Sunday, April 9, 2017

सरकारी विद्यालयों से मोहभंग

सरकारी विद्यालयों से मोहभंग


सरकारी शिक्षा लंबे समय से भरोसे के संकट से जूझ रही है। यह संकट एक-दो दिन में नहीं आया, बल्कि शिक्षा को लेकर सरकार की नीति में लंबे समय तक खोट बरकरार रहने का नतीजा है। इसका सबसे अधिक खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। राज्य में सरकारी शिक्षा को लेकर जनता के खोये विश्वास को लौटाने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है। शिक्षा महकमे और सरकार की ओर से तमाम प्रयासों के बावजूद प्राथमिक से लेकर माध्यमिक स्तर तक सरकारी विद्यालयों में साल-दर-साल छात्रसंख्या तेजी से गिरती जा रही है। यही हाल रहा तो भविष्य में बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालयों पर बंदी की तलवार लटक सकती है। तकरीबन दो हजार प्राथमिक और अपर प्राथमिक विद्यालयों में छात्रसंख्या दस से कम रह गई है। यह समस्या अब माध्यमिक विद्यालयों को भी अपनी चपेट में ले रही है। गुजरे शैक्षिक सत्र में सरकारी विद्यालयों में 51 हजार से ज्यादा छात्र घट गए। ये हाल तब हैं, जब सरकार की ओर से बीते शैक्षिक सत्र में भी विद्यालयों में नामांकन बढ़ाने की व्यापक मुहिम छेड़ी गई थी। नए शैक्षिक सत्र में भी यह मुहिम चलाई गई। छात्रसंख्या में वृद्धि हुई या और कमी आ गई, कुछ महीनों बाद ये तस्वीर साफ हो जाएगी। सवाल ये है कि सरकारी शिक्षकों की संख्या बढऩे के बावजूद इन विद्यालयों से छात्रों और अभिभावकों का मोहभंग थम क्यों नहीं पा रहा है। संसाधनों के मामले में भी सरकारी विद्यालयों की दशा में सुधार हो रहा है। इसके बाद भी हालात जस के तस या और बदतर हो रहे हैं तो ये गंभीर मनन का विषय है। शिक्षा को लेकर सरकार की नीति और नीयत दोनों में ही खामी है। चिंताजनक ये है कि खामियों को दुरुस्त कर शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने की इच्छाशक्ति कमजोर पड़ चुकी है। शिक्षा से जुड़ी विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की सर्वे रिपोर्ट में कई बार ये जाहिर हो चुका है कि शिक्षा के केंद्र में छात्र या बच्चा नहीं है। शिक्षा की नीति बच्चे की जरूरत के इर्द-गिर्द होने के बजाए राज्य में रोजगार की जरूरतों को पूरा करने का जरिया बन गई है। शिक्षा के क्षेत्र में रोजगार की जरूरत पूरा करते वक्त ये ध्यान देने की कोशिश कतई नहीं की जा रही है कि इसका उद्देश्य प्रदेश के भावी कर्णधारों का भविष्य निर्माण है। शिक्षा की गुणवत्ता और उसमें बच्चे की जरूरत के मुताबिक निरंतर सुधार की चुनौती से जूझने की दृष्टि का नितांत अभाव नजर आता है। शिक्षा पर सालाना करीब पांच हजार करोड़ खर्च होने के बाद भी बदहाली बढऩा तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करने को काफी है। कभी सरकारी विद्यालयों की राह तकने वाले दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में अब अभिभावक अपने पाल्यों को नजदीकी निजी विद्यालयों में भेजना ज्यादा उचित समझने लगे हैं। भरोसे का ये संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इसका दुष्परिणाम शिक्षा का बाजार फूलने-फलने के रूप में सामने है।
साभार दैनिकजागरण
[ स्थानीय संपादकीय : उत्तराखंड ]



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