शिक्षा में सुधार के लिए प्राचीन भारत के
मनीषियों ने जो दर्शन दिया था उसका पुन: अध्ययन तथा चिंतन आवश्यक है
भारतीय ज्ञान
परंपरा, उसके ग्रंथ और ज्ञानार्जन के लिए विकसित गुरुकुल
प्रणाली से सामान्य परिचय भी मनुष्य और प्रकृति के बीच के संवेदनशील संबंधों को
उजागर ही नहीं करता है, वरन उसे बनाए रखने का उत्तरदायित्व
भी मनुष्य को ही स्पष्ट रूप से सौंपता है। लोग इन संबंधों के महत्व को धीरे-धीरे
भूलते गए, प्रकृति का शोषण लगातार बढ़ता गया कि उसकी
क्षतिपूर्ति असंभव होती गई। भारत की ज्ञानार्जन परंपरा और उसके प्राचीन ग्रंथों
में प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को विस्तार से वर्णित किया गया था और अपेक्षा तो
यही की जा सकती थी कि भारत प्रकृति के दोहन में स्वयं कभी भागीदार नहीं होगा,
परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रगति और विकास की दौड़ में
पश्चिमी देशों की नकल के फेर में पड़कर भारत अपने उत्तरदायित्व से विमुख हो गया।
इसे रोकने में वास्तव में भारत को नेतृत्व प्रदान करना था, मगर
भौतिकता की चकाचौंध में भारतीयों ने स्वयं भी वही किया जो अन्य लोग कर रहे थे।
परिणामस्वरूप आज पूरी दुनिया विनाश के मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है।
अब वैश्विक स्तर पर यह माना जा रहा है कि स्थिति को बदलने के लिए
सबसे पहले ऐसी शिक्षा को हर व्यक्तितक पहुंचाना होगा जिसके द्वारा हर व्यक्ति को
समाज तथा परिवार और स्वयं अपने लिए अनुशासन और मान्यताओं का बोध हो जिससे प्रकृति
का शोषण न हो। यह भी जानना है कि वे कौन से मूल्य और कौशल हैं जिनको अपनाकर विकास
की प्रक्रिया भी जारी रखी जाए, मगर उसमें आधार सततता बने न कि वह बेलगाम हो जाए
और उसकी दिशा विनाश की ओर मुड़ जाए! इस समय शिक्षाविदों, चिंतकों
तथा विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों के समक्ष ऐसी शिक्षा व्यवस्था की संकल्पना को
साकार रूप देने की आवश्यकता है जो विकास और प्रगति को
सततता का सुदृढ़ आधार प्रदान कर सके। इसके लिए प्राचीन भारत के मनीषियों ने जो
दर्शन दिया था उसका पुन: अध्ययन तथा चिंतन आवश्यक है। वह आज भी अपना महत्व रखता
है। इसे विश्वव्यापी चर्चा में लाने के लिए प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के
उन तत्वों के अंतर्निहित महत्व को समझाने का समय आ गया है जिनमें पेड़-पौधे,
जीव-जंतुओं, नदियों-पहाड़ों-जंगलों में देवत्व
देखने की बात कही गई थी, प्रकृति के साथ संवेदनात्मक संबंधों
की महत्ता को वर्णित किया गया था।
इस समय भारत
में शिक्षा की नई नीति की उत्सुकता से प्रतीक्षा हो रही है। नई नीति के लागू होने
में कितना समय लगेगा यह कहना तो कठिन होगा, मगर शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर बहुत कुछ नया करने के निर्णय वैश्विक आधार पर लिए गये हैं
जिनमें भारत की सजग और सक्रिय भागीदारी है। 25 से 27 सितंबर 2015 को संयुक्त राष्ट्र महासभा को
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘2015 के बाद का विकास एजेंडा’
स्वीकृत होने के समय संबोधित भी किया था। इसमें मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स के स्थान पर ‘सस्टेनेबल
डेवलपमेंट गोल्स-2030’ यानी सतत विकास लक्ष्य-2030 को स्वीकार किया गया। इसमें चौथे लक्ष्य के रूप
में शिक्षा को यूं शामिल किया गया था, ‘समावेशी और न्यायसंगत
गुणवत्ता युक्त शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही सभी को सीखने का अवसर
देना।’ चौथे क्रम में शिक्षा का आना पहले तीन के रूप में
गरीबी की पूर्ण समाप्ति, भूख की समाप्ति तथा खाद्य सुरक्षा
और स्वस्थ जीवन को बढ़ावा देने की मूलभूत आवश्यकता के साथ ही समग्रता में देखा गया
था और उसी के अनुरूप वैश्विक समाज को अपनी कार्ययोजनाओं का निर्धारण करने पर सहमति
बनी थी। वर्ष 2000 के बाद सभी के लिए प्रारंभिक शिक्षा के
लक्ष्य प्राप्त करने में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। विकासशील क्षेत्रों में नामांकन
91 प्रतिशत तक पहुंचा है। साक्षरता
दर बढ़ी है और लड़कियों के शिक्षा में आने से भी इसमें भी वृद्धि हुई है।
अपेक्षा तो यही है कि भारत की शिक्षा नीति और उसके क्रियान्वयन के
लिए बनने वाले कार्यक्रम में वैश्विक स्तर पर निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के
प्रयास शामिल रहेंगे। सबसे महत्वपूर्ण अपेक्षा तो 2030 तक सभी लड़कों
और लड़कियों को नि:शुल्क, अनिवार्य प्रारंभिक और माध्यमिक
स्तर तक की शिक्षा प्रदान करना तय हुआ है। इसके लिए स्कूल-पूर्व की शिक्षा की
व्यवस्था की उपलब्धता को आवश्यक माना गया है। भारत में नि:शुल्क का अर्थ ही
धीरे-धीरे बदल गया है। स्कूली शिक्षा में निजी स्कूलों के आने से तथा सरकारी
स्कूलों की साख लगातार कम होने के कारण स्थिति लगातार विषम होती जा रही है।
मध्यवर्ग के अधिकांश परिवार निजी स्कूलों में अपने
बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इन स्कूलों में नामांकन तेजी से बढ़
रहे हैं और जल्द ही ये आधे से अधिक हो जाएंगे। 2011 तथा 2015
के बीच के केवल चार साल के अंतराल में सरकारी स्कूलों में 1.1
करोड़ नामांकन कम हुए और उसी दौरान निजी स्कूलों में 1.6 करोड़ बढे़! एक अनुमान के अनुसार निजी स्कूलों मेंमाता-पिता प्रारंभिक
शिक्षा तथा माध्यमिक शिक्षा पर अपनी कुल आमदनी का 24 प्रतिशत
तथा 38 प्रतिशत खर्च करते हैं।
लगभग सभी पालकों को निजी स्कूलों द्वारा लगातार बढ़ते शोषण का सामना
करना पड़ रहा है। अनेक राज्य सरकारें इन पर नियंत्रण करने के लिए नियम बनाने की
घोषणा करती हैं, मगर उनका पालन करा पाना लगभग असंभव ही पाया गया
है। कारण स्पष्ट है- पालकों के पास कोई विकल्प नहीं है, सरकारी
स्कूलों की स्थिति सुधारने के कोई सुनियोजित प्रयास सामने नहीं आ रहें हैं। चूंकि
स्कूल-पूर्व की शिक्षा का महत्व अब माता-पिता भी अच्छी तरह समझते हैं और उसका सरकारी स्कूलों में उपलब्ध न होना भी उन्हें निजी स्कूलों की और जाने के
लिए बाध्य करता है। सरकारी स्कूलों में इसे उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती है। इसका
सीधा संबंध स्कूल शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़ता है। सभी के लिए कौशल प्रशिक्षण और
व्यावसायिक शिक्षा की उपलब्धता का प्रबंध करना एक ऐसा आवश्यक लक्ष्य है जिसका कोई
विकल्प है ही नहीं! कौशलों में बच्चों की रुचि का विकास तो प्रारंभिक स्तर से ही
शुरू हो जाना चाहिए जिसके भविष्य में बहुत फायदे होंगे।
इस समय अधिकांश देश नव-चिंतन के साथ शिक्षा नीति, क्रियान्वयन कार्यक्रम, पाठ्यक्रम तथा पाठ्य-सामग्री
तैयार करने की ओर बढ़ रहे हैं जो मनुष्य और प्रकृति के बीच की जर्जर हो रही कड़ी को
पुन: जीवंत बना सकें। ‘सतत विकास लक्ष्य-2030 की सूची में चौथे लक्ष्य शिक्षा की प्राप्ति के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों
में भारत अपने वृहद अनुभव के आधार पर एक योगदान दे सकता है। इस दिशा में
मार्गदर्शन के लिए कई देश आज भी भारत की ओर देखते हैं। इसका सार्थक उपयोग होना ही चाहिए।