Tuesday, April 28, 2020

28 अप्रैल : क्रान्तिकारी जोधसिंह अटैया के साथ 51 गुमनाम माँ भारती के वीर सपुतो का बलिदान दिवस

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेलेवतन पे मरने वालों का यही बांकी निशा होगा'। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंकने वाले अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया व उनके 51 अज्ञात साथियों को 28 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गई। जिस इमली के पेड़ में इन क्रांतिकारियों को फांसी दी गईआज वह एक वृक्ष तीर्थ बन चुका है। यहां पहुंचने वाले लोग खुद-ब-खुद उक्त पंक्तियां शहीदों की याद में खुद ही गुनगुनाने लगते हैं।



महातम क्रांतिकारियों के अपुर्व बलिदान का गवाह ‘इमली का पेड़’. यह कोई साधारण इमली का पेड़ नहीं है. भारत की आज़ादी के संघर्ष का गवाह है. इस पेड़ ने अपने सामने क्रांतिकारीयों को मरते मिट्ते देखा है. यह पेड़ देश के लिए मर-मिटने वालों के जीवन्त बलिदान का गवाह है.
भारतीय क्रान्ति के इतिहास में यह पेड़ ख़ास जगह बनाए हुए है. इसे बावनी इमली का पेड़ के नाम से जाना जाता है.
अंग्रेजो ने 28 अप्रैल 1858 को 52 क्रांतिकारियों को एक साथ इसी पेड़ पर फांसी के फंदे पर लटका दिया था. इस पेड़ ने तटस्थ होकर अंग्रेजो की नाक में दम करने वाले क्रांतिकारी जोधा सिंह अटैया और उनके 51 साथियो की की बलिदान को प्रत्यक्ष अनुभूत किया.
बावनी इमली शहीद स्थल उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के बिन्दकी उपखण्ड में खजुआ कस्बे के निकट पारादान में स्थित है. यह स्थान ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके साथियों की कुर्बानी के लिए काफी प्रसिद्द है.
ठाकुर जोधा सिंह बिंदकी के अटैया रसूलपुर अब पधारा गांव के निवासी थे. सन 1857 ई. की क्रांति में समय से वे क्रांतिकारी जोधा सिंह अटैया के रूप में जाने लगे. रानी लक्ष्मीबाई से प्रभावित जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत समय से लगी थी। बस वह अवसर की प्रतीक्षा में थे। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंगे्रजों से पांडु नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी। इन वीरों ने कानपुर में अपना झंडा गाड़ दिया। जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और सिपाही को उस समय जलाकर मार दियाजब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार रानीपुर पुलिस चैकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक पिट्ठू का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया। इनके क्रांतिकारी गुट ने अगले दिन ही जहानाबाद में तहसीलदार को बंदी बना कर सरकारी खजाना लूट लिया. जोधा सिंह अटैया को सरकारी कार्यालय लूटने एवं जलाये जाने के कारण अंग्रेजों द्वारा उन्हें डकैत घोषित कर दिया.
28 अप्रैल सन 1858 को अपने 51 साथियों के साथ खजुआ लौटते वक्त गद्दारों की सूचना पर कर्नल क्रिस्टाइल की सेना ने उन्हें सभी 51 साथियों सहित बंदी बना लिया और सभी को इस इमली के पेड़ पर एक साथ फांसी दे दी गयी. बर्बरता की चरम सीमा यह रही कि शवों को पेड़ से उतारा भी नहीं गया. कई दिनों तक यह शव इसी पेड़ पर झूलते रहे.
तब 3/4 मई 1858 को रात में रामपुर पहुर निवासी ठाकुर महराज सिंह ने सभी के अस्थि पंजर उतरवाए और शिवराजपुर गंगा घाट में अंतिम संस्कार किया। आज भी यहां भारत मां के इन अमर सपूतों को याद किया जाता है। तब से बावनी इमली का यह वृक्ष तीर्थ बन गया है। यहां शहीद दिवस के अलावा राष्ट्रीय पर्वो पर भी यहां पुष्पांजलि अर्पित करने लोग पहुंचते हैं।

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