वो झिल होती शिक्षा व्यवस्था को दरकिनार कर बच्चों में रचनात्मकता लाने के लिए नई शिक्षा व्यवस्था लागू करने की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही है। केंद्र सरकार ने बच्चों के बस्ते का बोझ कम करने की जो सदिच्छा जताई है, वह स्वागतयोग्य है। दरअसल, शिक्षा में बुनियादी बदलाव लाने के लिए केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने हरी झंडी दे दी है। बस्ते का बोझ 2019-20 के शैक्षणिक सत्र से कम किया जाएगा। पढ़ाई को मजेदार बनाने के लिए कई अन्य बदलाव किए जाएंगे। पाठ्यक्रम में बदलाव होगा। रोचक चीजों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। रोबोटिक्स और नैनो टेक्नोलॉजी के जरिए बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ावा दिया जाएगा। बच्चों को भारी-भरकम बस्ते से निजात दिलाने की मांग वर्षो से हो रही है। एक अध्ययन के मुताबिक, आठ से तेरह साल तक के बच्चों को पांच से दस किलो का वजनी बस्ता लेकर स्कूल जाना पड़ता है। इससे उनकी पीठ और गर्दन में दर्द रहता है। बच्चे हड्डी की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें स्लिप डिस्क, स्पॉन्डिलाइटिस, पीठ दर्द, स्पोंडिलोलिस्थीसिस, रीढ़ की हड्डी के कमजोर होने और कूबड़ निकलने की समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इसकी वजह एक ही विषय की कई किताबें पाठय़क्रम में शामिल कर देना है। स्कूली पाठ्यक्रम स्नातक स्तर के कोर्स से ज्यादा है। यही बच्चों पर डाले गए बोझ के बारे में बताने को काफी है। हालांकि इसके पीछे स्कूल प्रबंधन भी कम जिम्मेदार नहीं है। बच्चों के सिलेबस में एक सब्जेक्ट की कई कॉपियां और किताबें स्कूल की ओर से ही चलाई जा रही हैं। कुछ किताबों की तो सीबीएसई या संबंधित बोर्ड से अनुमति भी नहीं, फिर भी उन्हें पढ़ाया जाता है, जबकि कई एक्टिविटी की भी किताबें और कापियां बैग का अतिरिक्त भार बढ़ा रही हैं। ऐसा तब है, जब एनसीईआरटी की किताबों को पूरे देश और राष्ट्रीय पाठ्यर्चया की रूपरेखा (एनसीएफ) 2005 को सभी राज्यों से स्वीकृति मिली है।पाठ्यक्रम के खुलेपन, लचीलेपन से लेकर उसकी भाषा-प्रस्तुति की सर्वत्र सराहना हुई है, लेकिन कटु सच है कि एनसीईआरटी की किताबें ढूंढ़े नहीं मिलतीं। जाहिर है कि बच्चों को निजी प्रकाशकों की पुस्तकों व कुंजियों का सहारा लेना पड़ता है। ऐसे में प्राइवेट स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। बच्चों को इन समस्याओं से निजात दिलाने व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने के लिए नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया गया है, जिसमें बच्चों का बस्ता हल्का करने के अलावा सालाना परीक्षा में फेल होने वाले छात्रों को फिर से परीक्षा देने का एक और मौका देने का प्रावधान भी है। यह अच्छा संकेत है कि नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की कमतर योग्यता का मुद्दा भी उठाया गया है। लेकिन कड़वा सच यह भी है कि प्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या बहुत ही कम है। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में कमियां दिखती हैं, तो इसका बड़ा कारण प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव भी है। सही है कि सभी राज्य शिक्षा बोडरे में एकरूपता लाना व्यावहारिक और वांछनीय नहीं है, लेकिन क्या उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि पूरे देश में स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए एक कारगर रोडमैप तैयार हो।केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने अपने स्कूलों में दूसरी कक्षा तक के छात्रों के लिए स्कूल बस्ता लेकर नहीं आने और आठवीं कक्षा तक सीमित तादाद में किताबें लेकर आने का निर्देश जारी कर दिया है। सरकार को इल्म हो गया है कि नौनिहालों की पीठ बस्ते के बोझ से कूबड़ हो रही है। ‘‘देर आयद, दुरुस्त आयद’। लेकिन क्या अच्छा नहीं होता कि मंत्रालय सुनिश्चित करे कि उसकी इस पहल में राज्यों के शिक्षा बोर्ड भी सहभागी बनें! कोई मतलब नहीं कि सीबीएसई के स्कूलों का पाठ्यक्रम तो दुरु स्त हो जाए लेकिन राज्यों के शिक्षा बोडरे के तहत संचालित स्कूलों में वह पहले जैसा ही बना रहे क्योंकि महसूस किया जा रहा है कि स्कूली शिक्षा के स्तर पर देश भर में समान पाठ्यक्रम लागू करने की दिशा में बढ़ा जाना चाहिए। पता नहीं कि अगले माह आ रही नई शिक्षा नीति में समान पाठ्यक्रम की जरूरत पर बल दिया जाएगा या नहीं, लेकिन हमारे नीति-नियंता गंभीरता से सोचें कि असमान पाठ्यक्रम एक तरह की असमानता का ही निर्माण कर रहे हैं। निस्संदेह समान पाठ्यक्रम का यह मतलब नहीं कि देशभर में समस्त स्कूली पाठ्यक्रम एक जैसा ही हो, लेकिन वह 80-90 फीसद तो एक जैसा हो ही सकता है। इसमें अगर कोई कठिनाई है, तो केवल विभिन्न राज्य सरकारों के बीच की असहमति की। बेहतर होगा कि भावी चुनौतियों को देखते हुए शिक्षा को दलगत राजनीति का विषय न बनाया जाए।