गुणात्मक परिवर्तन चाहता
गणतन्त्र
प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हुए हम आमतौर पर उन्हीं संकल्पों को दोहराते
हैं जो हमने 26 जनवरी, 1950 को लिए थे।
इसी दिन हमारा संविधान लागू हुआ था जिसे जनता ने स्वयं बनाकर, स्वयं स्वीकार कर, स्वयं को ही समर्पित किया था। यह
ऐसा संविधान है जिसकी पूरे विश्व में प्रशंसा हुई और जिसने इंग्लैंड के राजतंत्र
को समाप्त कर भारत की जनता का शासन स्थापित किया। इस संविधान ने न केवल एक संप्रभु,
समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक
गणराज्य स्थापित किया, वरन न्याय, स्वतंत्रता,
समानता और बंधुत्व के उन मूल्यों को अपने गणराज्य का आधार बनाया जो
व्यक्ति की गरिमा और देश की एकता एवं अखंडता को बनाए रख सकें।
हमारा गणतंत्र
स्थायित्व और परिवर्तन का अद्भुत संगम है
गणतंत्र दिवस पर प्राय: लोगों के मन
में कौतूहल होता है कि इस बार गणतंत्र पर्व में नयापन क्या है? इस प्रश्न का उत्तर हमें अपने राष्ट्रगान में ही मिल जाता है। राष्ट्रगान
हमें यह संदेश देता है कि हमारा गणतंत्र स्थायित्व और परिवर्तन का अद्भुत संगम है।
इसमें जहां ‘विंध्य-हिमाचल’ के पर्वत
स्थायित्व हैं तो ‘गंगा-जमुना’ जैसी
नदियां परिवर्तन की प्रतीक हैं जहां ‘जलधि’ अर्थात समुद्र स्थायित्व तो ‘उच्छल तरंगा’ अर्थात ऊंची-ऊंची समुद्री तरंगें परिवर्तन की प्रतीक हैं। इसी प्रकार जब
हम ‘अधिनायक जय हे’ गाते हैं तो ‘अधिनायकत्व’ तो स्थायित्व दर्शाता है, लेकिन ‘मूर्त व्यक्ति’ अर्थात
इंग्लैंड के राजा से अमूर्त ‘राष्ट्रीय ध्वज’ और संविधान को अपना अधिनायक मानने में राजतंत्र से लोकतंत्र के बदलाव की
खुशबू आती है, लेकिन क्या हम अपने इस नए-अधिनायक अर्थात
राष्ट्रध्वज को जानते भी हैं जो एक ऐसे संविधान से उपजा जिसे हमने स्वयं बनाया?
देश में संविधान को पूरी तरह से पढ़ने-समझने
वाले लोग कम हैं
यदि हम अपने संविधान को ठीक से नहीं
जानते-समझते तो क्या गणतंत्र दिवस पर ली गई हमारी सभी प्रतिज्ञाएं अर्थहीन नहीं? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि हम
संविधान को वास्तविक रूप में जानने की स्थिति में नहीं हैं तो उसमें व्यक्त संकल्प
हमारे लिए ‘थोथे’ शब्द होकर रह जाते
हैं, फिर उन्हें सही अर्थों में मानने का सवाल ही पैदा नहीं
होता। यह बात देश में उन 26 प्रतिशत लोगों पर ही लागू नहीं
होती जो लिख-पढ़ नहीं सकते, वरन उन 74 प्रतिशत
शिक्षित एवं साक्षर लोगों पर खासतौर से लागू होती है जो संविधान पढ़ सकते हैं। अपने
अनुभव से हम जानते हैं कि देश में संविधान को पूरी तरह से पढ़ने-समझने वाले लोग
अंगुलियों पर हैं।
कठिन
भाषा में बने संविधान का सरल भाषा में ‘जन-संस्करण’ उपलब्ध होना चाहिए
क्यों हम अपने संविधान को ऐसा बनाए
हुए हैं कि जिस जनता को उसे पढ़ना-समझना चाहिए वह उसे समझ ही नहीं पाती? इतने विशालकाय, कठिन और कानूनी भाषा में बने संविधान
को पढ़ने के लिए किसके पास समय और समझ है? इस बात का प्रयास
होना चाहिए कि एक विधिक दस्तावेज की जगह संविधान का सरल, संक्षिप्त
और पठनीय ‘जन-संस्करण’ उपलब्ध हो जिसकी
खास बातों को जनता आसानी से समझ और आत्मसात कर सके। यह इसलिए महत्वपूर्ण है,
क्योंकि जनता को यह समझना बहुत जरूरी है कि वे कौन से संवैधानिक
मूल्य हैं जिनमें स्थायित्व है और जो बदल नहीं सकते। हां, समय
के साथ उनके भाव बदल सकते हैं जैसे गंगा में तो स्थायित्व है, लेकिन उसकी प्रवाहमयी धारा में बदलाव अंतनिर्हित है। इसी स्थायित्व और
बदलाव को समझने के लिए जनता को उन मूल्यों पर लगातार चर्चा करते रहना चाहिए जिनको
संविधान में स्थान दिया गया है।
नई
पीढ़ी देश की गौरवशाली इतिहास से स्वयं को ‘कनेक्ट’ नहीं कर पा रही है
परिवर्तन को लेकर प्रत्येक समाज
संवेदनशील होता है। प्रत्येक देश में ‘यथास्थितिवाद और
परिवर्तन’ का द्वंद्व चलता रहता है, लेकिन
परिवर्तन तो शाश्वत नियम है। यह जरूर है कि लोकतंत्र में परिवर्तन गहन विचारमंथन,
वाद-विवाद, लेकिन जन सहमति पर आधारित होता है।
आज 69वें गणतंत्र दिवस पर मुद्दा यह होना चाहिए कि भारतीय
गणतंत्र में क्या परिवर्तन अपेक्षित है? स्वतंत्रता के बाद
पिछले सत्तर वर्षों में एक बिल्कुल ऐसी नई पीढ़ी आ गई है जो स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम,
क्रांतिकारियों की कुर्बानियों, राष्ट्रनिर्माण
की समस्याओं, संविधान की श्रेष्ठता और अपने गौरवशाली इतिहास
से स्वयं को ‘कनेक्ट’ नहीं कर पा रही
है, लेकिन इस पीढ़ी में उन सबको जानने की ललक जरूर है। उसमें
स्वयं आगे बढ़ने का भाव भी है और देश और समाज के लिए कुछ करने का जज्बा भी।
नई
पीढ़ी ही व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जीवन में गुणात्मक
परिवर्तन लाने का सशक्त माध्यम है
वैश्वीकरण के युग में जब नई पीढ़ी के
युवा विदेशों में पढ़ने और नौकरी करने जाते हैं तो उनके सामने अपने देश के गौरव को
प्रस्तुत करने में कठिनाई आती है। आज हम गर्व करते हैं कि हम एक युवा समाज हैं और 65 प्रतिशत लोग 35 वर्ष की आयु से कम हैं। ऐसे में
जरूरत इस बात की है कि जन आंदोलन के माध्यम से नई पीढ़ी को वह सब कुछ बताया जाए
जिसे जानने के वे हकदार हैं ताकि गणतंत्र दिवस प्रतिवर्ष यांत्रिक रूप से मनाया जाने
वाला पर्व मात्र न होकर संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को मजबूत करने और
व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन
लाने का सशक्त माध्यम बन सके।
सरकारें
बदलती रहती हैं, लेकिन गणतंत्र अक्षुण्ण है
भारतीय लोकतंत्र में गणतंत्र
स्थायित्व, लेकिन सरकारें परिवर्तन की प्रतीक हैं। सरकारें
बदलती रहती हैं, लेकिन गणतंत्र अक्षुण्ण है। जब सरकारें
परिवर्तन की संवाहक हैं तो जनता उनसे किस प्रकार के परिवर्तन की उम्मीद करती है?
भारत जैसे देश में, जहां सदियों से ‘माई-बाप’ सरकार की संस्कृति रही हो, वहां बदलाव में निश्चित ही कुछ वक्त लगेगा।
स्वतंत्रता
के 70 वर्ष बाद भी सत्ता के गलियारों की मानसिकता अभी नहीं बदली
कानून बदले हैं, प्रक्रियाएं बदली हैं, लेकिन नहीं बदलती तो हमारी
मानसिकता। स्वतंत्रता के लगभग 70 वर्ष बाद भी सत्ता के
गलियारों, प्रशासनिक दफ्तरों और पुलिसिया थानों की मानसिकता
अभी नहीं बदली। अभी भी वही रौब-दाब, वही ‘माई-बाप’ और वही उत्पीड़न बरकरार है। जब जनता रोज-रोज
की जिंदगी में उनसे रूबरू होती है तो उसे अपने लोकतंत्र में एक ऐसा ठहराव दिखाई
देता है कि उसे गणतंत्र के संकल्प बेमानी लगने लगते हैं। क्या कोई सरकार इसमें
परिवर्तन का साहस करेगी? मोदी सरकार ने कुछ लगाम जरूर लगाई
है, लेकिन उन 29 राज्यों और सात
केंद्र-शासित क्षेत्रों की सरकारों का भी इस संबंध में कोई दायित्व बनता है,
क्योंकि जनता रोज-रोज के कामों के लिए तो राज्य सरकारों और स्थानीय
सरकारों के ही चक्कर लगाती है।
जनता
राजनीतिक एवं प्रशासकीय संस्कृति में परिवर्तन चाहती है
राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाएं
क्रमश: राजनीतिक एवं प्रशासकीय संस्कृति पर आधारित होती हैं। दुर्भाग्य से देश में
राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में तो कुछ बदलाव हुए, लेकिन राजनीतिक एवं प्रशासकीय संस्कृति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ।
राजनीतिक एवं प्रशासकीय संस्कृति हमारी सामाजिक संस्कृति से जुड़ी होती है, लेकिन हम सामाजिक संस्कृति में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं कर पाए हैैं,
बल्कि कुछ नकारात्मक परिवर्तन उसमें जरूर हुए हैं। गणतंत्र के इस
पावन पर्व पर जनता सरकारों से ऐसे परिवर्तन की उम्मीद करती है जिसमें वे राजनीतिक
स्वार्थों से ऊपर उठकर सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासकीय
संस्कृति में ऐसे गुणात्मक परिवर्तन करें जिससे गणतंत्र के संकल्पों और संविधान के
मूल्यों में उसका विश्वास पुन: जागृत हो सके।
डॉ. ए.के.वर्मा
[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं
राजनीतिक विश्लेषक हैं ]
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