देश की सियासत में जाति का छौंका नहीं लगे, ऐसा नामुमकिन है। हर चुनाव में कमोबेश सभी राजनीतिक दल
जातीय कार्ड खेलते हैं। इस बार भी यह धड़ल्ले से जारी है। हालांकि तीन चरण तक जो
चुनाव हुए, उनमें जात-पात को सधे अंदाज में इस्तेमाल किया
गया। मगर चौथा चरण आते-आते चुनाव जाति आधारित हो गया। कोई पिछड़ा होने का राग आलाप
रहा है तो कोई जातीय क्रम (हेरारकी) में खुद को शामिल करने की जद्दोजहद में लगा
है। सवाल यह उठता है कि क्या चुनाव जाति को माइनस करके भी हो सकते हैं? हाल के वर्षो में जिस तरह से जातीय समीकरणों की मजबूत किलेबंदी कर
उम्मीदवारों का चयन किया जाता है, वह साफ तौर पर परिलक्षित
करता है कि भारतीय राजनीति में जाति का बोलबाला कभी खत्म नहीं होगा। लोहिया
राजनीति में जातीय प्रभुत्व के घोर आलोचक थे। उन्होंने कभी भी जाति को राजनीति के
साथ चस्पा नहीं किया। यही वजह थी कि उस दौर में कई नेताओं ने जातीय सूचक या जातीय
आधारित सरनेम को तिलांजलि दी। मगर अफसोस यह चलन ज्यादा वक्त तक सफर तय नहीं कर
सका। यह सर्वविदित है कि जाति प्रेम भारत को पीछे ले जाने वाले सबसे बड़े उपादानों
में है। हर दल और नेता जाति रूपी जिन्न को बोतल में बंद करने की बात तो करता है,
किंतु हकीकत में वह उस ढक्कन को अधखुला रखता है, जिससे जिन्न के बाहर निकलने में आसानी हो। जाति के खोल से बाहर आने की
हिम्मत हर किसी में नहीं होती है। यह बात बहुत आसानी से समझने की है कि उन्हीं
देशों ने विकास के पथ पर सरपट दौड़ लगाई है, जिसने जात-पात
और धर्म के संकुचित सोच को दफन कर दिया। मगर हम अब भी उसी से चिपके हुए हैं। कोई
पिछड़ा कह रहा है तो कोई खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण साबित करने के यत्न कर रहा है।
इस सस्ती और सतही सोच से कैसे माना जाए कि हम विकास के उस सिरे को छू लेंगे,
जिसे चीन और जापान जैसे कुछ देशों ने हासिल कर लिया? यह सोचने की बात है कि जाति के विभिन्न खांचों में समाज को बांट कर कुछ
लोगों वह पा गए, जिसके वह हकदार ही नहीं थे। विडंबना यही कि
फिर से ऐसा कुछ रचा जा रहा है, जिससे असली और वाजिब मुद्दों
पर न बात हो न चर्चा । अत: देश को पीछे धकेलने वालों के चेहरों से नकाब खींचने का
वक्त आ गया है।