फाइव स्टार स्कूल नहीं सस्ती शिक्षा मिले
मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दिलाने की गोपाल कृष्ण गोखले की कोशिश को भले ही ब्रिटिश विधान परिषद ने 18 मार्च 1910 को खारिज कर दिया, लेकिन इसके ठीक 99 साल बाद इतिहास बदला गया। आजाद भारत की संसद ने शिक्षा के अधिकार को संवैधानिक दर्जा देकर स्वतंत्रता सेनानियों के सपने को तो पूरा किया ही, समाज के दबे-कुचले वर्ग में शिक्षित होकर आगे बढ़ने की उम्मीद भी बढ़ा दी। लेकिन आज उन लोगों की आशा लगभग टूट सी गई है। जैसा कि अक्सर होता है, कानूनों के अपने पेच और प्रावधान भी कई बार अपने मूल उद्देश्यों की राह में रोड़े बनने लगते हैं। शिक्षा का अधिकार कानून भी इसी राह पर चल पड़ा है। इसका असर यह हुआ कि कई छोटे और निजी स्कूलों की राह कठिन होती गई है। संवैधानिक प्रावधानों के तहत जरूरी शर्तें न पूरा करने के चलते कई स्कूल बंद होने लगे हैं। अकेले दिल्ली में ही करीब 800 स्कूल ऐसे रहे, जो संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक 800 गज की जगह की शर्त पूरी न कर पाए और उन्हें या तो बंद होना पड़ा या वे बंदी की राह पर हैं। चूंकि ये सस्ते हैं और स्थानीय स्तर पर कमजोर तबके की बस्तियों के लोगों को उनके बजट में शिक्षा उपलब्ध कराते रहे हैं, लिहाजा उनकी बंदी का असर कमजोर तबके के लोगों के बच्चों की शिक्षा पर पड़ रहा है। इसके खिलाफ देशभर के स्कूल लामबंद हो गए हैं।
अध्यापक की कद्र
बीते शनिवार देशभर के स्कूल संचालकों, शिक्षकों व अभिभावकों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में नैशनल इंडिपेंडेंट स्कूल अलायंस यानी नीसा के बैनर तले प्रदर्शन किया। उन्होंने संवैधानिक शर्तों में छूट के साथ ही स्थानीय स्तर पर शिक्षा व्यवस्था को बहाल रखने की मांग की। यह ऐतिहासिक सत्य है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था उन्नीसवीं सदी के पहले तक राज्य पोषित नहीं थी, बल्कि समाज पोषित रही। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में अध्यापक की भूमिका सामाजिक ज्यादा थी। वे जीविकोपार्जन के तौर पर इसे नहीं लेते थे। इसलिए समाज उनका ध्यान रखता रहा। 1857 की विफल क्रांति के बाद जब भारत की शासन-व्यवस्था महारानी विक्टोरिया के अधीन आई तो उसे राज्य पोषित बनाने की शुरुआत हुई। गांधीजी इस व्यवस्था को संतुलित करना चाहते थे। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत राज्यों को जिन आठ विषयों के शासन का जिम्मा दिया गया, उनमें एक प्राथमिक शिक्षा भी थी। गुलामी की जंजीरों में तब तक भारत की शिक्षा-व्यवस्था बदहाल हो चुकी थी। इसलिए गांधीजी ने डॉ. जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में वर्धा में भावी शिक्षा को लेकर बैठक बुलाई थी। उसके पहले गांधीजी ने खुद ही भावी शिक्षा-व्यवस्था का खाका खींच दिया जिसे बेसिक या बुनियादी शिक्षा कहा गया। बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में व्यक्ति के संपूर्ण विकास और शुरुआत से ही स्वावलंबन पर जोर था। आजाद भारत में 1986 की नई शिक्षा नीति के पहले तक गांधी की सोच पर आधारित व्यवस्था ही रही। जिसके प्रमुख कर्णधार अपनी बदहाल व्यवस्था के बावजूद सरकारी स्कूल ही रहे। लेकिन उदारीकरण के बाद हालात बदलते चले गए। राज्यों ने वोट बैंक की राजनीति के तहत सरकारी स्कूलों में मनमानी भर्तियां कीं, प्रतिबद्ध अध्यापकों की उपेक्षा की। इसका असर यह हुआ कि सरकारी स्कूल पिछड़ते गए और उनमें अपने बच्चों को पढ़ाने से वह तबका भी हिचकने लगा, जो खुद सरकारी टाट-पट्टी वाले स्कूलों से निकलकर समाज, प्रशासन या कारोबार में ऊंचे दर्जे पर पहुंचा था।
शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि सरकारी व्यवस्था वाली शिक्षा में सुधार होगा, लेकिन इक्का-दुक्का प्रयासों को छोड़ दें तो हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। इसी वजह से कभी कुछ कमाई के लिए तो कुछ सामाजिक सरोकारों के चलते निजी स्कूल आए, लेकिन उन्हें भी शर्तें न पूरी करने के चलते बंदी का सामना करना पड़ रहा है। हाल के दिनों में गुड़गांव के एक पब्लिक स्कूल में बच्चे की हत्या और नोएडा के एक स्कूल में अध्यापकों की बदसलूकी के चलते एक छात्रा की खुदकुशी जैसे मामलों से स्कूलों के प्रति गुस्सा बढ़ा है। इसके साथ ही स्कूलों पर मनमानी फीस बढ़ोतरी का भी आरोप लगा। वैसे तो बच्चों से ज्यादती कम ही शिक्षक करते हैं, लेकिन हाल के दिनों में उन पर डांटने-फटकारने के साथ ही अनुशासन लागू करने को लेकर कड़ाई न बरतने का जोर बढ़ा है। हरियाणा में स्कूल में घुसकर अध्यापक को गोली मारने की घटना को भले अपवाद मानकर अनदेखा किया जाए, दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल में छात्र द्वारा अपनी ही महिला अध्यापक की पिटाई का कैसे बचाव किया जा सकता है? नीसा का कहना है कि ऐसे हालात की वजह से अध्यापक डरे रहते हैं और डरा हुआ अध्यापक बहादुर बच्चा नहीं तैयार कर सकता।
परंपरा की नींव
भारत में यह बदलाव इसलिए आ रहा है, क्योंकि शिक्षा को महलों में ले जाने की कोशिश बढ़ी है। जिस भारतीय परंपरा में राजकुमार को भी झोंपड़ी में जाकर पढ़ाई करनी होती थी, वहां ऐसे बदलावों पर स्वाभाविक रूप से सवाल उठने लगे हैं। लेकिन अब भी बड़ी संख्या में बच्चे बजट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसलिए नीसा ने कई मुद्दे उठाए हैं। इनमें प्रमुख है- बजट स्कूलों को छूट देना। शिक्षा को फाइव स्टार संस्कृति में ढालने के बजाय उसे गुणवत्ता युक्त बनाना। स्कूल वाहनों को एंबुलेंस की तरह रास्ता देने, अध्यापकों को आयकर के दायरे से मुक्त करने और बच्चों को सीधा कैश ट्रांसफर के जरिए फंडिंग करने की मांगें भी शामिल हैं। नीसा की इस दलील से असहमत होना मुश्किल है कि भारतीय परंपरा की नींव पर आगे बढ़कर ही हर बच्चे को शिक्षा मुहैया कराने का सपना पूरा किया जा सकता है।