पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर कार्यक्रम में जो कुछ कहा, उससे सीख लेने की
आवश्यकता है। हालांकि संघ के प्रशिक्षण शिविर के समारोप कार्यक्रम में उनके जाने
को लेकर जिस तरह का बावेला मचाया गया, उसकी तुलना में यह एक सामान्य कार्यक्रम साबित हुआ। मुखर्जी ने हिंसा, असहिष्णुता के
प्रति आगाह करते हुए यह अवश्य कहा कि इससे भारत की राष्ट्रीय पहचान कमजोर होगी।
उन्होंने विविधता, बहुलतावाद एवं
सहिष्णुता को भारत की आत्मा करार देते हुए कहा कि धर्म और भाषा के माध्यम से भारत
को परिभाषित करने का कोई भी प्रयास देश के अस्तित्व को कमजोर करेगा। ये ऐसी बातें
हैं, जिनसे कोई असहमत
नहीं हो सकता। हालांकि संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने मुखर्जी के पूर्व दिए अपने
भाषण में विविधता को भारत की विशिष्टता करार देते हुए उसमें अंतर्निहित एकता को
पहचानने की बात की। उन्होंने यह भी कहा कि हमें सम्पूर्ण समाज का संगठन करना है।
यदि मुखर्जी ने कहा कि हमें अपने सार्वजनिक विमर्श को सभी प्रकार के भय एवं
हिंसा-भले ही वह शारीरिक हो या मौखिक- से मुक्त करना होगा तो भागवत ने कहा कि हमें
शक्ति चाहिए, लेकिन बिना शील के
शक्ति दानवी हो जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि हमें किसी मत से परहेज नहीं है।
वास्तव में आम धारणाओं के विपरीत दोनों के विचारों में काफी समानता दिखी। मुखर्जी
के वहां जाने के पहले जिस तरह का हौव्वा बनाया गया था, उसका कारण पहले से
बनाई गई धारणा और राजनीति ही हो सकता है। प्रणब का कहना था कि विचारों में चाहे
जितना मतभेद हो संवाद कभी भी बंद नहीं होना चाहिए। वस्तुत: ऐसा कहकर उन्होंने उन
सारे लोगों को यह नसीहत दी कि किसी भी संगठन या विचार को अस्पृश्य मानकर आप देश और
समाज का भला नहीं करेंगे। पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते प्रणब ने नागपुर जाकर यही
संदेश दिया है कि सार्वजनिक जीवन में कोई अस्पृश्य नहीं है। वहां जाने का न तो यह
मतलब है कि मुखर्जी ने संघ के विचारों को स्वीकार कर लिया और या संघ ने उनके विचारों
को मान लिया। एक लोकतांत्रिक समाज की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है कि हम अपने विरोधी
विचारों को सुनें। परस्पर संवाद व विमर्श से ही सामंजस्य बिठाकर काम करने का आधार
बनता है। इसलिए प्रणब के संघ मंच से भाषण देने को अच्छी शुरु आत माननी चाहिए।