एक
में उनको देवी के अवतार की पदवी दी गई है, दूसरी में उनके अति उत्कृष्ट गुणों के साथ
अंधविश्वासों और रूढ़ियों के प्रति श्रद्धा को भी प्रकट किया है। वह अँधेरे में
प्रकाश-किरण के समान थीं, जिसे अँधेरा बार-बार ग्रसने की
चेष्टा करता रहा। अपने उत्कृष्ट विचारों एवं नैतिक आचरण के चलते ही समाज में
उन्हें देवी का दर्जा मिला।
मल्हारराव के भाई-बंदों में तुकोजीराव होल्कर एक विश्वासपात्र
युवक थे। मल्हारराव ने उन्हें भी सदा अपने साथ में रखा था और राजकाज के लिए तैयार
कर लिया था। अहिल्याबाई ने इन्हें अपना सेनापति बनाया और चौथ वसूल करने का काम
उन्हें सौंप दिया। वैसे तो उम्र में तुकोजीराव होल्कर अहिल्याबाई से बड़े थे, परंतु तुकोजी उन्हें अपनी माता
के समान ही मानते थे और राज्य का काम पूरी लगन ओर सच्चाई के साथ करते थे। अहिल्याबाई
का उन पर इतना प्रेम और विश्वास था कि वह भी उन्हें पुत्र जैसा मानती थीं। राज्य
के काग़ज़ों में जहाँ कहीं उनका उल्लेख आता है वहाँ तथा मुहरों में भी 'खंडोजी सुत तुकोजी होल्कर' इस प्रकार कहा गया है।
राज्य की चिंता का भार और उस पर प्राणों से भी प्यारे लोगों का
वियोग। इस सारे शोक-भार को अहिल्याबाई का शरीर अधिक नहीं संभाल सका। और 13 अगस्त सन् 1795 को उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। अहिल्याबाई के निधन के बाद तुकोजी इन्दौर
की गद्दी पर बैठा।