Saturday, May 15, 2021

अल्लूरी सीताराम राजू


Alluri Sitarama Raju;
4 जुलाई, 1897 - 7 मई1924
अल्लूरी सीताराम राजू भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने वाले वीर क्रांतिकारी शहीदों में से एक थे। उन्हें औपचारिक शिक्षा बहुत कम मिल पाई थी। अपने एक संबंधी के संपर्क से वे अध्यात्म की ओर आकृष्ट हुए तथा 18 वर्ष की उम्र में ही साधु बन गए। सन 1920 में अल्लूरी सीताराम पर महात्मा गांधी के विचारों का बहुत प्रभाव पड़ा और उन्होंने आदिवासियों को मद्यपान छोड़ने तथा अपने विवाद पंचायतों में हल करने की सलाह दी। किंतु जब एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्ति का गांधी जी का स्वप्न साकार नहीं हुआ तो सीताराम राजू ने अपने अनुयायी आदिवासियों की सहायता से अंग्रेज़ों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करके स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न आंरभ कर दिए।
अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई1897 ई. को पांडुरंगी गाँवविशाखापट्टनमआन्ध्र प्रदेश में हुआ था। वह क्षत्रिय परिवार से सम्बन्ध रखते थे। उनकी माता का नाम सूर्यनारायणाम्मा और पिता का नाम वेक्टराम राजू था। उन्हें अपने पिता के प्यार से बहुत शीघ्र ही वंचित हो जाना पड़ा। सीताराम राजू की अल्पायु में ही पिता की मृत्यु हो गयी, जिस कारण वे उचित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। बाद में वे अपने परिवार के साथ टुनी रहने आ गये। यहीं से वे दो बार तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान कर चुके थे।
पहली तीर्थयात्रा के समय वे हिमालय की ओर गये। वहाँ उनकी मुलाक़ात महान् क्रांतिकारी पृथ्वीसिंह आज़ाद से हुई। इसी मुलाक़ात के दौरान इनको चटगाँव के एक क्रांतिकारी संगठन का पता चला, जो गुप्त रूप से कार्य करता था। सन 1919-1920 के दौरान साधु-सन्न्यासियों के बड़े-बड़े समूह लोगों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए व संघर्ष के लिए पूरे देश में भ्रमण कर रहे थे। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए सीताराम राजू ने भी मुम्बईबड़ोदराबनारसऋषिकेशबद्रीनाथअसमबंगाल और नेपाल तक की यात्रा की। इसी दौरान उन्होंने घुड़सवारी करना, तीरंदाजीयोग, ज्योतिष व प्राचीन शास्त्रों का अभ्यास व अध्ययन भी किया। वे काली माँ के उपासक थे।
अपनी तीर्थयात्रा से वापस आने के बाद सीताराम राजू कृष्णदेवीपेट में आश्रम बनाकर ध्यान व साधना आदि में लग गए। उन्होंने संन्यासी जीवन जीने का निश्चय कर लिया था। दूसरी बार उनकी तीर्थयात्रा का प्रयाण नासिक की ओर था, जो उन्होंने पैदल ही पूरी की थी। यह वह समय था, जब पूरे भारत में 'असहयोग आन्दोलन' चल रहा था। आन्ध्र प्रदेश में भी यह आन्दोलन अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था। इसी आन्दोलन को गति देने के लिए सीताराम राजू ने पंचायतों की स्थापना की और स्थानीय विवादों को आपस में सुलझाने की शुरुआत की। सीताराम राजू ने लोगों के मन से अंग्रेज़ शासन के डर को निकाल फेंका और उन्हें 'असहयोग आन्दोलन' में भाग लेने को प्रेरित किया।
कुछ समय बाद सीताराम राजू ने गांधी जी के विचारों को त्याग दिया और सैन्य सगठन की स्थापना की। उन्होंने सम्पूर्ण रम्पा क्षेत्र को क्रांतिकारी आन्दोलन का केंद्र बना लिया। मालाबार का पर्वतीय क्षेत्र छापामार युद्ध के लिए अनुकूल था। इसके अलावा क्षेत्रीय लोगों का पूरा सहयोग भी उन्हें मिल रहा था। आन्दोलन के लिए प्राण तक न्यौछावर करने वाले लोग उनके साथ थे। इसीलिए आन्दोलन को गति देने के लिए गुदेम में गाम मल्लू डोरे और गाम गौतम डोरे बंधुओ को लेफ्टिनेट बनाया गया। आन्दोलन को और तेज़ करने के लिए उन्हें आधुनिक शस्त्र की आवश्यकता थी। ब्रिटिश सैनिकों के सामने धनुष-बाण लेकर अधिक देर तक टिके रहना आसान नहीं था। इस बात को सीताराम राजू भली-भाँति समझते थे। यही कारण था कि उन्होंने डाका डालना शुरू किया। इससे मिलने वाले धन से शस्त्रों को ख़रीद कर उन्होंने पुलिस स्टेशनों पर हमला करना शुरू किया। 22 अगस्त1922 को उन्होंने पहला हमला चिंतापल्ली में किया। अपने 300 सैनिकों के साथ शस्त्रों को लूटा। उसके बाद कृष्णदेवीपेट के पुलिस स्टेशन पर हमला कर किया और विरयया डोरा को मुक्त करवाया।
अल्लूरी सीताराम राजू की बढ़ती गतिविधियों से अंग्रेज़ सरकार सतर्क हो गयी। ब्रिटिश सरकार जान चुकी थी की अल्लूरी राजू कोई सामान्य डाकू नहीं है। वे संगठित सैन्य शक्ति के बल पर अंग्रेज़ों को अपने प्रदेश से बाहर निकाल फेंकना चाहते है। सीताराम राजू को पकड़वाने के लिए सरकार ने स्कार्ट और आर्थर नाम के दो अधिकारियों को इस काम पर लगा दिया। सीताराम राजू ने ओजेरी गाँव के पास अपने 80 अनुयायियों के साथ मिलकर दोनों अंग्रेज़ अधिकारियों को मार गिराया। इस मुठभेड़ में ब्रिटिशों के अनेक आधुनिक शस्त्र भी उन्हें मिल गए। इस विजय से उत्साहित सीताराम राजू ने अंग्रेज़ों को आन्ध्र प्रदेश छोड़ने की धमकी वाले इश्तहार पूरे क्षेत्र में लगवाये। इससे अंग्रेज़ सरकार और भी अधिक सजग हो गई। उसने सीताराम राजू को पकड़वाने वाले के लिए दस हज़ार रुपये इनाम की घोषणा करवा दी। उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए लाखों रुपया खर्च किया गया। मार्शल लॉ लागू न होते हुए भी उसी तरह सैनिक बन्दोबस्त किया गया। फिर भी सीताराम राजू अपने बलबूते पर सरकार की इस कार्यवाही का प्रत्युत्तर देते रहे। ब्रिटिश सरकार लोगों में फुट डालने का काम सरकार करती थी, लेकिन अल्लूरी राजू की सेना में लोगों के भर्ती होने का सिलसिला जारी रहा।
ब्रिटिश सरकार पर सीताराम राजू के हमले लगातार जारी थे। उन्होंने छोड़ावरन, रामावरन् आदि ठिकानों पर हमले किए। उनके जासूसों का गिरोह सक्षम था, जिससे सरकारी योजना का पता पहले ही लग जाता था। उनकी चतुराई का पता इस बात से लग जाता है की जब पृथ्वीसिंह आज़ाद राजमहेन्द्री जेल में क़ैद थे, तब सीताराम राजू ने उन्हें आज़ाद कराने का प्रण किया। उनकी ताकत व संकल्प से अंग्रेज़ सरकार परिचित थी। इसलिए उसने आस-पास के जेलों से पुलिस बल मंगवाकर राजमहेंद्री जेल की सुरक्षा के लिए तैनात किया। इधर सीताराम राजू ने अपने सैनिकों को अलग-अलग जेलों पर एक साथ हमला करने की आज्ञा दी। इससे फायदा यह हुआ की उनके भंडार में शस्त्रों की और वृद्धि हो गयी। उनके इन बढ़ते हुए कदमों को रोकने के लिए सरकार ने 'असम रायफल्स' नाम से एक सेना का संगठन किया। जनवरी से लेकर अप्रैल तक यह सेना बीहड़ों और जंगलों में सीताराम राजू को खोजती रही। मई 1924 में अंग्रेज़ सरकार उन तक पहुँच गई। 'किरब्बू' नामक स्थान पर दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ।
6 मई 1924 को राजू के दल का मुकाबला सुसज्जित असम राइफल्स से हुआ, जिसमें उसके साथी शहीद हो गए, पर राजू बचा रहा। अब ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस उसे पहा़डयों के चप्पेचप्पे में खोज रही थी। 7 मई 1924 को जब वह अकेला जंगल में भटक रहा था, तो सहसा उसकी खोज में वन पर्वतों को छानते फिर रहे फोर्स के अफसर की नजर राजू पर प़ड गई। उसने राजू का छिपकर पीछा किया। यद्यपि वह राजू को पहचान नहीं सका था, क्योंकि उस समय राजू ने लंबी द़ाढी ब़ढा ली थी। पुलिस दल ने राजू पर पीछे से गोली चलाई। राजू जख्मी होकर वहीं गिर प़डे। तब राजू ने स्वयं अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं ही सीताराम राजू हूंगिरफ्तारी के साथ ही यातनाएं शुरू हुई। अंततः उस महान क्रांतिकारी को नदी किनारे ही एक वृक्ष से बांधकर भून दिया गया। एक क्रांतिकारी की इससे श्रेष्ठ शहादत और क्या हो सकती थी। इस बलिदान के साक्ष्य थे गोदावरी नदी और नल्लईमल्लई की पहा़डयां, जहां आज भी अल्लूरी सीताराम राजू जिंदा है। आदिवासियों की आत्मा में देवता स्वरूप। लोकगीतों में लोकनायक के रूप में।

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