पंडित श्रद्धाराम शर्मा
30 सितम्बर, 1837 - 24
जून, 1881
पंडित श्रद्धाराम शर्मा अथवा 'श्रद्धाराम फिल्लौरी' एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे, किन्तु एक ज्योतिषी
के रूप में उन्हें वह प्रसिद्धि नहीं मिली, जो इनके
द्वारा लिखी गई अमर आरती "ओम जय जगदीश हरे" के कारण मिली। सम्पूर्ण भारत
में पंडित श्रद्धाराम शर्मा द्वारा लिखित 'ओम जय जगदीश
हरे' की आरती गाई जाती है। श्रद्धाराम शर्मा जी ने इस
आरती की रचना 1870 ई. में की थी। पंडित जी सनातन धर्म
प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता
संग्राम सेनानी और संगीतज्ञ होने के साथ-साथ हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध
साहित्यकार भी थे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वाक्पटुता के बल पर उन्होंने
पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया था, जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित एक उर्वर भूमि मिली।
क़रीब डेढ़ सौ वर्ष में मंत्र और
शास्त्र की तरह लोकप्रिय हो गई "ओम जय जगदीश हरे" आरती जैसे भावपूर्ण
गीत की रचना करने वाले पंडित श्रद्धाराम शर्मा का जन्म ब्राह्मण कुल में 30 सितम्बर, 1837 में पंजाब के जालंधर ज़िले में लुधियाना के पास एक गाँव 'फ़िल्लौरी' (फुल्लौर) में हुआ था। उनके पिता
जयदयालु स्वयं एक अच्छे ज्योतिषी और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। ऐसे में बालक
श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। पिता ने अपने बेटे
का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि "ये बालक अपनी लघु जीवनी में
चमत्कारी प्रभाव वाले कार्य करेगा।" शिक्षा तथा विवाह बचपन से ही श्रद्धाराम
शर्मा जी की ज्योतिष और साहित्य के विषय में गहरी रुचि थी। उन्होंने वैसे तो किसी
प्रकार की शिक्षा हासिल नहीं की थी, परंतु उन्होंने सन 1844
में अर्थात् मात्र सात वर्ष की उम्र में ही गुरुमुखी लिपि सीख ली
थी। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, पर्शियन (पारसी) तथा ज्योतिष आदि की
पढ़ाई शुरू की और कुछ ही वर्षों में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए। उनका
विवाह एक सिक्ख महिला महताब कौर के साथ हुआ था।
श्रेष्ठ साहित्यकार पंडित श्रद्धाराम
शर्मा सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिन्दी के ही नहीं, बल्कि पंजाबी
के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक थे। इनकी गिनती उन्नीसवीं शताब्दी के
श्रेष्ठ साहित्यकारों में होती थी। अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल
पर उन्होंने पंजाब में नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया, जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये पहले से निर्मित उर्वर भूमि मिली।
उनका लिखा उपन्यास 'भाग्यवती' हिन्दी
के आरंभिक उपन्यासों में गिना जाता है। पं. श्रद्धाराम शर्मा गुरुमुखी और पंजाबी
के अच्छे जानकार थे और उन्होंने अपनी पहली पुस्तक गुरुमुखी मे ही लिखी थी; परंतु वे मानते थे कि हिन्दी के माध्यम से इस देश के ज़्यादा से
ज़्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। उन्होंने अपने साहित्य और
व्याख्यानों से सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ जबर्दस्त माहौल
बनाया था। उन्होंने सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार किया और उसी क्रम में ओम जय जगदीश
हरे आरती रची। पुस्तक लेखन पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने सन 1866 में पंजाबी (गुरुमुखी) में 'सिखों दे राज दी
विथिया' और 'पंजाबी बातचीत'
जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही पुस्तक 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य
के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए और उनको "आधुनिक पंजाबी भाषा के
जनक" की उपाधि मिली। बाद में इस रचना का रोमन में अनुवाद भी हुआ। इस पुस्तक
में सिक्ख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सार गर्भित रूप से
बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय हैं। इसके तीसरे और अंतिम अध्याय में पंजाब
की संकृति, लोक परंपराओं, लोक
संगीत, व्यवहार आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई
थी। इसी कारण से शायद इस पुस्तक को उच्च कक्षा की पढाई के लिए चुना गया। अंग्रेज़
सरकार ने तब होने वाली आई.सी.एस. (जिसका भारतीय नाम अब 'आई.ए.एस.'
हो गया है) परीक्षा के कोर्स में, अनिवार्य
पठनीय पुस्तक विषय के रूप में इस पुस्तक को शामिल किया था। "पंजाबी
बातचीत" में मालवा, मझ्झ जैसे प्रान्तों में जो इस्तेमाल
की जातीं हैं, वह बोली, बातचीत,
पहनावा, सोच, मुहावरे,
कहावतें जैसी बातों को समेटा गया है। "पंजाबी बातचीत"
को अंग्रेज़ ब्रिटिश राज के समय पंजाबी भाषा सीखने के लिए सबसे बड़ा सहारा समझते
थे।
'ओम जय जगदीश हरे' की रचना पंडित श्रद्धाराम शर्मा का गुरुमुखी और हिन्दी साहित्य में
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 1870 में 32 वर्ष की उम्र में पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने 'ओम
जय जगदीश हरे' आरती की रचना की। उनकी विद्वता और भारतीय
धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको
धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की
संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते, अपनी लिखी 'ओम जय जगदीश हरे' की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानों लोग बेसुध से हो जाते
थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद
भी उनके शब्दों का जादू क़ायम है। इस आरती का उपयोग प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक और
हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता मनोज कुमार ने अपनी सुपरहिट फ़िल्म 'पूरब और पश्चिम' में किया था और इसलिए कई लोग
इस आरती के साथ मनोज कुमार का नाम जोड़ देते हैं। भारत के घर-घर और मंदिरों में 'ओम जय जगदीश हरे' के शब्द वर्षों से गूंज रहे
हैं। दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिन्दू परिवार में ऐसा
व्यक्ति खोजना मुश्किल है, जिसके हृदय-पटल पर बचपन के
संस्कारों में 'ओम जय जगदीश हरे' के शब्दों की छाप न पड़ी हो। इस आरती के शब्द उत्तर भारत से लेकर
दक्षिण भारत के हर घर और मंदिर मे पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ गाए जाते हैं।
बच्चे से लेकर युवाओं को और कुछ याद रहे या न रहे, इसके
बोल इतने सहज, सरल और भावपूर्ण है कि एक दो बार सुनने
मात्र से इसकी हर एक पंक्ति दिल और दिमाग में रच-बस जाती है। हजारों साल पूर्व हुए
हमारे ज्ञात-अज्ञात ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति
गीत रचे, 'ओम जय जगदीश' की आरती
की भक्ति रस धारा ने उन सभी को अपने अंदर समाहित-सा कर लिया है। यह एक आरती
संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का
निचोड़ है। किसी भी कृति का कालजयी होना इसी तथ्य से प्रमाणित होता है कि जब कृति
उस कर्ता की न होकर समाज के प्रत्येक व्यक्ति की, अपनी-सी
बन जाये। जिस तरह 'रामचरितमानस' या
'श्रीमद्भगवद गीता' या 'नानक बानी' कालांतर में बन पायी है। इसी तरह
श्रद्धाराम शर्मा जी द्वारा लिखी 'ओम जय जगदीश हरे'
आज हरेक सनातनी, हिन्दू धर्मी के लिए
श्रद्धा का पर्याय बन गयी है। इस आरती का प्रत्येक शब्द श्रद्धा से भीगा हुआ,
ईश्वर की प्रार्थना और मनुष्य की श्रद्धा को प्रतिबिंबित करता
है। जनजागरण का कार्य वैसे पंडित श्रद्धाराम शर्मा धार्मिक कथाओं और आख्यानों के
लिए काफ़ी प्रसिद्ध थे। उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उद्धरण देते हुए
अंग्रेज़ हुकुमत के ख़िलाफ़ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार किया कि उनका आख्यान
सुनकर हर एक व्यक्ति के भीतर देशभक्ति की भावना भर जाती थी। इससे अंग्रेज़ सरकार
की नींद उड़ गई। श्रद्धाराम जी देश के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में भाग लेने तथा
अपने भाषणों में महाभारत के उद्धरणों का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़
फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे।
पंडित श्रद्धाराम शर्मा के विचार और
भाषण पुलिस में दाखिल होने वाले असंख्य लड़कों ने सुने थे और उसी के लिए 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको उनके
गाँव फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया था और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर
पाबंदी लगा दी गई थी। लेकिन उनके द्वारा लिखी गई किताबों का पठन विद्यालयों में हो
रहा था और वह जारी रहा। पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने अपने व्याख्यानों से लोगों में
अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई, बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया। पंडित श्रद्धाराम शर्मा
स्वयं ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे।
इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी
लोकप्रियता और बढ़ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे।
इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें लिखीं और लोगों के सम्पर्क
में रहे। एक ईसाई पादरी फ़ादर न्यूटन, जो पंडित
श्रद्धाराम शर्मा के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, उनके हस्तक्षेप पर अंग्रेज़ सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन
का आदेश वापस लेना पड़ा। पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने पादरी के कहने पर सन 1868
में ईसाईयों की पवित्र पुस्तक बाईबल के कुछ अंशों का गुरुमुखी
में अनुवाद किया। पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने अपने व्याख्यानों से लोगों में
अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई, बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया। प्रथम उपन्यासकार पंडित
श्रद्धाराम शर्मा को भारत के प्रथम उपन्यासकार के रूप में भी जाना जाता है।
उन्होंने 1877 में 'भाग्यवती'
नामक एक उपन्यास लिखा था, जो हिन्दी में
था। माना जाता है कि यह हिन्दी का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास की पहली समीक्षा
अप्रैल, 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका 'प्रदीप' में प्रकाशित हुई थी। इसके प्रकाशन से
पहले ही पंडित श्रद्धाराम शर्मा जी का निधन हो गया, परंतु
उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने काफ़ी कष्ट सहन करके भी इस उपन्यास का प्रकाशन
करवाया। इसे पंजाब सहित देश के कई राज्यों के स्कूलों में कई सालों तक पढ़ा जाता
रहा। पंडित श्रद्धाराम शर्मा के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर 'गुरु नानक विश्वविद्यालय' के हिन्दी विभाग के
डीन और हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों
में 'श्रद्धाराम ग्रंथावली' का
प्रकाशन भी किया। उनका मानना था कि पं. श्रद्धाराम का "भाग्यवती"
उपन्यास जो 1888 में निर्मल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था,
हिन्दी साहित्य का सबसे पहला प्रकाशित उपन्यास है। लेकिन यह
मात्र हिन्दी का ही पहला उपन्यास नहीं था, बल्कि कई
मायनों में यह पहला था। ज्ञातव्य है कि अब तक लाला श्रीनिवासदास के 'परीक्षा गुरु' को हिन्दी का पहला उपन्यास माना
जाता रहा है। 'द ट्रिब्यून' में
प्रकाशित समाचार/लेखों का सन्दर्भ लिया जाए तो 'भारतीय
साहित्य अकादमी' ने भी फिल्लौरीजी के उपन्यास
"भाग्यवती" को हिन्दी का सबसे पहला उपन्यास माने जाने को मान्यता दे दी
है। इस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास को और ख़ासकर हिन्दी उपन्यास के इतिहास के
पुनर्लेखन की दिशा में एक नई पहल हुई है। स्मरणीय बात यह है कि
"भाग्यवती" जेंडर इश्यू के सन्दर्भ में भी एक क्रांतिकारी रचना है,
क्योंकि इस उपन्यास की केंद्रीय मान्यता ही यही है कि बेटी बेटे
से किसी बात में कम नहीं होती।
आज जिस पंजाब में सबसे ज़्यादा कन्याओं
की भ्रूण हत्याएं होती हैं, इसका एहसास पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने बहुत पहले कर लिया था और इस विषय
पर उन्होंने 'भाग्यवती' उपन्यास लिखा, जो समय से बहुत पहले ये सोच लेकर सामने आया कि स्त्री शिक्षा, स्त्री को समानता का दर्जा मिलना स्वस्थ समाज के लिए लाभकारी है। इस
उपन्यास में उन्होंने काशी के एक पंडित उमादत्त की बेटी भगवती के किरदार के माध्यम
से 'बाल विवाह' जैसी कुप्रथा पर
ज़बर्दस्त चोट की थी। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय स्त्री की दशा और उसके
अधिकारों को लेकर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए थे। उपन्यास में उपन्यास की
नायिका भाग्यवती पहली बेटी पैदा होने पर समाज के लोगों द्वार मजाक उड़ाए जाने पर
अपने पति से कहती है कि "नन्ही सी कन्या की शादी करना, ग़लत बात है और बेटा या बेटी दोनों समान हैं।" प्रौढ शिक्षा देना
ज़रूरी है, ये भी मुद्दा लिया है। स्त्री शिक्षा पर बल
श्रद्धाराम शर्मा जी ने लड़कियों को तब पढ़ाने की वकालात की, जब लड़कियों को घर से बाहर तक नहीं निकलने दिया जाता था, परंपराओं, कुप्रथाओं और रूढ़ियों पर चोट करते
रहने के बावजूद वे लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे। जबकि वह एक ऐसा दौर था, जब कोई व्यक्ति अंधविश्वासों और धार्मिक रूढ़ियों के ख़िलाफ़ कुछ बोलता
था तो पूरा समाज उसके ख़िलाफ़ हो जाता था। निश्चय ही उनके अंदर अपनी बात को कहने
का साहस और उसे लोगों तक पहुँचाने की जबर्दस्त क्षमता थी। रचनाएँ पंडित श्रद्धाराम
शर्मा जी की लगभग दो दर्जन रचनाओं का पता चलता है, यथा-
संस्कृत कृतियाँ 'नित्यप्रार्थना' (शिखरिणी छंद के 11 पदों में ईश्वर की दो
स्तुतियाँ), 'भृगुसंहिता' (सौ
कुंडलियों में फलादेश वर्णन, यह अधूरी रचना है), 'हरितालिका व्रत' (शिवपुराण की एक कथा),
'कृष्णस्तुति' विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं। हिन्दी कृतियाँ 'तत्वदीपक'
(प्रश्नोत्तर में श्रुति, स्मृति के
अनुसार धर्म कर्म का वर्णन); 'सत्य धर्म मुक्तावली'
(फुल्लौरी जी के शिष्य श्री तुलसीदेव संग्रहीत भजनसंग्रह) प्रथम
भाग में ठुमरियाँ, बिसन पदे, दूती
पद हैं; द्वितीय में रागानुसार भजन, अंत में एक पंजाबी बारामाह; 'भाग्यवती'
(स्त्रियों की हीनावस्था के सुधार हेतु प्रणीत उपन्यास),
'सत्योपदेश' (सौ दोहों में अनेकविध
शिक्षाएँ), 'बीजमंत्र' ("सत्यामृतप्रवाह'
नामक रचना की भूमिका), 'सत्यामृतप्रवाह'
(फुल्लौरी जी के सिद्धांतों, और आचार
विचार का दर्पण ग्रंथ), 'पाकसाधनी' (रसोई शिक्षा विषयक), 'कौतुक संग्रह' (मंत्रतंत्र, जादूटोने संबंधी), 'दृष्टांतावली' (सुने हुए दृष्टांतों का संग्रह,
जिन्हें श्रद्धाराम अपने भाषणों और शास्त्रार्थों में प्रयुक्त
करते थे), 'रामलकामधेनु' ("नित्य
प्रार्थना' में प्रकाशित विज्ञापन से पता चलता है कि यह
ज्योतिष ग्रंथ संस्कृत से हिंदी में अनूदित हुआ था), 'आत्मचिकित्सा'
(पहले संस्कृत में लिखा गया था। बाद में इसका हिन्दी अनुवाद कर
दिया गया। अंतत: इसे फुल्लौरी जी की अंतिम रचना 'सत्यामृत
प्रवाह' के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था), 'महाराजा' कपूरथला के लिए विरचित एक नीतिग्रंथ
(अप्राप्य है)। उर्दू कृतियाँ 'दुर्जन-मुख-चपेटिका',
'धर्मकसौटी' (दो भाग), 'धर्मसंवाद', 'उपदेश संग्रह' (फुल्लौरी जी के भाषणों आदि के विषय में प्रकाशित समाचारपत्रों की
रिपोर्टें), 'असूल ए मज़ाहिब' (पंजाब
के लेफ्टिनेंट गवर्नर के इच्छानुसार फ़ारसी पुस्तक "दबिस्तानि मज़ाहिब'
का अनुवाद)। पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का
प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का जोरदार खंडन किया गया।
पंजाबी कृतियाँ 'बारहमासा' (संसार
से विरक्ति का उपदेश), 'सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ'
(यह ग्रंथ अंग्रेजों के पंजाबी भाषा की एक परीक्षा के पाठ्यक्रम
के लिए लिखा गया था। इसमें कुछेक अनैतिहासिक और जन्मसाखियों के विपरीत बातें भी
उल्लिखित थीं), 'पंजाबी बातचीत' (पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों की उपभाषाओं के नमूनों, खेलों और रीति रिवाजों का परिचयात्मक ग्रंथ), 'बैंत और विसनपदों' में विरचित समग्र
"रामलीला' तथा "कृष्णलीला' (अप्राप्य)। "सत्यामृत प्रवाह" किताब में व्यक्ति के उसूलों
पर बल दिया गया है। लेखक कहते हैं "एक बच्चे की बात अगर ऊसुलो पे टिकी हुई और
न्याय संगत है, उसे मैं ज़्यादा तवज्जो दूंगा, वेद पुरानों में कही गयी बिना तर्क या न्याय हीन बातों के बजाय।"
श्रध्धाराम जी विवेकी, न्यायप्रिय, स्वतंत्र विचारक, नए और खुले ढंग से वेदों का
निरूपण करने के हिमायती थे।
श्रद्धाराम शर्मा जी का स्वर्गवास
मात्र 44 वर्ष की अल्पायु
में 24 जून, 1881 को लाहौर में
हुआ। हिन्दी के जाने-माने लेखक और साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल ने पंडित श्रद्धाराम
शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। उनके
अन्तिम समय में, वे ये कहते हुए चल बसे कि "आज से
हिन्दी का बस एक ही सच्चा सपूत रह जायेगा, जब मैं जा रहा
हूँ।" उनका इशारा भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की और था। उस समय कहे ये भावपूर्ण शब्द
शायद अतिशयोक्ति से लगे हों, पर ये सच निकले। रामचंद्र
शुक्ल जी जो आलोचक थे, वे कहते हैं कि "श्रद्धाराम
जी की वाणी में तेज और सम्मोहन भी था और वे अपने समय के एक प्रखर लेखक कहलाये
जायेंगें।"
'ओम
जय जगदीश हरे' की आरती
साभार