Wednesday, May 29, 2019

व्यवस्था के साथ ही शिक्षकों की सोच बदलना भी जरूरी


भारत का शिक्षा तंत्र 15 लाख स्कूलों, 80 लाख से ज्यादा शिक्षकों और इन स्कूलों में 25 करोड़ से ज्यादा बच्चों के साथ दुनिया में सबसे बड़ा शिक्षा तंत्र है। भारत की 12वीं योजना में यह अनुशंसा की गई कि अध्यापकों के सेवापूर्व तथा सेवाकालीन पेशेवर विकास प्रशिक्षण की खराब गुणवत्ता की मुख्य वजह उच्च गुणवत्ता वाले शिक्षक प्रशिक्षकों का अभाव है और हमें हर राज्य के लिए अनुमानित 5,000 शिक्षक प्रशिक्षक चाहिए। अभी भारत में 29 राज्य व सात केंद्रशासित क्षेत्र हैं। इस प्रकार, अनुमानित 1,50,000 समर्पित शिक्षक प्रशिक्षकों की आवश्यकता होगी। सरकार का सबसे महत्वपूर्ण काम ऐसे विश्वविद्यालय और स्कूल स्थापित करना होना चाहिए, जो मांग के अनुरूप शिक्षा को समर्पित हों। देश में हर साल 15 लाख इंजीनियर और 50 हजार से ज्यादा डॉक्टर तैयार हो रहे हैं। मुख्य रूप से इंजीनिर्यंरग शिक्षा के क्षेत्र में निवेश के कारण भारत को सॉफ्टवेयर सेवा उद्योग में अग्रणी माना जाता है। 
हालांकि छह क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों की स्थापना के अलावा सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में और कोई कदम नहीं उठाया है। 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति अस्तित्व में आई और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा 2005 ने हमारे शिक्षा के सिद्धांत व प्रक्रिया को स्पष्ट किया। वास्तविक प्रश्न यह था कि आप ऐसे पेशेवर कैसे तैयार करते हैं, जो इन सिद्धांतों के आशय को न सिर्फ समझें, बल्कि वे उसे स्कूलों तक पहुंचाने में भी सक्षम हों? कुछ विश्वविद्यालय और निजी संस्थानों ने शिक्षा में तरह-तरह की गुणवत्ता वाले प्रासंगिक कार्यक्रम भी प्रारंभ किए, हालांकि गिनती में ये सिर्फ कुछ सौ ही थे। समय के साथ सरकार प्रतिभावान लोगों की आपूर्ति के मामले में सुस्त पड़ने लगी और जो कुछ भी किया गया था, वह न सिर्फ बहुत कम था, बल्कि काफी देरी से भी हुआ था। सरकार की उदासीनता का आलम यह था कि 2005 में जब राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा को पुनरीक्षित किया गया, तब राष्ट्रीय शिक्षक प्रशिक्षण परिषद (एनसीटीई) ने इसके साथ ही अध्यापक शिक्षा पाठ्यचर्या को पुनरीक्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया, जिससे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा में ये संशोधन सम्मिलित नहीं हो पाए।
नया पाठ्यक्रम जटिल था और कक्षा तक उसे पहुंचाना और साथ ही साथ उसे समझाना भी कठिन था। अपनी पहुंच के लिहाज से यह पाठ्यक्रम काफी हद तक क्रांतिकारी था और इससे स्वत: ही भारत में अध्यापक शिक्षा की पूरी कायापलट हो जानी चाहिए थी। यह भी स्पष्ट था कि हमें अपने अध्यापकों को बिल्कुल अलग तरह से, बड़ी तेजी से और एक लंबी समयावधि के पाठ्यचर्या (दस महीने के बीएड पाठ्यक्रम की तुलना में) द्वारा तैयार करना था। नई अध्यापक शिक्षा नीति का पुनरीक्षित प्रारूप 2009 में जारी हुआ, जिसमें अध्यापकों को एक पेशेवर के रूप में तैयार करने संबंधी सोच में कोई महवपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। यह तो अभी हाल ही में हुआ है, जब सरकार ने दो वर्ष के बीएड पाठ्यक्रम के ढांचे को स्वीकार किया है। दूसरी ओर, देश भर में हुई शिक्षक पात्रता परीक्षाओं के बहुत ही खराब परिणामों से हमारी अध्यापक शिक्षा की कमी के साथ-साथ श्रेष्ठ अध्यापक शिक्षकों का अभाव भी स्पष्ट रूप से उजागर हुआ है।
हमारे जैसे एक बड़े शिक्षा तंत्र को प्रत्येक राज्य में ऐसे शीर्ष स्तर के नेतृत्व की आवश्यकता है, जो हमारे शिक्षा के दृष्टिकोण को परिप्रेक्ष्य और गहरी समझ के साथ लेकर चल सके। शिक्षा की राष्ट्रीय नीति 1986 में भारतीय शिक्षा सेवा (आईईएस) के एक अलग विशिष्ट काडर का प्रावधान किया गया है। हालांकि इस बारे में अभी तक गंभीरता से सोचा भी नहीं गया है। बजाय इसके हमारे पास ऐसे सामान्य आईएएस अधिकारी हैं, जो शिक्षा विभाग के प्रमुख हैं और उनमें से कई को शिक्षा की बहुत ही कम या सामान्य समझ है।
यह बात और भी बुरी तब हो जाती है, जब ऐसे अधिकारियों का स्थानांतरण हो जाता है। यदि हम भारत में शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर वाकई गंभीर हैं, तो हमें यह सब बदलना होगा। केवल शिक्षा तंत्र में फेरबदल करके, ‘फ्लेवर ऑफ द ईयरजैसे अलग-अलग कार्यक्रम चलाकर और शिक्षा की गुणवत्ताको सुधारने के तरीकों पर लगातार सम्मेलन/चर्चा करने से जमीनी स्तर पर कुछ हासिल नहीं किया जा सकता।

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