कालिदास ने ‘मेघदूत’ के प्रारंभ में, प्रेमी-प्रेमिकाओं को आंदोलित करनेवाले आषाढ़ के पहले दिन का गुणगान किया है-‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’, परंतु जब पर्व-त्योहार का प्रसंग हो, तब ‘वैशाखस्य प्रथम दिवसे’ कहना अधिक समीचीन होगा.
इन दिनों विंध्य-वनों में लाल-लाल फूलों से आपादमस्तक लदे पलाश वृक्ष उन आदिवासी पुरुषों की तरह लग रहे हैं, जो एक मास बीत जाने पर भी, अपनी प्रेमिका के संग खेली होली के रंग को मिटाना नहीं चाहें. जैसे रामभक्त हनुमान ने मां जानकी की मांग के सिंदूर की नकल करते हुए पूरे शरीर में सिंदूर पोत लिया था, उसी तरह सीता अशोक को भी नहीं पता है कि किन अंगों को फूलों से अलंकृत करना चाहिए, किन्हें नहीं.
पतली टहनियों से लेकर मोटी जड़ तक बस फूल ही फूल. महुए के फूल दिग-दिगंत को पगलाने लगे हैं. पगला तो कोयल भी रहा है, जैसे आज के दिन अगर प्रेमिका उसे नहीं मिली, तो वह पूरे जंगल में आग लगा देगा. महुए के फूलों की तीव्र गंध के बीच कोयल की मर्मवेधी कूक और तन-मन पुलकित करनेवाली दक्षिणी हवा. विद्यापति के ‘दछिन पवन बहु धीरे’ का निहितार्थ मिथिला या बंगाल की शस्य-श्यामला धरती पर आकर ही खुलता है.
अपने देश में अलग-अलग पंचांग हैं, जिनके अनुसार अलग-अलग मास में वर्षारंभ होता है. लोग मानते हैं कि वर्ष का आरंभ वर्षा से यानी सावन से माना जाना चाहिए, क्योंकि कृषि का वार्षिक चक्र तभी शुरू होता है. लेकिन प्रकृति के उल्लास से यदि नववर्षागमन का कोई संबंध है, तो वसंत से बढ़ कर कौन उपयुक्त समय होगा! सौर पंचांग का नया वर्ष मेष संक्रांति से शुरू होता है. भारत में सूर्य और चंद्र दोनों की गतियों के आधार पर ज्योतिष गणना होती है.
सूर्य की गति पर आधारित सौरमास का प्रचलन अब बहुत कम हो गया है. चांद्रमास की प्रतिपदा-पूर्णिमा आदि तिथियां भी ग्रामीण जीवन में किसी तरह जीवित हैं. सूर्य के दो अयन (मार्ग) हैं-दक्षिणायण और उत्तरायण. चंद्रमा के घटने-बढ़ने के आधार पर हमारी तिथियां निर्धारित हुई हैं. हमारी पीढ़ी तक आते-आते चंद्रमा का आकार देख कर तिथि बतानेवाले या नक्षत्रों की स्थिति देख कर समय का अनुमान लगानेवाले लोग बहुत कम बच गये हैं. अगली पीढ़ी तो मोबाइल से ही समय, दिनांक और दिशा जान पायेगी!
विशुद्ध ग्राम्य जीवन में तिथियों की प्रभावशाली भूमिका रहते हुए भी अनेक धार्मिक कृत्यों के लिए सौर मास को ही आधार माना जाता है. जैसे, कार्तिक स्नान या माघ स्नान एक संक्रांति से शुरू होकर दूसरी संक्रांति पर संपन्न होती है, प्रतिपदा से पूर्णिमा तक नहीं. यह इसलिए कि सौर-गणना सर्वाधिक शुद्ध मानी जाती है.
चांद्र पंचांगों की गणना की शुद्धि के लिए समय-समय पर अतिरिक्त मास (मलमास) बनाना पड़ता है, जिसमें बहुत-से धार्मिक कृत्य वर्जित हैं. ग्रेगेरियन पंचांग में भी फरवरी मास का दिन 28 से बढ़ा कर 29 कर दिया जाता है. मगर सौर पंचांग की गणना इतनी त्रुटिहीन होती है कि इसे न तो अतिरिक्त मासों की जरूरत होती है, न तारीख बढ़ाने की.
मेष संक्रांति का पर्व असम में बिहू, बंगाल में पोइला बैशाख, पंजाब में बैसाखी, तमिलनाडु में पुदुवर्षम (अर्थात नववर्ष), मध्यवर्ती राज्यों में सतुआ संक्रांति, मिथिलांचल में सतुआनि और जूड़ि शीतल के नाम से मनाया जाता है. इस दिन स्नान-पूजन के बाद धर्मप्राण यजमान सत्तू, जल-पूरित घट, ताड़ के पंखे या बांस के बियने इस विश्वास के साथ दान करते हैं कि अगले जन्म में प्रचंड गर्मी में ये वस्तुएं उनके काम आयेंगी.
खाने-पीने की दृष्टि से यह संक्रांति पूर्ण ‘सात्विक’ है. दिन भर एक ही भोजन- जौ-चने का सत्तू. चाहे गूंध कर खाइए या सत्यनारायण पूजा के ‘सीतल प्रसाद’ की तरह घोल कर. लावण्य-सुख चाहते हैं, तो नमक मिलाइए और माधूर्य-सुख चाहते हों, तो घी-चीनी. यूपी-बिहार के मजदूर के जीवन का तो सत्तू ही आधार है. वे सूर्योदय से मध्याह्न् तक जांगड़तोड़ मेहनत करने के बाद प्याज व हरी मिर्च के साथ इसी ‘तुरंता’ में अपना छप्पन भोग पाते हैं. बलिया में कई तुरंता होटल हैं, जहां ‘दुनिया के फास्टेस्ट फूड’ सत्तू से ग्राहक की सेवा की जाती है. पीतल की ऊंची मेंड़वाली थाली और लोटा भर जल वहां का स्थायी भाव है.
सतुआनि की शाम मिथिलांचल में बहुत सुखद होती है, जब दिन भर के सत्तू-सेवन के बाद थाली में दलपूड़ी, भात, बेसन के झोलदार बड़े और नाना प्रकार की तरुआ (पकौड़ी),सब्जी परोसी जाती है. वहां अगला दिन वर्ष का पहला दिन होता है, जिसे जूड़ि शीतल कहते हैं.
सुबह तड़के उठ कर हर मां अपने बच्चों को सिर पर बासी पानी छिड़क कर जगाती है, ताकि पूरे वर्ष वे जुड़ाये रहें. बहनें धूल भरी सड़कों पर सबेरे-सबेरे जल छिड़कती हैं, ताकि तपती पगडंडी पर चलने से उनके भाई के पांवों में फफोले न पड़ जायें. उस दिन सबेरे चूल्हा-चौका बंद रहता है. पिछली रात का बचा हुआ बासी भात और व्यंजन चूल्हे के अदृश्य अग्निदेव से लेकर चौखट के द्वारपाल तक सबको नैवेद्य के रूप में गृहस्वामिनी अर्पित करती है. यह बलि जांता-ऊखल, चकला-बेलन जैसे जड़ पदार्थो तक सभी को अर्पित की जाती है. उस दिन मध्याह्न् भोजन यही बासी खाना होता है.
वर्ष के प्रथम दिन चूल्हे-चौके को आराम देने की प्रतिबद्धता गृहणियों में इतनी अटल है कि लकड़ी के चूल्हे की जगह घर में गैस के चूल्हे आ गये, तो उन्हें भी जूड़ि शीतल के दिन विश्रम करने और यथाभाग नैवेद्य पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया गया. पिछली रात की भात-बड़ी को फ्रिज में डाल कर ताजा रखा जा सकता है, मगर नहीं, उसे बासी होना और लगना भी चाहिए. बंगाल के लोग भी ‘पांतो भात’ रात में पानी डाल कर रखे बासी भात को सुबह-सुबह नमक-मिर्च के साथ खाना पसंद करते हैं. गर्मी में पांतो भात खाने से तन शीतल और मन प्रसन्न रहता है. इसी पानी-भात को धूप में रख कर वनवासी लोग हंड़िया शराब बनाते हैं, जिसे पीकर वे अपना सब कुछ भूल जाते हैं.
बंगाली समाज के लिए पोशाक खरीदने के दो ही पर्व हैं-दुर्गा पूजा और पहला बैसाख. दुर्गा पूजा में नये डिजाइनों की पोशाकें बाजार में उतारी जाती हैं और पहला बैसाख में पुरानी पोशाकों को ‘सेल’ की मार्फत खपाया जाता है. बंगाल के धर्मप्राण व्यवसायी सूर्योदय से पहले ही लाल वस्त्र में लिपटा नया खाता, फूल-पल्लव, सिद्धि (भांग) और रजत मुद्रा लेकर मंदिरों में देवता के समक्ष हाजिर हो जाते हैं.
आज के दिन दूकान पर आनेवाले हर ग्राहक को मिठाई और बांग्ला कैलेंडर देकर स्वागत करना उनके लिए श्रेय और प्रेय दोनों है.
महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूत’ के प्रारंभ में, प्रेमी-प्रेमिकाओं को आंदोलित करनेवाले आषाढ़ के पहले दिन का गुणगान किया है-‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’ कह कर, परंतु जब पर्व-त्योहार का प्रसंग हो, तब ‘वैशाखस्य प्रथम दिवसे’ कहना अधिक समीचीन होगा, क्योंकि यह दिन पूरे देश में वासंती उल्लास और सांस्कृतिक एकता का बीज-वपन करने का दिन है.