23 अप्रैल 1782 – 26 अप्रैल 1857
बाबू कुंवर सिंह सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और
महानायक थे। अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू
कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे। इनको 80 वर्ष की
उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है।
वीर कुंवर सिंह का जन्म 23
अप्रैल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा
सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु
सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के
खातिर सदा लड़ते रहे।
1857 में
अंग्रेजों को भारत से भगाने
के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पांडे की बहादुरी ने सारे देश में
विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू
कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के
सिपाहियों, भोजपुरी जवानों
और अन्य साथियों के साथ आरा नगर
पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी
फौज ने आरा पर हमला करने की
कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह
और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते
रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुरएवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस
बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश
सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध
के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों
को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।'
आज के दौर में जिन मुद्दों पर सहमति और असहमति के बीच की दूरी कम होती नहीं
दिख रही है, उसे बाबू कुंवर सिंह ने सर्वग्राहय बना दिया था। उन्होंने विभिन्न समुदाय
के लोगों को संगठित कर अंग्रेजों को मजबूर कर दिया। गिरधारी अग्रवाल ने लिखा है-‘‘सन 1857 की क्रांति में 80 वर्षीय योद्धा ने अपने युद्ध कौशल व पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा
दिये। इस युद्धवीर ने 25 जुलाई 1857 से लेकर 23 अप्रैल 1858 तक के इस नौ माह के युद्ध में पंद्रह भयानक लड़ाइयां लड़ीं और यूनियन जैक
का झण्डा उतरवाकर देश का झण्डा लहराया।’टीआर होम्स ने लिखा
है,‘‘एक ऐसा व्यक्ति बिहार में था, जो आयु में लॉयड से भी वृद्ध था, युवावस्था के
उमंग से भरा था और अंग्रेजों को परास्त करने के लिये संकल्पबद्व था।’ इसलिए भी कि बाबू कुंवर सिंह जाति के नहीं, जमात
के नेता थे। एक धर्म के नहीं, सर्वधर्म समभाव के आग्रही
थे। यही कारण है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू, मुस्लिम, दलित एवं पिछड़ी जाति के लोगों ने
उनका भरपूर साथ दिया। अली करीम, वारिस अली इब्राहिम खां
(गाजीपुर, यूपी) बाबू कुंवर सिंह के सैन्य अफसर व निजी
सेवक थे जबकि किफायत हुसैन, द्वारिका माली, रणजीत ग्वाला, देवी ओझा एवं शंकर मिश्र आम जनता
के प्रतिनिधि थे। उनके पंच में दलित समुदाय के लोग रखे गये थे। आरा में कुंवर सिंह
ने शासन स्थापित कर मो. आहिया खान को मजिस्ट्रेट बनाया। मिल्की मुहल्ला के शेख
मुहम्मद अजीमुद्दीन को पूर्वी थाने का जमादार तथा तुराव अली व खादिम अली को इन
थानों का कोतवाल बनाया।बाबू साहब रण कौशल में पारंगत होने के साथ सामाजिक सद्भाव
एवं दानशीलता के प्रतीक थे। उन्होंने मंदिर, मस्जिद, स्कूल, बांध और पइन के निर्माण सहित शिक्षा के
प्रसार-प्रचार पर जिस उदारता की परिचय दिया, वह इतिहास
में विरले ही दिखता है। आरा का धर्मन मस्जिद का निर्माण कराकर बाबू साहब ने
साम्प्रदायिक सद्भाव और सहिष्णुता का परिचय दिया। जगदीशपुर में उन्हीं के गढ़ से
ताजिया निकलने की परम्परा आज भी बरकरार है। बाबू कुंवर सिंह में उदारता, मानवीयता एवं करुणा का ऐसा सम्मिशण्रथा जो उनके व्यक्तित्व को देवोपम बना
देता है। अंग्रेज लेखक हाल (जो आरा स्टेशन पर सहायक सर्जन था) ने लिखा है कि
संघर्ष के क्रम में कुछ यूरोपियन तथा कुछ अंग्रेज परिवार कुंवर सिंह के अधिकार में
चले गये थे, लेकिन उनके साथ बाबू साहब ने मानवीय
व्यवहार किया। पीजीओ टेलर ने भी लिखा है कि आरा में किसी अंग्रेज या उनके समर्थकों
की हत्या निरुदेश्य नहीं की गयी। अपने लोगों के मध्य बाबू कुंवर सिंह कितने प्रिय
थे, इसका उदाहरण 21 अप्रैल
को उनके गंगा पार करने के अवसर पर भी दिखा। आजमगढ़ जिला के मजिस्ट्रेट आर. डेविस
जो शिवपुर (बलिया यू.पी.) पर ब्रिटिश सेना के साथ कैम्प कर रहा था, ने लिखा है कि आरा मजिस्ट्रेट के कड़े निर्देश के पश्चात् सारी नावें गंगा
नदी से हटा ली गयी थीं बावजूद बाबू कुंवर सिंह की सेना को पार कराने के लिये गंगा
में नावें लहराने लगीं। उदार एवं दानी होने के कारण उनकी बड़ी राशि परोपकार व समाज
कल्याण पर व्यय होती थी। किसानों की मालगुजारी माफ करने एवं समय-समय पर सहायता
देना उनका स्वभाव था। परिणामत: खजाना खाली रहता था। उनकी दानशीलता का किस्सा
शाहाबाद के घर-घर में प्रचलित है। एक गरीब ब्राहमण ने दीनता का प्रदर्शन के लिये
अजीबोगरीब पद्धति अपनायी। उसने अपने बच्चों को पशुवत घास चरने के लिये उसी मार्ग
पर प्रेरित किया, जिधर से बाबू साहब हाथी पर सवार होकर
गुजर रहे थे। कुंवर सिंह के पूछने पर ब्राह्मण ने कहा कि बहुत दिनों से घर में
चूल्हा नहीं जला है। ये बच्चे भूख से विवश हैं। बाबू साहब ने बच्चों से कहा कि
बच्चों सीधे खेत में दौड़ो। कहा जाता है कि बच्चे 40 बीधा तक खेत में दौड़कर थक गये। कुंवर सिंह ने इतनी भूमि उस ब्राहमण को
दान कर दी। यह भूमि आज भी ‘‘दूब चरना बधार’ के रूप में जानी जाती है। कभी उनके जंगल एवं बाग के आम-महुआ आदि के फल
अथवा लकड़ी की नीलामी नहीं की गयी, बल्कि इसका उपयोग आम
जनता करती थी। भोजपुर जनपद के चरपोखरी प्रखंड के अन्तर्गत एक गांव है बावू बांध।
बाबू साहब ने किसानों की सिंचाई के लिये यहां बांध बनवाया था जो आज भी बाबू बांध
के नाम से जिले में मशहूर है। इसी तरह पीरो प्रखंड के बागर गांव के किसानों के
अनुरोध पर कुंवर सिंह ने सिचाई के लिये एक पइन (बड़ी आहर) का निर्माण कराया था, लोग उसे ‘‘बाबू का पइन’ के रूप में जानते हैं।
इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को
इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस रणबाँकुरे ने जगदीशपुर किले से गोरे पिस्सुओं का
"यूनियन जैक" नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में
लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।
आज बाबू वीर कुंवर सिंह की जयंती
विजयोत्सव के रूप में मनायी जाती है।