भारत में उच्च शिक्षा को आज दोहरे खतरे का सामना करना पड़ रहा है। पहला खतरा है, उसके एक माल में तब्दील कर दिए जाने का। इसका आशय यह है कि न सिर्फ उच्च शिक्षा एक माल में तब्दील होती जा रही है बल्कि इस उच्च शिक्षा के उत्पाद यानी वे लोग भी जिनमें उच्च शिक्षा मूर्त रूप लेती है, इस अर्थ में माल में तब्दील होते जा रहे हैं कि उनकी कीमत खुद उनके द्वारा भी और दूसरों के द्वारा भी धन की एक खास मात्रा से समकक्षता की भाषा में आंकी जाती है। इस राशि का संबंध इससे है कि बाजार में उनका कितना दाम लगता है?यह माल में तब्दील कर दिया जाना, उच्च शिक्षा के उत्पाद इंसानों को ऐसे आत्मकेंद्रित व्यक्तियों में तब्दील कर देता है, जिनमें कोई सामाजिक संवेदनशीलता नहीं होती है। यह उन्हें सिर्फ वैश्वीकृत पूंजी बाजार में रोजगार हासिल करने के हिसाब से गढ़ता है, चाहे वास्तव में उन्हें ऐसा रोजगार मिले या नहीं भी मिले। वे समाजशास्त्रीय सत्ताओं के रूप में न सिर्फ आम जनता की समस्याओं से पूरी तरह से कट जाते हैं बल्कि वर्तमान समाज व्यवस्था को आलोचनात्मक नजर से, उससे ‘‘बाहर’ के या प्रतिमानगत रूप से ‘‘बाहरी’ परिप्रेक्ष्य से देखने में असमर्थ हो जाते हैं और इस तरह वर्तमान व्यवस्था की उत्पीड़कता और उसके बेतुकेपनों को नहीं समझ सकते हैं।आज भारत में उच्च शिक्षा के लिए दूसरा खतरा उसके संप्रदायीकरण का है। और चूंकि हमारे देश में सांप्रदायिकता घनिष्ठ रूप से जातिवाद के साथ गुंथी हुई है और ये दोनों ऐसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसमें उत्पीड़ितों और हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति घृणा भरी हुई है, उच्च शिक्षा का संप्रदायीकरण, जातिवादी पूर्वाग्रहों को पुख्ता करने के साथ-साथ चलता है। उच्च शिक्षा के सांप्रदायीकरण का वास्तव में उसके माल या वस्तु में तब्दील कर दिए जाने के साथ बखूबी मेल बैठता है। माल में तब्दील करने के प्रक्रिया बाजार के लिए गढ़े गए, जो आत्मकेंद्रित व्यक्ति पैदा करती है। वे न सिर्फ उन पूर्वाग्रहों को बनाए रखते हैं, जो उन्होंने पहले से आत्मसात कर रखे जो सकते हैं क्योंकि उनके पास कोई आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य ही नहीं होता है, वास्तव में वे इन पूर्वाग्रहों को और पुख्ता भी करते हैं क्योंकि एक ऐसे समाज में जहां लोगों को उनकी आर्थिक हैसियत से नापा जाता है, हाशिए पर पड़े और उत्पीड़ित तबकों, जैसे अल्पसंख्यकों को, हिकारत की नजर से ही देखा जाता है। उच्च शिक्षा के माल में तब्दील कर दिए जाने के इस रुझान ने मौजूदा मोदी राज में एक नई तेजी पकड़ी है और स्वायत्त कॉलेजों पर विविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का हाल का निर्देश, इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। यूजीसी का यह निर्देश ऐसे स्वायत्त कॉलेज गढ़ने की परिकल्पना करता है, जिन्हें दाखिले, पाठक्रम और वसूल की जाने वाली फीस के मामले में उल्लेखनीय स्वायत्तता हासिल होगी। इसका अर्थ यह है कि अब तक तथाकथित ‘‘स्ववित्त-पोषित पेशेवर कॉलेजों’ में, अपनी ‘‘कैपीटेशन फीस’ और ‘‘प्रबंधन कोटे’ के साथ जिस तरह की अंधाधुंध अंधेरगर्दी चलती आयी है, उसका और सामान्यीकरण कर उसे समूचे उच्च शिक्षा क्षेत्र पर फैला दिया जाएगा। फीस तय करने के मामले में यह स्वायत्तता, अनिवार्य रूप से फीसें बढ़ाए जाने के ही रूप में सामने आएगी और इस तरह वंचित आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों की विशाल संख्या को उच्च शिक्षा संस्थाओं के दायरे से बाहर ही छोड़ दिया जाएगा। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। स्वायत्त कॉलेजों के लिए जोर लगाने के साथ-साथ यूजीसी ने यह सुझाव दिया है कि ऐसी संस्थाओं के लिए राज्य सरकारों की फंडिंग पहले की ही तरह जारी रहनी चाहिए। दूसरे शब्दों में राज्य सरकारों से ऐसी संस्थाओं के लिए फंड देने के लिए कहा जा रहा है, जिनकी प्रवेश नीति, पाठयक्रम और फीस के ढांचे पर, उनका कोई भी दखल होगा ही नहीं। इतना ही नहीं राज्यों से ऐसा करने के लिए एक ऐेसे केंद्रीय संगठन द्वारा कहा जा रहा है, जिसने उन पर अपनी शत्रे थोपने का अधिकार हथिया लिया है। संक्षेप में यूजीसी का निर्देश सिर्फ निजीकरण और उच्च शिक्षा को माल में तब्दील करने के लिए ही जोर नहीं लगाता है बल्कि इसके साथ ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में शक्तियों के केंद्रीयकरण का भी प्रतिनिधित्व करता है। बेशक, इस तरह का केंद्रीयकरण पिछले काफी समय से चल रहा है। शिक्षा को समवर्ती सूची में धकेला जाना इस दिशा में एक बड़ा कदम था। इस बदलाव का नतीजा यह हुआ है कि मूल संविधान के विपरीत, ‘‘शिक्षा’ शब्द अब ‘‘राज्य सूची’ में कहीं भी आता ही नहीं है। दो और घटनाविकासों ने शक्तियों के केंद्रीयकरण की इस प्रवृत्ति को और पुख्ता किया है। पहला है, केंद्र सरकार के निकायों द्वारा, जो बेशक संसद के कानून के जरिए गठित किए गए हैं, संसद की ही शक्तियों का अपने हाथ में ले लिया जाना। 2006 में केरल की एलडीएफ सरकार ऐसी पहली राज्य सरकार बन गई थी, जिसने राज्य के गैर-सरकारी सहायता प्राप्त प्रोफेशनल कॉलेजों में दाखिले, फीस और नियुक्ति की प्रक्रियाओं का नियमन करने के लिए कानून बनाया था। यह ऐसी चीज थी जिसे करने के संबंध में तब तक यूजीसी ने सोचा ही नहीं था और उस जमाने में आयोग इसका अनुकरण करना चाहता था। वास्तव में यूजीसी का निर्देश अपनी बुनियाद में ही जनतंत्रविरोधी है। एक बार अगर इस तरह के तरीकों को मंजूर कर लिया जाता है, तो इस तरह के तरीके पुख्ता हो जाते हैं और खुद को मजबूत कर लेते हैं। किसी एक क्षेत्र में राज्यों पर अपनी मनमर्जी चलाने में अगर केंद्र सरकार कामयाब हो जाती है तो उसके हौसले अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा ही करने के हो जाएंगे और वह भविष्य में भी लगातार बढ़ते पैमाने पर ऐसा ही करती रहेगी। इसलिए, यह अहम हो जाता है कि सभी जनतांत्रिक विचारों वाले लोग यूजीसी के उक्त निर्देश की अंतर्वस्तु का ही नहीं, उसके तरीके का भी विरोध करें और इस मुद्दे पर अदालतों के हाल के निर्णयों की चाहे जो भी व्याख्या की जाए, कानून के स्तर पर इस विचार को चुनौती दें कि खुद संसद नहीं बल्कि केंद्र सरकार के आधीन कोई निकाय, निर्वाचित राज्य विधायिकाओं द्वारा बनाए गए कानूनों के ऊपर अपना नियम थोप सकता है। आखिरकार, यह तो संघवाद के मूल सिद्धांतों का ही उल्लंघन करता है और संघवाद संविधान के ‘‘बुनियादी ढांचे’ का हिस्सा है।