महात्मा बुद्ध ने एक वैचारिक क्रांति का आगाज किया था। बुद्ध के बारे में बात प्रसिद्ध है कि उनके मृत्यु के पहले उनके परम शिष्य आनंद ने उनसे अंतिम संदेश पूछा था। बुद्ध का जवाब था- अप्पो दीपम् भव् ! अपने दीपक आप बनो।
क्या हम अपनी संतानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं ?
केरल के जाने-माने फुटबॉल खिलाड़ी विनीत की जिंदगी का एक छोटा-सा कदम पिछले दिनों राष्ट्रीय सुर्खियां बन गया। अपने बेटे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए दी गई उनकी दरखास्त में उन्होंने जाति-धर्म का कॉलम खाली छोड़ दिया था। पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने टका-सा जवाब दिया था कि मेरी संतान वयस्क होने पर खुद तय करेगी कि अपने आप को क्या प्रस्तुत करना चाहती है? उसका पिता होने के नाते मैं जन्म से प्राप्त अपनी पहचान उस पर कैसे लाद सकता हूं? पिछले दिनों केरल विधानसभा में कैबिनेट मंत्री सी रवीन्द्रनाथ द्वारा दिए गए लिखित जवाब के बाद साफ हो चला है कि सीके विनीत अकेले नहीं हैं। रेखांकित करने वाली बात है कि केरल के स्कूलों में पढ़ने वाले-पहली से बारहवीं कक्षा तक के-एक लाख चौबीस हजार से अधिक बच्चों ने भी अपने प्रवेश फार्म में धर्म या जाति का उल्लेख नहीं किया है। एक ऐसे समय में जब धर्म के नाम पर दंगा-फसाद आये दिन की बात हैं, जाति को लेकर ऊंच-नीच की भावना और तनाव 21वीं सदी की दूसरी दहाई में भी मौजूद हों, उस पृष्ठभूमि में यह खबर ताजी बयार की तरह प्रतीत होती है। इंडियन रैशनेलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष नरेन्द्र नायक बताते हैं कि दस साल पहले उनके शहर मंगलौर में एक मलयाली युगल ने भी अपनी जुड़वा संतानों को स्कूल में दाखिला देने के पहले जाति-धर्म का कॉलम भरने से इनकार कर दिया था। केरल के कांग्रेस के विधायक वीटी बलराम और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोक सभा सदस्य एमबी राजेश भी उन माता-पिता में शुमार हैं, जिन्होंने बच्चों के एडमिशन फार्म में जाति-धर्म लिखने से तौबा किया था। संविधान की धारा 51, जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को लेकर है तथा जो वैज्ञानिक चिंतन, मानवता, सुधार और खोजबीन की प्रवृत्ति विकसित करने पर जोर देती हो, का उल्लंघन जब अपवाद नहीं नियम बनता जा रहा हो, उस पृष्ठभूमि में केरल का अलग किस्म का यह मॉडल निश्चित ही प्रेरित करता है। कोई पूछ सकता है कि क्या यह परिघटना महज केरल तक केंद्रित है। निश्चित ही नहीं! इसी किस्म की खबर कुछ वक्त पहले मुंबई के अखबारों की सुर्खियां बनी थी, जब अंतरधर्मीय विवाह करने वाले युगल द्वारा अपनी नवजात संतान के साथ किसी धर्म को चस्पां न करने का निर्णय सामने आया था। मराठी परिवार में जन्मी अदिति शेड्डे और और गुजराती परिवार में पले आलिफ सुरती-जो चर्चित काटरूनिस्ट आबिद सुरती के बेटे हैं-के इस छोटे से फैसले ने एक बहस खड़ी की थी। देश की आला अदालत का हालिया निर्णय इसी बात की ताईद करता है कि बच्चे के लालन-पालन के लिए उसे सौंपे जाने के मामले में धर्म एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता। मालूम हो अदालत नौ साल की एक बच्ची की कस्टडी से संबंधित मामले पर गौर कर रही थी, जिसमें उसकी नानी और दादी के बीच मुकदमा चल रहा था। बच्ची का पिता हत्या के जुर्म में सजा भुगत रहा है। शीर्ष अदालत ने बेटी की दादी की याचिका को खारिज कर दिया जिन्होंने दावा किया था कि पौत्री, मुस्लिम पिता और उसकी हिन्दू पत्नी (जिसने विवाह के बाद इस्लाम धर्म कबूल किया था) की संतान, के लालन-पालन का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए क्योंकि वह मुस्लिम है। न्यायालय ने मामले में मुंबई उच्च अदालत के निर्णय पर ही मुहर लगा दी कि उसकी नानी ही बच्ची की अभिभावक हो सकती है। अदालत ने बच्चे के कल्याण को सवरेपरि रखा। पिछले साल हैदराबाद हाईकोर्ट में स्वीकृत की एक जनहित याचिका में यही सवाल फोकस में था कि अपनी संतान को क्या माता-पिता के नाम से जुड़ी जाति तथा धर्म की पहचान के संकेतकों से नत्थी करना अनिवार्य है। याचिका को डीवी रामाकृष्ण राव और एस क्लारेंस कृपालिनी ने अदालत में पेश किया है। अंतरधर्मीय एवं अंतरजातीय विवाह किए इस दंपति, जिसमें से एक धर्म में विास रखता है तथा एक किसी धर्म का अनुयायी नहीं है, ने तय किया है कि अपनी दोनों संतानों के साथ वे जाति तथा धर्मगत पहचान नत्थी नहीं करना चाहते। उन्होंने देखा कि ऐसा कोई विकल्प सरकारी तथा आधिकारिक दस्तावेज में नहीं होता जिसमें लोग अपने आप को किसी धर्म-जाति से न जुड़े होने का दावा कर सकें, इसलिए यह याचिका अदालत में प्रस्तुत की गई ताकि इन फार्म्स में एक कॉलम धर्मविहीन और जातिविहीन होने का भी जुड़ सके। वैसे, बच्चे के धर्म को लेकर जारी र्चचा में हम भारतीय संस्कृति की धूमिल होती जा रही वैज्ञानिक चिंतन की धारा की झलक भी देख सकते हैं। सभी जानते हैं कि महात्मा बुद्ध ने एक वैचारिक क्रांति का आगाज किया था। बुद्ध के बारे में बात प्रसिद्ध है कि उनके मृत्यु के पहले उनके परम शिष्य आनंद ने उनसे अंतिम संदेश पूछा था। बुद्ध का जवाब था- अप्पो दीपम् भव् ! अपने दीपक आप बनो। क्या हम अपनी संतानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं।
क्या हम अपनी संतानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं ?
केरल के जाने-माने फुटबॉल खिलाड़ी विनीत की जिंदगी का एक छोटा-सा कदम पिछले दिनों राष्ट्रीय सुर्खियां बन गया। अपने बेटे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए दी गई उनकी दरखास्त में उन्होंने जाति-धर्म का कॉलम खाली छोड़ दिया था। पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने टका-सा जवाब दिया था कि मेरी संतान वयस्क होने पर खुद तय करेगी कि अपने आप को क्या प्रस्तुत करना चाहती है? उसका पिता होने के नाते मैं जन्म से प्राप्त अपनी पहचान उस पर कैसे लाद सकता हूं? पिछले दिनों केरल विधानसभा में कैबिनेट मंत्री सी रवीन्द्रनाथ द्वारा दिए गए लिखित जवाब के बाद साफ हो चला है कि सीके विनीत अकेले नहीं हैं। रेखांकित करने वाली बात है कि केरल के स्कूलों में पढ़ने वाले-पहली से बारहवीं कक्षा तक के-एक लाख चौबीस हजार से अधिक बच्चों ने भी अपने प्रवेश फार्म में धर्म या जाति का उल्लेख नहीं किया है। एक ऐसे समय में जब धर्म के नाम पर दंगा-फसाद आये दिन की बात हैं, जाति को लेकर ऊंच-नीच की भावना और तनाव 21वीं सदी की दूसरी दहाई में भी मौजूद हों, उस पृष्ठभूमि में यह खबर ताजी बयार की तरह प्रतीत होती है। इंडियन रैशनेलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष नरेन्द्र नायक बताते हैं कि दस साल पहले उनके शहर मंगलौर में एक मलयाली युगल ने भी अपनी जुड़वा संतानों को स्कूल में दाखिला देने के पहले जाति-धर्म का कॉलम भरने से इनकार कर दिया था। केरल के कांग्रेस के विधायक वीटी बलराम और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोक सभा सदस्य एमबी राजेश भी उन माता-पिता में शुमार हैं, जिन्होंने बच्चों के एडमिशन फार्म में जाति-धर्म लिखने से तौबा किया था। संविधान की धारा 51, जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को लेकर है तथा जो वैज्ञानिक चिंतन, मानवता, सुधार और खोजबीन की प्रवृत्ति विकसित करने पर जोर देती हो, का उल्लंघन जब अपवाद नहीं नियम बनता जा रहा हो, उस पृष्ठभूमि में केरल का अलग किस्म का यह मॉडल निश्चित ही प्रेरित करता है। कोई पूछ सकता है कि क्या यह परिघटना महज केरल तक केंद्रित है। निश्चित ही नहीं! इसी किस्म की खबर कुछ वक्त पहले मुंबई के अखबारों की सुर्खियां बनी थी, जब अंतरधर्मीय विवाह करने वाले युगल द्वारा अपनी नवजात संतान के साथ किसी धर्म को चस्पां न करने का निर्णय सामने आया था। मराठी परिवार में जन्मी अदिति शेड्डे और और गुजराती परिवार में पले आलिफ सुरती-जो चर्चित काटरूनिस्ट आबिद सुरती के बेटे हैं-के इस छोटे से फैसले ने एक बहस खड़ी की थी। देश की आला अदालत का हालिया निर्णय इसी बात की ताईद करता है कि बच्चे के लालन-पालन के लिए उसे सौंपे जाने के मामले में धर्म एकमात्र पैमाना नहीं हो सकता। मालूम हो अदालत नौ साल की एक बच्ची की कस्टडी से संबंधित मामले पर गौर कर रही थी, जिसमें उसकी नानी और दादी के बीच मुकदमा चल रहा था। बच्ची का पिता हत्या के जुर्म में सजा भुगत रहा है। शीर्ष अदालत ने बेटी की दादी की याचिका को खारिज कर दिया जिन्होंने दावा किया था कि पौत्री, मुस्लिम पिता और उसकी हिन्दू पत्नी (जिसने विवाह के बाद इस्लाम धर्म कबूल किया था) की संतान, के लालन-पालन का अधिकार उन्हें मिलना चाहिए क्योंकि वह मुस्लिम है। न्यायालय ने मामले में मुंबई उच्च अदालत के निर्णय पर ही मुहर लगा दी कि उसकी नानी ही बच्ची की अभिभावक हो सकती है। अदालत ने बच्चे के कल्याण को सवरेपरि रखा। पिछले साल हैदराबाद हाईकोर्ट में स्वीकृत की एक जनहित याचिका में यही सवाल फोकस में था कि अपनी संतान को क्या माता-पिता के नाम से जुड़ी जाति तथा धर्म की पहचान के संकेतकों से नत्थी करना अनिवार्य है। याचिका को डीवी रामाकृष्ण राव और एस क्लारेंस कृपालिनी ने अदालत में पेश किया है। अंतरधर्मीय एवं अंतरजातीय विवाह किए इस दंपति, जिसमें से एक धर्म में विास रखता है तथा एक किसी धर्म का अनुयायी नहीं है, ने तय किया है कि अपनी दोनों संतानों के साथ वे जाति तथा धर्मगत पहचान नत्थी नहीं करना चाहते। उन्होंने देखा कि ऐसा कोई विकल्प सरकारी तथा आधिकारिक दस्तावेज में नहीं होता जिसमें लोग अपने आप को किसी धर्म-जाति से न जुड़े होने का दावा कर सकें, इसलिए यह याचिका अदालत में प्रस्तुत की गई ताकि इन फार्म्स में एक कॉलम धर्मविहीन और जातिविहीन होने का भी जुड़ सके। वैसे, बच्चे के धर्म को लेकर जारी र्चचा में हम भारतीय संस्कृति की धूमिल होती जा रही वैज्ञानिक चिंतन की धारा की झलक भी देख सकते हैं। सभी जानते हैं कि महात्मा बुद्ध ने एक वैचारिक क्रांति का आगाज किया था। बुद्ध के बारे में बात प्रसिद्ध है कि उनके मृत्यु के पहले उनके परम शिष्य आनंद ने उनसे अंतिम संदेश पूछा था। बुद्ध का जवाब था- अप्पो दीपम् भव् ! अपने दीपक आप बनो। क्या हम अपनी संतानों को भी यह कहने का साहस बटोर सकते हैं।