जो आज के हालात को
आपातकाल जैसा बता रहे हैं वे या तो आपातकाल के बारे में जानते नहीं या फिर लोगों
को बरगला रहे हैं।
आपातकाल का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकल आया
और कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन गया। इस बार आपातकाल थोपने वाली कांग्रेस पर
हमला सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बोला। इमरजेंसी की 43वीं बरसी (बरसी कहना
ही उचित होगा) पर उन्होंने कहा कि कांग्रेस इतने साल बाद भी आपातकाल की मानसिकता
से उबर नहीं पाई है और भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने का प्रयास
कांग्रेस की आपातकाल की मानसिकता का ही परिचायक है। नेशनल हेरल्ड मामले का उल्लेख
किए बिना उन्होंने कहा कि नेहरू-गांधी परिवार यह स्वीकार नहीं कर पाया कि उसे
अदालत में पेश होना पड़ा और वह जमानत पर है। चूंकि परिवार को अदालत का दुस्साहस रास
नही आया इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के मुखिया पर हमला बोला गया।
दरअसल कांग्रेस को इंदिरा गांधी के समय से ही आदत रही है कि अदालतें ही
नहीं, बाकी संवैधानिक
संस्थाएं उसके मुताबिक चलें। वह विपक्ष में रहते हुए भी अपने को सत्ता की
स्वाभाविक पार्टी मानती है। इसीलिए उसके नेताओं को लगता है कि सत्ता उनकी निजी
जागीर है और नेहरू-गांधी परिवार देश के कानून और संविधान से ऊपर है। कांग्रेस और
उसका प्रथम परिवार यह स्वीकार करने को भी तैयार ही नहीं कि अब समय बदल गया है। जिस
परिवार का रुक्का पूरे देश में चलता था, अब सिमट कर चंद
राज्यों तक रह गया है। सोनिया और राहुल गांधी को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि
उनकी हैसियत राज परिवार से हटकर सामान्य परिवार की हो गई है। 1975 में आपातकाल सिर्फ इंदिरा गांधी की सत्ता बचाने के लिए लगाया गया था। संविधान
में 39 वां संशोधन करके व्यवस्था की गई कि प्रधानमंत्री के
चुनाव को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इस बदलाव में यह भाव अंतर्निहित
था कि इस परिवार के अलावा किसी और को तो प्रधानमंत्री बनना ही नहीं है। इतना ही
नहीं इस संवैधानिक प्रावधान को पिछली तारीख से लागू किया गया ताकि इंदिरा गांधी को
चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी
बनाया जा सके।
बहुत से लोगों
के मन में सवाल है कि आपातकाल के मुद्दे पर मोदी सरकार पिछले तीन सालों में ऐसी
हमलावर नहीं थी, फिर अब ऐसा क्या हो गया? इसकी
एक पृष्ठभूमि है। कांग्रेस लगातार प्रचार कर रही है कि नरेंद्र मोदी अधिनायकवादी
हैं और देश में अघोषित आपातकाल जैसे हालात हैं। जिन लोगों ने इमरजेंसी देखी और
झेली है उनकी नजर में यह आरोप हास्यास्पद है। जो आज के हालात को आपातकाल जैसा बता
रहे हैं वे या तो आपातकाल के बारे में जानते नहीं या फिर लोगों को बरगला रहे हैं।
आखिर प्रधानमंत्री को हर तरह की गाली देने की ऐसी छूट इमरजेंसी तो छोड़िए, उसके अलावा भी इससे पहले कब थी? इमरजेंसी में गाली
तो बहुत बड़ी बात है, इंदिरा गांधी की मामूली आलोचना करने पर
भी आप जेल की हवा खा सकते थे।
मशहूर वकील फली नरीमन ने आपातकाल के दिनों की याद करते हुए लिखा कि
किस तरह आंध्र प्रदेश के एक वकील के छात्र बेटे को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया
गया कि उसने बीस सूत्री कार्यक्रम के जुलूस को पढ़ाई के समय के बजाय छुट्टी के दिन
निकालने का सुझाव दिया था। कानून के इस छात्र पर आरोप लगाया गया कि वह देश की
सुरक्षा के लिए खतरा है। आंध्र प्रदेश के कानून मंत्री को भी यह पता लगाने में कि
वह किस जेल में बंद है, तीन हफ्ते लगे। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला
ने प्रधानमंत्री को औरंगजेब करार देते हुए कहा कि देश में बोलने की आजादी नहीं है।
सुरजेवाला को चाहिए कि वह अपने वरिष्ठ नेताओं से पूछ लें कि इमरजेंसी में इंदिरा
गांधी के बारे में ऐसी टिप्पणी करने वाला रात को अपने घर जाता या जेल?
पिछले चार साल
से प्रधानमंत्री मोदी के प्रति अपनी नफरत में कांग्रेस और लेफ्ट लिबरल्स झूठ का एक
पहाड़ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी इस नाकाम कोशिश में वे जानेअनजाने
आपातकाल का समर्थन कर रहे हैं। आपातकाल भारतीय जनतंत्र का सबसे बड़ा काला धब्बा है।
उसे इसलिए याद रखा जाना चाहिए ताकि कोई सरकार फिर ऐसा करने का दुस्साहस न कर सके।
मोदी विरोधी इस वर्ग का आरोप है कि बीते चार साल से अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में
है और विरोध की आवाज को दबाया जा रहा है। सोशल मीडिया के इस युग में ऐसी बात कोई
नासमझ ही कह सकता है। दरअसल इन लोगों की समस्या यह है कि वे मोदी की लोकप्रियता की
कोई काट खोज नहीं पा रहे। इसलिए एक नया विमर्श खड़ा करने की कोशिश हो रही है कि
मोदी राज में मुसलमान और दलित असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
इस वर्ग की समस्या यह है कि उनकी इस बात पर यकीन करने वाले सिर्फ
वही हैं जिनको इसमें सियासी फायदा नजर आता है। मोदी का तरह-तरह से डर दिखाने के
बावजूद विपक्षी दलों की एकता का प्रयास एक कदम आगे और तीन कदम पीछे चलता है।
विपक्षी एकता के सूत्रधार बने शरद पवार ही कह रहे हैं कि 2019 के चुनाव से पहले विपक्षी एकता व्यावहारिक नहीं है। मोदी की लोकप्रियता से
लड़ पाने की राहुल गांधी की नाकामी किसी से छिपी नहीं है। पार्टी अध्यक्ष बनने के
बाद से राहुल सोशल मीडिया के ट्रोल बनते नजर आ रहे हैं। उनकी सारी राजनीति
प्रधानमंत्री का ट्विटर पर मखौल उड़ाने तक सीमित हैं। राहुल गांधी और उनके
सलाहकारों को लगता है कि इससे वे एक बड़ी लकीर खींच पाएंगे। यह अलग बात है कि इस
कोशिश में वे अक्सर खुद हंसी का पात्र बन जाते हैं। जीवन में भले होता हो, लेकिन राजनीति में कोई शॉर्टकट नहीं होता, खासतौर से
उसके लिए जिसे लंबे समय की राजनीति करनी हो। बीते दिनों थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने
एक तथाकथित सर्वे प्रकाशित किया। इसके मुताबिक महिला सुरक्षा के मामले में भारत की
हालत सीरिया और अफगानिस्तान सरीखी है। इतना बड़ा निष्कर्ष सिर्फ पांच सौ
अड़तालीसलोगों से बात करके निकाला गया। इन्हें विशेषज्ञ बताया गया है।
राहुल गांधी को एक बार भी नहीं लगा कि यह बात न केवल सत्य से
परे है, बल्कि देश की छवि के लिए भी बुरी
है। उन्होंने यह जानने की भी जहमत नहीं उठाई कि आखिर वे विशेषज्ञ हैं कौन जिनकी
राय का इस्तेमाल पूरे देश को बदनाम करने के लिए किया गया? चूंकि
राहुल को इस कथित सर्वे के जरिये मोदी पर हमला करने का मौका नजर आया इसलिए
उन्होंने तुरंत अपना ट्वीट दाग दिया। अघोषित आपातकाल का आरोप लगाकर प्रधानमंत्री
मोदी पर हमला करने की कांग्रेस की रणनीति भी उलटी पड़ गई। आपातकाल संवैधानिक
संस्थाओं की गरिमा गिराने, वंशवाद और भ्रष्टाचार ऐसे मामले
हैं जिन पर कांग्रेस रक्षात्मक रहने के लिए अभिशप्त है। इन मुद्दों पर वह जब भी
मोदी पर प्रहार करने की कोशिश करेगी, खुद ही घायल होगी।
कांग्रेस की समस्या यही है कि उसे खोजे से भी कोई नया राष्ट्रीय विमर्श मिल नहीं
रहा और पुराने विमर्श उसके लिए सेल्फ गोल साबित हो रहे हैं।