आज जब लोकसभा के चुनाव हो रहे हैं, पहले चरण के वोट पड़ चुके हैं,
और सांविधानिक व्यवस्था के अनुसार नई सरकार बनने का आधार तैयार हो
रहा है, तब हमारे संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर का 128
वां जन्मदिन सरकारी और खासकर गैरसरकारी स्तरों पर बड़ी ही धूमधाम से
उत्सव की तरह मनाया जा रहा है। हर दल आंबेडकर के सपनों का भारत बनाने, उन्हें सम्मान देने-दिलाने के बढ़-चढ़कर दावे कर रहा है। यह चिंताजनक है कि
विगत वर्षों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य,
आवास जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति का काम संविधान की कल्याणकारी भावना
और प्रस्तावना के प्रतिकूल ही हुआ है।
आंबेडकर पर करम और दलितों-आदिवासियों व कमजोर वर्ग पर सितम
आंबेडकर का अपमान करने जैसा ही है। चुनाव के मद्देनजर यह ध्यान देने की बात है कि
आजादी मिलने के साथ ही भारतीय समाज में समतामूलक बुनियादी सुधार चाहने वाले डॉ.
आंबेडकर ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए खूनी क्रांति का समर्थन नहीं किया था।
उन्होंने बुलेट के बजाय बैलेट को अपनाया। मुक्ति के लिए ज्ञान का संबल उनकी दृष्टि
में सबसे महत्वपूर्ण था। इसीलिए वह शिक्षा को हर बच्चे का अधिकार बनाना चाहते थे।
उन्होंने चुनी हुई सरकारों से अपेक्षा की थी कि वे संविधान की प्रस्तावना में किए
जा रहे संकल्प के अनुकूल काम करेंगी।
स्त्री-पुरुष सभी को मत का समान अधिकार दिलाकर, अमीर-गरीब, सवर्ण-दलित सभी के मत का समान महत्व निर्धारित कर सरकार बनाने-बदलने की शक्ति तो जन सामान्य के हाथों में दे दी गई, पर धन की प्रमुखता बने रहने तथा उसके स्रोतों का लोकतांत्रीकरण न होने के अपने नुकसान भी हैं। मसलन, एक सामान्य व्यक्ति अपना वोट दे तो सकता है, पर अत्यधिक खर्चीली चुनाव प्रक्रिया के चलते खुद चुनाव नहीं लड़ सकता। आरक्षित पदों से भी वही प्रतिनिधि आ पाते हैं, जो चुनाव में अतिरिक्त धन का निवेश कर पाते हैं। और फिर वे भी धनी वर्ग से आनेवालों की तरह रिटर्न हासिल करने के उपक्रम में लग जाते हैं।
डॉ. आंबेडकर ने तो ऐसी कल्पना नहीं की होगी। यह चिंताजनक है कि सरकारें डॉ.. आंबेडकर के सपनों को लगातार तोड़ती जा रही हैं। वे संविधान में लगातार संशोधन कर उसकी आत्मा को कमजोर कर रही हैं। सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की हों, उनके कामकाज आंबेडकर की अपेक्षाओं के उलट निकल रहे हैं। इस प्रतिकूल दौर में आंबेडकर द्वारा किए गए कार्यों से प्रेरणा लेने की जरूरत है। उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल बनाया और जब उसे लागू करने का अवसर आया, तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी हाथ खड़े कर दिए।
स्वामी करपात्री के नेतृत्व में वे सवर्ण महिलाएं भी आंबेडकर के विरोध में खड़ी हो गईं, जिन्हें वे संपत्ति में अधिकार दिलाना चाहते थे, बहुपत्नी प्रथा पर रोक लगाकर सौतों से छुटकारा दिलाना चाहते थे। प्रसूति अवकाश, मजदूर महिलाओं के बच्चों के लिए पालनागृह, न्यूनतम मजदूरी कानून, काम और अवकाश के घंटों का उन्होंने निर्धारण किया था। वह खदानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति का अध्ययन करने खदानों तक में गए। स्त्री-पुरुष, दोनों को समान काम के लिए समान वेतन की व्यवस्था उनके समतावादी विचारों का व्यावहारिक रूप थी।
दूरदर्शी आंबेडकर ने शिक्षा को प्राथमिकता दी, क्योंकि वह समझ चुके थे कि भारत में दलितों को पढ़ाई के बगैर न तो आजादी मिलेगी और न ही सामाजिक बुराइयों से मुक्ति। डॉ.. आंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान संविधान के निर्माण के क्षेत्र में है। संविधान के जरिये वह कमजोर वर्गों के अधिकार संरक्षित करना चाहते थे। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि आंबेडकर ने संविधान की एक भी पंक्ति नहीं लिखी। जबकि तथ्य बताते हैं कि संविधान का निर्माण करने वाली सात सदस्यों की कमेटी के एक सदस्य ने त्यागपत्र दिया, दूसरे का देहांत हो गया, तीसरे अमेरिका चले गए,चौथे रियासत के कामकाज में व्यस्त दिल्ली से दूर रहने व अस्वस्थ होने के कारण अनुपस्थित रहे। वैसे में सारा भार मसौदा कमेटी के अध्यक्ष डॉ.. आंबेडकर को ही उठाना पड़ा।
संविधान है, तभी आज एससी/एसटी उत्पीड़न निवारण ऐक्ट को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतरते हैं, दो सौ पॉइंट रोस्टर के लिए कॉलेज, यूनिवर्सिटी टीचर्स की नियुक्तियों में भागीदारी के लिए एससी/एसटी और ओबीसी आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन आज इस संविधान पर ही सबसे अधिक संकट मंडराता दिख रहा है। आंबेडकर का गुणगान करने वाली सरकारें भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था की हत्या कर निजी क्षेत्रों को शिक्षा का खुला व्यवसाय करने की छूट देती हैं।
दलितों-आदिवासियों की जमीन कौड़ियों के भाव खरीदी जा रही हैं। निजी क्षेत्र को सस्ती जमीन और कर्ज दे कर उन्हें समृद्ध किया जाता है, जबकि विशाल भारत शिक्षा और रोजगार हासिल करने से वंचित रह जाता है। इस तरह संविधान की प्रस्तावना में की गई संकल्पना के ठीक उलट काम किया जाता है और फिर आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उनकी जय-जयकार की जाती है।
स्त्री-पुरुष सभी को मत का समान अधिकार दिलाकर, अमीर-गरीब, सवर्ण-दलित सभी के मत का समान महत्व निर्धारित कर सरकार बनाने-बदलने की शक्ति तो जन सामान्य के हाथों में दे दी गई, पर धन की प्रमुखता बने रहने तथा उसके स्रोतों का लोकतांत्रीकरण न होने के अपने नुकसान भी हैं। मसलन, एक सामान्य व्यक्ति अपना वोट दे तो सकता है, पर अत्यधिक खर्चीली चुनाव प्रक्रिया के चलते खुद चुनाव नहीं लड़ सकता। आरक्षित पदों से भी वही प्रतिनिधि आ पाते हैं, जो चुनाव में अतिरिक्त धन का निवेश कर पाते हैं। और फिर वे भी धनी वर्ग से आनेवालों की तरह रिटर्न हासिल करने के उपक्रम में लग जाते हैं।
डॉ. आंबेडकर ने तो ऐसी कल्पना नहीं की होगी। यह चिंताजनक है कि सरकारें डॉ.. आंबेडकर के सपनों को लगातार तोड़ती जा रही हैं। वे संविधान में लगातार संशोधन कर उसकी आत्मा को कमजोर कर रही हैं। सरकारें चाहे किसी भी पार्टी की हों, उनके कामकाज आंबेडकर की अपेक्षाओं के उलट निकल रहे हैं। इस प्रतिकूल दौर में आंबेडकर द्वारा किए गए कार्यों से प्रेरणा लेने की जरूरत है। उन्होंने स्त्रियों के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल बनाया और जब उसे लागू करने का अवसर आया, तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी हाथ खड़े कर दिए।
स्वामी करपात्री के नेतृत्व में वे सवर्ण महिलाएं भी आंबेडकर के विरोध में खड़ी हो गईं, जिन्हें वे संपत्ति में अधिकार दिलाना चाहते थे, बहुपत्नी प्रथा पर रोक लगाकर सौतों से छुटकारा दिलाना चाहते थे। प्रसूति अवकाश, मजदूर महिलाओं के बच्चों के लिए पालनागृह, न्यूनतम मजदूरी कानून, काम और अवकाश के घंटों का उन्होंने निर्धारण किया था। वह खदानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति का अध्ययन करने खदानों तक में गए। स्त्री-पुरुष, दोनों को समान काम के लिए समान वेतन की व्यवस्था उनके समतावादी विचारों का व्यावहारिक रूप थी।
दूरदर्शी आंबेडकर ने शिक्षा को प्राथमिकता दी, क्योंकि वह समझ चुके थे कि भारत में दलितों को पढ़ाई के बगैर न तो आजादी मिलेगी और न ही सामाजिक बुराइयों से मुक्ति। डॉ.. आंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान संविधान के निर्माण के क्षेत्र में है। संविधान के जरिये वह कमजोर वर्गों के अधिकार संरक्षित करना चाहते थे। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि आंबेडकर ने संविधान की एक भी पंक्ति नहीं लिखी। जबकि तथ्य बताते हैं कि संविधान का निर्माण करने वाली सात सदस्यों की कमेटी के एक सदस्य ने त्यागपत्र दिया, दूसरे का देहांत हो गया, तीसरे अमेरिका चले गए,चौथे रियासत के कामकाज में व्यस्त दिल्ली से दूर रहने व अस्वस्थ होने के कारण अनुपस्थित रहे। वैसे में सारा भार मसौदा कमेटी के अध्यक्ष डॉ.. आंबेडकर को ही उठाना पड़ा।
संविधान है, तभी आज एससी/एसटी उत्पीड़न निवारण ऐक्ट को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतरते हैं, दो सौ पॉइंट रोस्टर के लिए कॉलेज, यूनिवर्सिटी टीचर्स की नियुक्तियों में भागीदारी के लिए एससी/एसटी और ओबीसी आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन आज इस संविधान पर ही सबसे अधिक संकट मंडराता दिख रहा है। आंबेडकर का गुणगान करने वाली सरकारें भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था की हत्या कर निजी क्षेत्रों को शिक्षा का खुला व्यवसाय करने की छूट देती हैं।
दलितों-आदिवासियों की जमीन कौड़ियों के भाव खरीदी जा रही हैं। निजी क्षेत्र को सस्ती जमीन और कर्ज दे कर उन्हें समृद्ध किया जाता है, जबकि विशाल भारत शिक्षा और रोजगार हासिल करने से वंचित रह जाता है। इस तरह संविधान की प्रस्तावना में की गई संकल्पना के ठीक उलट काम किया जाता है और फिर आंबेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उनकी जय-जयकार की जाती है।