द्वितीय विश्व
युद्ध के दौरान सन 1942 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज या इन्डियन
नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया। इस
सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना का विचार
सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए इंडियन
इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।
आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़
दिया पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ
होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने
का निश्चय किया।
एक वर्ष बाद सुभाष चन्द्र
बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना
बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व
बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। इससे
प्रफुल्लित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सौंप दिया।[6]
5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष
चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के
साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। बोस ने
अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के
सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुययी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।
अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को
सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को
दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा
गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर
स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष
चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों
से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को
उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ठ की और आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा लड़ी जा रही इस
निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं:-मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका
हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना
चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी
में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के
लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद
हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता
के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र
बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड बना कर उन्हें नाम
दिये:- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू
ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस
ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।
21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।
22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा –
हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं
तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।
फ़रवरी से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने
जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व
युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया
किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। आज़ाद
हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945
ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया,
किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। आज़ाद हिन्द फ़ौज के
गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िला में नवम्बर, 1945 ई. को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के
मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया
गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन
तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी
प्रतिक्रिया हुई, आम जनमानस भड़क उठे और और अपने दिल में जल
रहे मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे
लगाये गये- लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो। विवश होकर
तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ करा
दिया।
निस्सन्देह सुभाष उग्र राष्ट्रवादी थे। उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव भी था और वे भारत को
शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाने हेतु हिंसात्मक उपायों में आस्था भी रखते थे।
इसीलिये उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।"
यद्यपि आज़ाद हिन्द फौज के
सेनानियों की संख्या के बारे में थोड़े बहुत मतभेद रहे हैं परन्तु ज्यादातर
इतिहासकारों का मानना है कि इस सेना में लगभग चालीस हजार सेनानी थे। इस संख्या का
अनुमोदन ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने
भी किया है।
जब जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा किया था तो लगभग 45 हजार भारतीय सेनानियों
को पकड़ा गया था।
मोहनसिंह की
पहल पर एक जापानी अधिकारी के सहयोग से आजाद हिंद फौज का गठन किया गया था. मोहन
सिंह के हाथों में इसकी कमान दी गई थी. मगर नेतृत्व क्षमता में कुशलता की कमी तथा
संगठन को सुचारू रूप से नही चला पाने के कारण कुछ ही समय में आजाद हिन्द फौज का
संगठन मृतप्रायः हो गया.
जब नेताजी साउथ एशिया में
आए और संगठन की प्रगति के बारे में जाना तो उन्हें लगा कि अब फिर से आजाद हिन्द
फौज को उठाकर भारत की आजादी का संग्राम लड़ना होगा. 4 जुलाई 1943 को इंडियन इंडिपेंडेंस
लीग के प्रवासी भारतीयों की बैठक बुलाई गई, सभी ने
सर्वसम्मति से नेताजी को अपना नेता बनाया तथा सुभाष जी ने नेतृत्व अपने हाथ में
लेकर संगठन को फिर से खड़ा किया।
आज़ाद हिन्द
फौज़ के गुमनाम शहीदों की याद में सिंगापुर के एस्प्लेनेड पार्क में आईएनए वार मेमोरियल बनाया गया था। आज़ाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमाण्डर सुभाष चन्द्र बोस ने 8
जुलाई 1945 को इस स्मारक पर जाकर उन अनाम सैनिकों
को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। बाद में इस स्मारक को माउण्टबेटन के आदेश पर ब्रिटिश साम्राज्य की
सेनाओं ने ध्वस्त करके सिंगापुर शहर पर कब्जा कर लिया था। इस स्मारक पर आज़ाद हिन्द फौज़ के तीन ध्येयवाचक
शब्द - इत्तेफाक़ (एकता), एतमाद (विश्वास) और कुर्बानी (बलिदान) लिखे हुए थे।
सन् 1995 में सिंगापुर की राष्ट्रीय धरोहर परिषद
(नेशनल हैरिटेज बोर्ड) ने वहाँ निवास कर रहे भारतीय समुदाय के लोगों के आर्थिक
सहयोग से इण्डियन नेशनल आर्मी की बेहद खूबसूरत स्मृति पट्टिका उसी ऐतिहासिक स्थल पर फिर से
स्थापित कर दी। इसकी देखरेख का काम सिंगापुर की सरकार करती है
आजाद हिन्द फौज का प्रयाण गीत (क्विक मार्च) था जिसकी रचना राम सिंह ठकुरि ने की थी। इस ट्यून का आज भी भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में इसका प्रयोग होता है।