नाना
फड़नवीस
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फरवरी 1742 - 13 मार्च 1800
नाना
फड़नवीस एक मराठा राजनेता थे, जो पानीपत के तृतीय युद्ध के समय पेशवा की सेवा में नियुक्त थे। वह अपनी चतुराई और बुद्धिमत्ता के लिये बहुत
प्रसिद्ध हैं। 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गई थी।
नाना फड़नवीस ने रघुनाथराव (राघोवा) की स्वयं पेशवा
बनने की सारी कोशिशें नाकाम कर दी थीं। नाना फड़नवीस का टीपू सुल्तान से भी युद्ध हुआ था। उन्होंने मराठा साम्राज्य की शक्ति को एक छत्र के नीचे
एकत्र करने की सफल चेष्टा की। पेशवा शासन के दौरान नाना फड़नवीस मराठा साम्राज्य
के प्रभावशाली मंत्री व कूटनीतिज्ञ थे। यूरोपीयों द्वारा उन्हें मराठा मैकियावेली (सुप्रसिद्ध इतालवी कूटनीतिज्ञ निकोलो
मैकियावेली पर आधारित नाम) कहा जाता था।
नाना फड़नवीस
युद्धभूमि से जीवित लौट आया था। इसके बाद 1773 ई.में नारायणराव पेशवा की हत्या
करा कर उसके चाचा राघोवा ने जब स्वयं गद्दी हथियाने का प्रयत्न किया, तो उसने उसका विरोध किया। नाना फड़नवीस ने नारायणराव के मरणोपरान्त
उत्पन्न पुत्र माधवराव नारायण को
1774 ई. में पेशवा की गद्दी पर बैठाकर राघोवा की चाल विफल कर
दी। नाना फड़नवीस ही अल्पवयस्क पेशवा का मुख्यमंत्री बना और 1774 से 1800 ई. में मृत्युपर्यन्त मराठा राज्य का संचालन
करता रहा। किन्तु उसकी स्थिति निष्कंटक न थी, क्योंकि अन्य
मराठा सरदार, विशेषकर महादजी शिन्दे उसके
विरोधी थे।
राज्य
में इतने विरोधी होते हुए भी नाना फड़नवीस अपनी चतुराई से समस्त विरोधों के बावजूद
अपनी सत्ता बनाये रखने में सफल रहा। 1775
से 1783 ई. तक उसने अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रथम मराठा युद्ध का संचालन किया। सालबाई की सन्धि से इस युद्ध की समाप्ति हुई
थी। उक्त संधि के अनुसार राघोबा को पेंशन दे गई और मराठों को साष्टी के अतिरिक्त अन्य किसी भूभाग से हाथ नहीं
धोना पड़ा। 1784 ई. में ही नाना फड़नवीस ने मैसूर के शासक टीपू सुल्तान से लोहा लिया और कुछ
ऐसे इलाके पुन: प्राप्त कर लिये, जिन्हें टीपू ने बलपूर्वक
अपने अधिकार में कर लिया था। 1789 ई. में टीपू सुल्तान के विरुद्ध
उसने अंग्रेज़ों और निज़ाम का साथ दिया तथा तृतीय मैसूर युद्ध में भी
भाग लिया। जिसके फलस्वरूप मराठों को टीपू के राज्य का एक भूभाग प्राप्त हुआ।
1794
ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु हो जाने से नाना फड़नवीस का एक
प्रबल प्रतिद्वन्द्वी उठ गया और उसके बाद नाना फड़नवीस ने निर्विरोध मराठा राजनीति
का संचालन किया। 1795 ई. में उसने मराठा संघ की सम्मिलित
सेनाओं का निज़ाम के विरुद्ध संचालन किया और खर्दा के युद्ध में निज़ाम की पराजय
हुई। फलस्वरूप निज़ाम को अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भूभाग मराठों को देने पड़े।
1796
ई. में नाना फड़नवीस के कठोर नियंत्रण से तंग आकर माधवराव
नारायण पेशवा ने आत्महत्या कर ली। उपरान्त राघोवा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना, जो
प्रारम्भ से ही नाना फड़नवीस का प्रबल विरोधी था। इस प्रकार ब्राह्मण पेशवा और उसके ब्राह्मण मुख्यमंत्री में
प्रतिद्वन्द्विता चल पड़ी। दोनों में से किसी में भी सैनिक क्षमता नहीं थी,
किन्तु दोनों ही राजनीति के चतुर एवं धूर्त खिलाड़ी थे। दोनों के
परस्पर षड़यंत्र से मराठों का दो विरोधी शिविरों में विभाजन हो गया, जिससे पेशवा की स्थिति और भी कमज़ोर पड़ गई। इसके बावजूद नाना फड़नवीस
आजीवन मराठा संघ को एक सूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ रहा।
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मार्च, 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही मराठों की समस्त
क्षमता, चतुरता और सूझबूझ का भी अंत हो गया।