26 दिसम्बर 1899 - 31 जुलाई 1940
सरदार उधम सिंह का नाम भारत
की आज़ादी की लड़ाई में पंजाब के क्रान्तिकारी के रूप में
दर्ज है। उन्होंने जलियाँवाला बाग
कांड के समय पंजाब के गर्वनर जनरल रहे माइकल
ओ ड्वायर को लन्दन में जाकर गोली मारी। कई इतिहासकारों का मानना है कि
यह हत्याकाण्ड ओ' ड्वायर व
अन्य ब्रिटिश अधिकारियों का एक सुनियोजित षड्यंत्र था, जो पंजाब पर नियंत्रण बनाए रखने
के लिए पंजाबियों को डराने के उद्देश्य से किया गया था। यही नहीं, ओ' ड्वायर बाद में भी जनरल डायर के
समर्थन से पीछे नहीं हटा था।
मिलते
जुलते नाम के कारण यह एक आम धारणा है कि उधम सिंह ने
जालियाँवाला बाग हत्याकांड के उत्तरदायी जनरल डायर (पूरा
नाम - रेजीनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर
) को मारा
था, लेकिन
इतिहासकारों का मानना है कि प्रशासक ओ' ड्वायर जहां उधम सिंह की गोली
से मरा सन् 1940, वहीं
गोलीबारी को अंजाम देने वाला जनरल डायर 1927 में पक्षाघात तथा कई तरह की बीमारियों
से ग्रसित होकर मरा।
उत्तर
भारतीय राज्य उत्तराखण्ड के एक ज़िले का नाम भी इनके नाम
पर उधम सिंह नगर रखा गया है।
जीवन वृत्त
उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में काभ्बोज परिवार में हुआ था। सन 1901 में उधमसिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के
चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी।
उधमसिंह का बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्तासिंह था जिन्हें
अनाथालय में क्रमश: उधमसिंह और साधुसिंह के रूप में नए नाम मिले। इतिहासकार मालती
मलिक के अनुसार उधमसिंह देश में सर्वधर्म समभाव के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने
अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद सिंह आजाद रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मों का
प्रतीक है।
अनाथालय में उधमसिंह की जिन्दगी चल ही रही थी
कि 1917
में उनके बड़े
भाई का भी देहांत हो गया। वह पूरी तरह अनाथ हो गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की
लड़ाई में शमिल हो गए। उधमसिंह अनाथ हो गए थे, लेकिन इसके बावजूद वह विचलित नहीं हुए और देश की आजादी तथा डायर को मारने की
अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए लगातार काम करते रहे।
माइकल ओ'ड्वायर की गोली मारकर हत्या
उधमसिंह
13 अप्रैल 1919 को घटित जालियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। राजनीतिक
कारणों से जलियाँवाला बाग में मारे गए लोगों की सही
संख्या कभी सामने नहीं आ पाई। इस घटना से वीर उधमसिंह तिलमिला गए और उन्होंने
जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा
ले ली। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुंचे और
वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के
उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली
एक रिवाल्वर भी खरीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने
के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा।
उधम सिंह
को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियांवाला बाग
हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी
जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल
पर पहुंच गए। अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली। इसके लिए
उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला
हथियार आसानी से छिपाया जा सके।
बैठक के
बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग
दीं। दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। उधम सिंह ने
वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी
ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।