इसरो के पूर्व प्रमुख के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने नई शिक्षा नीति का प्रारूप करीब-करीब तैयार कर लिया है। शैक्षणिक हलकों में चल रही चर्चा के मुताबिक इसमें मासूमों के कंधों पर लगातार बढ़ते बस्ते के बोझ की भी काफी सघन चर्चा है। गौरतलब है कि देश में बच्चों के साथ-साथ अभिभावक भी बस्तों के बोझ को लेकर परेशान हैं। राहत की बात है कि मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बच्चों के बस्तों का बोझ घटाने के साथ-साथ एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम भी आधा करने पर हामी भर दी है। उन्होंने खुद ही कहा है कि स्कूल का पाठ्यक्रम इस समय बीए व बीकॉम से भी ज्यादा है। इसलिए इसे आधा किए जाने की जरूरत है।
आंकड़े बताते हैं कि स्कूल बैग का वजन जहां बच्चों को बीमार बना रहा है, वहीं भारी सिलेबस उन्हें रट्टू तोता बनने पर मजबूर कर रहा है। पिछले दिनों राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग, राष्ट्रीय संस्कृति उत्थान न्यास और विद्या भारती इत्यादि ने मिलकर बस्तों का बोझ कम करने को लेकर देश में एक बहस भी छेड़ी है। केंद्र सरकार को इससे जुड़े अनेक मॉडल भी पेश किए गए हैं। उदाहरण बताते हैं कि बस्तों के भारी वजन, कठिन सिलेबस और अत्यधिक होमवर्क के चलते खासी बड़ी संख्या में बच्चों की आंखें कमजोर हो गई हैं, उनके सिर में दर्द रहने लगा है। उंगलियां टेढ़ी होने की भी शिकायतें हैं। आलम यह है कि बच्चे सपने में भी परियों के दृश्य देखने के बजाय होमवर्क बुदबुदाते हैं।
बाल मनोविज्ञान से जुड़े अध्ययन भी बताते हैं कि चार साल से लेकर बारह साल की उम्र तक बच्चों के व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता है। इस दौरान उन्हें किताबी ज्ञान के बजाय भावनात्मक सहारे की ज्यादा जरूरत होती है। पिछले दिनों एसोचैम के देश के महानगरों में रहने वाले दो हजार बच्चों पर किए गए सर्वे में साफ कहा गया था कि यहां 5 से 12 वर्ष के आयु वर्ग के 82 फीसदी बच्चे बहुत भारी स्कूल बैग ढोते हैं। इस सर्वे ने यह भी साफ किया कि दस साल से कम उम्र के लगभग 58 फीसदी बच्चे हल्के कमर दर्द के शिकार हैं। हड्डी रोग विशेषज्ञ भी मानते हैं कि बच्चों के लगातार बस्तों के बोझ को सहन करने से उनकी कमर की हड्डी टेढ़ी होने की आशंका प्रबल हो जाती है।
कुछ समय पहले मानवाधिकार आयोग ने दखल देते हुए कहा था कि निचली कक्षा
के बच्चों के बैग का वजन पौने दो किलो और ऊंची कक्षा के बच्चों के बैग का वजन साढ़े तीन किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। स्कूली बच्चों की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने बस्तों का बोझ कम करने की एक पहल की थी। इसी के तहत ठाणे नगर निगम ने अपने अधीन चलने वाले तकरीबन डेढ सौ प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के डेस्क में एक लॉकर की व्यवस्था की थी। उद्देश्य यह था कि बच्चों को कंधें पर बस्ता लादने से छुटकारा मिल जाए। ठाणे नगर निगम ने बच्चों के कंधे से बस्तों का बोझ कम करने की जो पहल की उसकी पूरे देश में लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि नर्सरी, केजी, पहली या दूसरी कक्षा के बच्चों के स्वभाव को समझे बिना अगर उन पर पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाता है तो उनकी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। परंतु स्कूल संचालकों व नीति निर्धारकों के फरमान के आगे बच्चे और अभिभावक मजबूर हैं।
इसी वजह से स्कूल संचालकों और अभिभावकों के बीच अक्सर टकराव भी देखने को मिलता है। ऐसे में अब जरूरत इस बात की है कि बच्चों की शुरुआती कक्षाओं में उनकी पढ़ाई-लिखाई को बहुत हल्का रखते हुए उसे खेल-आधारित बनाया जाए। ऐसा न होने पर अधिक किताबी बोझ बच्चों को शारीरिक और मानसिक समस्याओं की ओर ले जाएगा। उम्मीद की जाए कि नई शिक्षा नीति यह जरूरत पूरी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।के बच्चों के बैग का वजन पौने दो किलो और ऊंची कक्षा के बच्चों के बैग का वजन साढ़े तीन किलो से अधिक नहीं होना चाहिए। स्कूली बच्चों की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने बस्तों का बोझ कम करने की एक पहल की थी। इसी के तहत ठाणे नगर निगम ने अपने अधीन चलने वाले तकरीबन डेढ सौ प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों के डेस्क में एक लॉकर की व्यवस्था की थी। उद्देश्य यह था कि बच्चों को कंधें पर बस्ता लादने से छुटकारा मिल जाए। ठाणे नगर निगम ने बच्चों के कंधे से बस्तों का बोझ कम करने की जो पहल की उसकी पूरे देश में लंबे समय से जरूरत महसूस की जा रही है। यह सच किसी से छिपा नहीं है कि नर्सरी, केजी, पहली या दूसरी कक्षा के बच्चों के स्वभाव को समझे बिना अगर उन पर पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाता है तो उनकी स्वाभाविक विकास की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। परंतु स्कूल संचालकों व नीति निर्धारकों के फरमान के आगे बच्चे और अभिभावक मजबूर हैं।