सीबीएसई
परीक्षा में नाकामी पर तेलंगाना में कई छात्रों की आत्महत्या का मामला सामने आने
के बाद प्राप्तांकों और प्रतिशत से जुड़ा जुनून फिर से राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र
में है। इस बीच यह भी खबर है कि महज एक अंक से शत प्रतिशत अंक के मुकाम से पीछे रह
गई टॉपर को एक अंक से चूकने का भी मलाल रहा। अगले कुछ दिनों में और परीक्षा
परिणामों के साथ ऐसी सुर्खियां छाई रहने वाली हैं। 99
प्रतिशत अंकों का महिमामंडन कर एक ऐसा माहौल पैदा किया जा रहा है
जिसमें टॉपर्स को रोल मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है। इससे उन छात्रों के लिए
जिंदगी कठिन बनाई जा रही है जो इतने अंक नहीं ला पाते।
इससे उनमें हताशा पैदा होने के साथ ही उनके आत्मविश्वास को चोट
पहुंचती है। क्या मीडिया को 99 प्रतिशत अंकों का महिमामंडन करना चाहिए? यह प्रश्न
इसलिए, क्योंकि 90 प्रतिशत से कम अंक
लाने वाले शेष छात्र इस कारण स्वयं को दीन-हीन समझने लगते हैं। 1990 के दशक में हमारे दौर की तस्वीर ही अलग थी। तब 55 प्रतिशत
से अधिक अंक ‘गुड सेकेंड डिविजन’ हुआ
करते थे। 75 प्रतिशत से अधिक पर विशेष योग्यता, 60 प्रतिशत पर प्रथम श्रेणी और 45 प्रतिशत से कम वाले
तृतीय श्रेणी में सफल होते थे।
प्रश्न उठता है कि हम परीक्षा
तंत्र बना रहे हैं या शैक्षिक तंत्र? अंक और परीक्षाओं को ही क्षमताएं आंकने का पैमाना बनाकर हम इस पीढ़ी की
सबसे अहम कड़ी को बर्बाद कर रहे हैं। स्कूल में पढ़ाई के बाद बच्चों को कोचिंग के
लिए जाना पड़ता है ताकि 95 प्रतिशत या उससे अधिक अंक हासिल
कर सकें जिससे किसी प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला मिले। इससे प्रतिस्पर्धा,
रचनात्मकता और उनके स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं जा रहा है। उन्हें
साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक परीक्षाएं देनी पड़ती हैं ताकि
अच्छी ग्रेड हासिल कर सकें। आज के दौर में गुड सेकेंड डिविजन तो फेल होने से भी
ज्यादा खराब है।
हमें अपने शैक्षिक तंत्र पर गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा। साल
दर साल अंक प्रतिशतता बढ़ने के बावजूद अपराध, बेरोजगारी और मानसिक दुर्बलता बढ़ती जा रही हैं। सेहत का स्तर खतरनाक तेजी
से खराब हो रहा है। आज बचपन में चश्मा चढ़ जाता है, दो-दो
साल के बच्चों की रूट कनाल हो रही हैं, तीस साल से कम उम्र
वाले मधुमेह के शिकार बन रहे हैं। तकरीबन 10 प्रतिशत मानसिक
रूप से अस्वस्थ बताए जा रहे हैं। हम एक गहरे संकट में हैं और ऐसा लगता है कि जिन
लोगों के हाथ में हमारे शैक्षिक तंत्र की बागडोर है वे भारी गड़बड़ कर रहे हैं।
तीन दशक पहले लोग शिक्षक और नौकरशाह जैसे पदों पर जाकर सामाजिक बदलाव लाना चाहते
थे।
अब अधिकांश छात्र ‘हाई प्रोफाइल काम’ चाहते हैं।
अब सामाजिक प्रभाव पर भौतिकता हावी हो गई है। यह एक बड़ा परिवर्तन है। क्या हमारा
शैक्षिक तंत्र छिन्न-भिन्न होने के साथ ही राह से भटक गया है? इसके जवाब के लिए हमें इस पर मंथन करना होगा कि एक राष्ट्र,अर्थव्यवस्था और समाज के रूप में हम किस दिशा में जा रहे हैं? यह पड़ताल भी करनी होगी कि जो 99 प्रतिशत अंक लाकर
प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ रहे हैं वे क्या सामाजिक प्रभाव ला पाते हैं?
परीक्षा में सिरमौर बनने के लिए तैयार की गई दिनचर्या ही जब विचार
बन जाती है तो वह रचनात्मकता और नवाचार की भी बलि ले लेती है।
आजादी के बाद से भारत विज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र में एक भी
नोबेल पुरस्कार नहीं जीत पाया है। इस मामले में कई संस्थान ही सवा अरब से ज्यादा
की आबादी वाले इस देश को शर्मसार करने के लिए काफी हैं। मिसाल के तौर पर हॉर्वर्ड
से 151, कोलंबिया विश्वविद्यालय से 101, कैंब्रिज ने 90 नोबेल पुरस्कार विजेता दिए हैं।
हालांकि नोबेल को मैं शिक्षा में गुणवत्ता का मानक नहीं मानता, लेकिन इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि कोई भारतीय शिक्षण
संस्थान दुनिया के शीर्ष 250 संस्थानों में अपनी जगह नहीं
बना पाया है। हमारे पास कोई ऐसा पैमाना भी नहीं है जो देश और समाज पर शिक्षा के
प्रभाव का आकलन कर सके। हम तो केवल दुनिया में डिग्रियों की फैक्ट्री बनकर ही खुश
हैं। इस स्थिति से बाहर आना ही होगा।
भारतीय शैक्षिक तंत्र राजनीतिक
इच्छाशक्ति की कमी का शिकार है। इसके लिए मुख्य रूप से राजनीतिक नेतृत्व की
गुणवत्ता, निरुत्साहित नौकरशाही और एक बड़ी आबादी ही
जिम्मेदार है जो किसी भी कीमत पर एक अदद नौकरी के लिए संघर्षरत है। समय आ गया है
कि हम देश को ध्यान में रखते हुए शिक्षा का विजन तैयार करें। हमें अगले 10 से 25 साल के लिए लक्ष्य भी तय करने होंगे, क्योंकि भारत का जननांकीय लाभांश अगले 25 साल तक
कायम रहेगा। इसे देखते हुए हम एक भी साल बर्बाद नहीं कर सकते। मुङो गांवों और
शहरों के छात्रों के साथ ही आइआइएम के छात्रों से भी संवाद का अवसर मिला। इस संवाद
से स्पष्ट हुआ कि भारत को अपने भविष्य को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं, क्योंकि युवा जानते हैं कि वे क्या चाहते हैं? राष्ट्र
को गौरव शिखर पर ले जाने के लिए युवाओं में भरपूर क्षमताएं हैं, लेकिन इसमें तंत्र को सहायक बनना पड़ेगा ताकि उनकी आकांक्षाओं का विमान
मंजिल तक पहुंच सके।
दुनिया ऐसी तमाम मिसालों से भरी है जहां औपचारिक शिक्षा न हासिल
करने वालों ने अपनी-अपनी तरह से देश, दुनिया और समाज को बड़े स्तर पर प्रभावित किया। मिसाल के तौर पर ओयो रूम्स
के संस्थापक 24 वर्षीय रितेश अग्रवाल ने स्नातक की पढ़ाई भी
पूरी नहीं की और पांच अरब डॉलर का कारोबारी साम्राज्य खड़ा कर लिया। तीसरी कक्षा
तक पढ़े हलधर नाग पर पांच छात्र पीएचडी कर चुके हैं और उनकी रचनाएं विश्वविद्यालयों
में पढ़ाई जाती हैं। स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाए भारत रत्न सचिन तेंदुलकर
क्रिकेट के भगवान हैं। भारत के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर ने
कोई औपचारिक शिक्षा ही नहीं ग्रहण की और ऐसी शिक्षा से उन्हें कोई अनुराग भी नहीं
था।
मिसाइल मैन और पूर्व राष्ट्रपति
एपीजे अब्दुल कलाम भी महज स्नातक ही थे। इसलिए जिन अभिभावकों के बच्चे शत प्रतिशत
अंक नहीं ला पाए वे यह ध्यान रखें कि अच्छे अंक और लुभावनी डिग्रियां अच्छी तो हैं, लेकिन आखिर में अगर आपका बच्चा यह चूहा दौड़ जीत
भी जाता है तब भी यह होड़ चूहा दौड़ ही कही जाएगी। कक्षा आठ के एक छात्र की बात
मुङो बरबस याद आ जाती है जिसने कहा था, ‘सर पिछली शिक्षा
नीतियों ने हमें विकासशील देश बनाया, अब कृपया ऐसी नीति
बनाइए जिससे हम विकसित देश बन सकें।’ स्पष्ट है कि यह जागने
और नीति बनाकर जुटने का समय है.